गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

राजा का है हाल बेहाल


सिमटते जंगल और शिकारियों पर कोई अंकुश नहीं होने से राष्ट्रीय पशु और जंगल के राजा बाघ की संख्या लगातार कम होती जा रही है। देश के सभी अभारण्य में लगातार इनकी संख्या चिंता का सबब बनती जा रही है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार बीसवीं सदी की शुरूआत में देश में 40 हजार से ज्यादा बाघ थे। सदी के शुरूआती सात दशकों में अंधाधुंध शिकार और जंगलों के सिमटने के कारण 1972 में बाघों की संख्या घटकर 1872 रह गई। बाघों की इस तरह गिरती संख्या पर केन्द्र सरकार ने 1973 में नौ टाइगर रिजर्व इलाकों में बाघ बचाओ योजना शुरू की। इसमें उत्तर प्रदेश तथा अब उत्तराखंड का जिम कार्बेट बाघ संरक्षित वन क्षेत्र भी शामिल था। हालत तो यह है कि उत्तरप्रदेश में राज्य में 26 हजार हेक्टयर से ज्यादा वन इलाका अतिक्रमण की भेंट चढ गया है। राज्य में बाघों के एकमात्र रहने के स्थान दुधवा टाइगर रिजर्व में भी 827 हेक्टयर जमीन पर गैरकानूनी कब्जा हो चुका है।

उत्तर प्रदेश में जब 1990 में गिनती हुई तो बाघों की संख्या 240 थी। वर्ष 2001 में हुई गणना में 284 बाघ थे जिनमें 123 नर,132 मादा और 29 शावक थे। दो साल बाद 2003 में हुई गिनती में इनकी संख्या स्थिर रही और दो साल में सिर्फ एक बाघ कम मिला। उस समय पाए गए 283 बाघ में 92 न, 162 मादा और 29 शावक थे।

इतना ही नहीं, वर्ष 2005 की गिनती में दस बाघ कम हुए और इनकी संख्या 273 हो गई। वर्ष 2007 में कराई गई गिनती के परिणाम 2008 में आए और इनकी संख्या 109 हो गई। बाघों की गिनती पहले उनके पंजों के निशान के आघार पर होती थी लेकिन 2007 की गणना में पद्धति का इस्तेमाल किया गया। गिनती के इस तरीके को ज्यादा विश्वसनीय माना गया। हालांकि कुछ लोगों ने कैमरा ट्रैप पद्धति पर यह कह कर सवाल उठाया कि इसमें कैमरे जमीन से डेढ़ फुट ऊपर लगे होते हैं और शावक उसकी रेंज में नहीं आ पाते।

दरअसल, शहरीकरण, औद्योगिकी विकास की रफ्तार ने दुनियाभर में जल, जंगल, जमीन को नुकसान पहुंचाया है। इससे सर्वाधिक हानि पर्यावरण एवं उसको बनाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अन्य प्राणियों की हुई। जंगल में जबरिया घुस आए विकास ने जानवरों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। इसका नतीजा यह है कि वन्य प्रणाली लगातार खत्म होते जा रहे हैं। कुछ जीव जंतुओं का तो नामनिशान ही मिट गया जबकि जानवरों की कई प्रजातियां लुप्तप्राय होने की कगार पर है। ऐसे में छोटे-छोटे वन्य प्राणियों से लेकर जंगल के राजा शेर (बाघ) तक सबके लिए अपनी जान बचाए रखना मुश्किल हो गया है। शेर को बचाने के जो सरकारी इंतजाम किए गए वे 'सफेद हाथीÓ साबित हो रहे हैं। जंगलात महकमे में राष्ट्रीय स्तर तक विशेष कार्ययोजना, विषय विशेषज्ञों से रायशुमारी, जांच कमेटी, बैठक, संगोष्ठी के दौर पर दौर जारी है जिनमें बेशुमार धन को खर्च किया जा चुका है।

