गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

नारी की टूटती वर्जनाएं

औरतों को लक्षित करके किसी मशहरोमारुफशायर ने कहा है कि- मैं कभी हारी गई, पत्थर बनी, गई बनवास भी, क्या मिला द्रोपदी, अहिल्या,जानकी बनकर मुझे। इस पंक्ति को आधुनिकता के चादर में लपेट कर आज की नारी तमाम वर्जनाओंको तोडऩा चाहती और उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। इक्कीसवीं सदी को भी न जाने किन-किन उपाधियों से सम्मानित किया जा रहा है। उपभोक्तावाद की सदी, स्त्रियों की सदी, सूचना क्रांति की सदी, और न जाने क्या-क्या...? देखा जाए तो उपभोक्तावाद और स्त्री, जब दोनों का संगम हुआ तो इक्कीसवीं सदी के खुले बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस सदी की स्त्रियों ने मांग की, कि हमें वर्जनओंसे मुक्ति दो। बाजार ने कहा कि सबसे बड़ी वर्जना तुम्हारी लाज और वस्त्र हैं। तुम उससे मुक्ति पा जाओ। वर्जनाओंके टूटते ही बाजार ने स्त्री को माल बनाया और इस माल को बाजार में उतार दिया। पुरुष की आदम मानसिकता ने इस उत्पाद को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया और चल निकली बाजार की वह गाड़ी, जो स्त्री की देहयष्टिïपर केंद्रित थी। फिर उसे आवरण के रूप में नाम मिले- मॉडल, तारिका, एस्कार्ट, ब्यूटीकांटेस्ट,पार्लर और मसाज। पुरुषों की असली बातचीत में इसका असली नामकरण हुआ 'काल गर्लÓ।
आज नहीं तो कल, हर वह चीज मुश्किलों की वजह बनी है, जिसे खास बना दिया गया। खास तौर पर वैसी हालत में, जबकि वह खास बनाया जाना अपनी सुविधाओं के लिए हो, अपने मनमाफिक हो और उस चीज पर अपना कब्जा जाहिर करने के लिए किया गया हो। मर्दों की दुनिया में 'औरतÓ एक ऐसी ही चीज है। इस चीज (कालगर्ल) का बाजार आज विश्वव्यापी हो गया है। पूरब और पश्चिम की मान्यताएं टूट चुकी हैं। स्त्री शो-पीस बनकर बाजार में खड़ी है। आओ और ले जाओ। पूरे समाज में खलबली मच गयी है कि दुहाई देनेवाले हाय-तौबा मचाए हुए हैं। सती प्रथा को महिमामंडित करने वाले इस देश की स्त्रियों ने भी इस बाजार में उतरने में कोई कोताही नहीं