बाघों के बारे में चर्चा और चिंतन पर बजट का बड़ा भाग खर्च कर दिए जाने के बावजूद नतीजे उत्साहवर्धक नहीं है। शेरों की संख्या बढऩा तो दूर उल्टे वे कम होते जा रहे हैं। हालत इतनी गंभीर हो गई है कि बाघ को बचाने के लिए बनाए गए राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य भी उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गए हैं। भारत के 66 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यारण्य में बाघ की संख्या सिमटती जा रही है। साल दर साल बढ़ते अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ शेरों की संख्या कम जाना आश्चर्यजनक है। वन विभाग के एक अधिकृत दस्तावेज के मुताबिक लगभग 25 वर्ष पहले भारत के विभिन्न प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेशों मेें शेरों की संख्या गणना के दौरान सर्वाधिक पाई गई थी। शायद यही कारण था कि देश दुनिया में कुछ बरस पहले मध्यप्रदेश के टाईगर स्टेट के रूप में पहचाना जाता था। वर्ष 2003 की अधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में बाधों की कुल संख्या का 23 प्रतिशत मध्यप्रदेश में मौजूद था। बाघों की यह संख्या 712 बताई गई। वर्ष 2003 के बाद भी वन विभाग ने लगातार यह दावा किया कि बाघों को बचाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। बाघ राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्य में सुरक्षित है। ऐसी ही एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2006 में 700 से ज्यादा बाघ होने की जानकारी दी गई। इसमें भी यह उल्लेख था कि मध्यप्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में 20 से 25 तक बाघ मौजूद हैं। हाल ही में भारत सरकार ने पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या को जांचने के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के पूर्व निदेशक पीके सेन की अध्यक्षता में तीन सदस्यों वाली कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने जांच के बाद जो खुलासा हुआ है उसने प्रकृति प्रेमियों, वन्यप्राणियों के संरक्षण में रूचि रखने वालों की नींद उड़ा दी है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट ने वन विभाग के आला अफसरों की कार्यप्रणाली को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। सेन कमेटी ने पन्ना टाइगर रिजर्व की अवलोकन करने के बाद यह पाया कि अब वहां एक भी बाघ नहीं है। यह क्षेत्र वर्ष 2008 से ही बाघविहीन हो गया है। सेन कमेटी की इस जांच रिपोर्ट के बाद वन विभाग के गलियारों में उच्च स्तर तक हलचल हो गई है। इसके बावजूद अधिकारी रिपोर्ट को खारिज कर देना चाहते हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य वन प्राणी संरक्षण डॉ. एचएस पावला कहते हैं कि पन्ना में बाघों के न होने से मैं सहमत नहीं हूं। बाघ लंबे क्षेत्र में विचरण करते रहते हैं और गणना के दौरान यदि वहां नहीं मिले तो इसको बाघों की विलुप्ति नहीं माना जा सकता है। वन विभाग के राज्यमंत्री राजेन्द्र शुक्ल की राय अफसरों से अलग है। वे स्वीकार करते हैं कि पिछले कुछ समय से इक्का-दुक्का बाघ ही देखे जा रहे थे। सेन कमेटी की रिपोर्ट में पन्ना क्षेत्र के बाघविहीन होने के तथ्य ने बाघ विशेषज्ञ डॉ. रघु चुड़ावत के दावे पर भी अपनी मोहर लगाकर उसे सही साबित कर दिया । 8-10 वर्षों से पन्ना क्षेत्र, में बाघों के बारे में गहन अध्ययन करते वाले डॉ. रघु चुड़ावत ने कई बार कहा कि पन्ना क्षेत्र में बाघों की लगातार मौत हो रही है और वे अब लुप्तप्राय हो गए हैं। यदि समय रहते डॉ. चुड़ावत की इस चेतावनी पर ध्यान दिया जाता तो शेरों (बाघों) की बेमौत मरने से रोका जा सकता था।

सच तो यही है कि बाघ एक अत्यंत संकटग्रस्त प्राणी है। इसे वास स्थलों की क्षति और अवैध शिकार का संकट बना ही रहता है। पूरी दुनिया में बाघ की संख्या 6,000 से भी कम है। उनमें से लगभग 4,000 भारत में पाए जाते हैं। भारत के बाघ को एक अलग प्रजाति माना जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम है पेंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस। बाघ की नौ प्रजातियों में से तीन अब विलुप्त हो चुकी हैं। ज्ञात आठ किस्मों की प्रजाति में से रायल बंगाल टाइगर उत्तर पूर्वी क्षेत्रों को छोड़कर देश भर में पाया जाता है और पड़ोसी देशों में भी पाया जाता है, जैसे नेपाल, भूटान और बांगलादेश। भारत में बाघों की घटती जनसंख्या की जांच करने के लिए अप्रैल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर (बाघ परियोजना) शुरू की गई। अब तक इस परियोजना के अधीन बाघ के 27 आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना की गई है जिनमें 37,761 वर्ग कि.मी. क्षेत्र शामिल है।

बाघ संरक्षण में सबसे बड़ा रोड़ा बाघ एवं स्थानीय निवासियो के बीच का संघर्ष है, जहां बाघ की चुस्ती व चपलता इंसान की चालाकी के आगे मात खा जाती है, क्योंकि जंगल के निवासी जन कुछ पैसों के लालच में क्रूर शिकारियों का साथ दे देते हैं। यदि मध्यप्रदेश की बात करें जो आज की तारीख में संभवत: देश का सबसे अधिक बाघ समृद्ध क्षेत्र है जहां कान्हा व बांधवगढ़, पन्ना व पेंच जैसे टाइगर क्षेत्र हैं, यहां भी शेर को अपने आसपास के क्षेत्र में रहने वाली मानव आबादी से ही ज्यादा खतरा है क्योंकि यह वह बागड़ है जो शेर को बचाती है और यदि बागड़ ही शेर खाने लगे तो शेर का भगवान ही मालिक है ।

शेर भी शिकार की तलाश में मजबूरी में मानव क्षेत्र में प्रवेश करता है जहां उसका पहला निशाना मवेशी होते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक शेर के लिए लगभग 15 वर्ग किमी क्षेत्रफल और खाने के लिए भरपूर शिकार होना चाहिए। औसतन एक शेर हर पांचवे दिन एक शिकार करता है, इस हिसाब से साल के लगभग 70 शिकार शेर को अपने भोजन के लिए चाहिए जिसमें शेर की पसंद हिरन, चीतल और हिरन की प्रजाति के अन्य जानवर होते हैं। जरूरत पडऩे पर शेर सुअर का भी शिकार करता है। शेर बिगड़ते पर्यावरण की ओर बहुत अच्छे से इशारा करता है, क्योंकि शेर का प्रिय भोजन हिरण या सुअर अच्छे पर्यावरण में अर्थात घनी जंगल की घास या पेड़ों से आच्छादित क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। मानव और शेर के इस द्वंद का समाधान मानव मानसिकता में बदलाव लाकर ही किया जा सकता है जहां लोगों को शेर के लिए जगह छोडऩे के लिए तैयार किया जा सके क्योंकि हमेशा यह सवाल सामने आता है कि आदमी ज्यादा कीमती है या शेर। काठमांडू वर्कशाप में यह निर्णय भी प्रमुख था कि बाघ के अंगो के स्थान पर जीवित बाघ की मांग बनायी जा सके। ऐसी कोई नीति बने इसके लिए बाघ चित्र प्रदर्शनी व जनचेतना जैसे कार्यक्रम की बात करी गई। आज की परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि शेर ही ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि मानव जीवन की दीघकालीन भलाई के लिए पर्यावरण की रक्षा आवश्यक है और शेर व शेर से जुड़े वन्य क्षेत्र का जीवन चक्र उन्नत पर्यावरण का एक सशक्त आधार है। चींटी से लेकर हाथी तक को प्रकृति ने यह ज्ञान दिया है कि जब तक मजबूरी न हो तब तक बगैर किसी को क्षति या चोट पहंचाए कैसे जिया जाए । वर्षों पहले मनुष्य भी इस बात को जानता एवं मानता था कि अपने निकट के पर्यावरण एवं वन्य जीवन चक्र से सामंजस्य कैसे बैठाया जाये किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज यह सामंजस्य अपना संतुलन खोता जा रहा है और इंसान यह भूल गया है कि अपने पर्यावरण तंत्र को हष्ट पुष्ट रखने के लिए शेर व शेर से जुड़े वन जीवन चक्र का स्वच्छंद विकास जरूरी है नहीं तो आने वाले समय में इस पर्यावरण व जैव असंतुलन के लिए इंसान दोषी होगा ना कि शेर ।

यह माना जा रहा है कि शासकीय, अशासकीय संस्थाओं, बाघ संरक्षण का हल्ला मचाकर फंड इक_ा करने वाले अधिकांश लोगों का ध्यान बाघ बचाने से ज्यादा बजट को खत्म करने पर है। वन्य जीवन सुरक्षा के नाम पर काम कम और खर्च अधिक हो रहा है। यदि इस ओर समय रहते ध्यान देकर प्रभावी कार्ययोजना नहीं बनाई गई तो आने वाले समय में देश प्रदेश के राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्य से बाघ का नामनिशान मिट जाएगा। आने वाली पीढ़ी बाघ के दर्शन तस्वीरों में ही कर सकेगी।

कोई टिप्पणी नहीं: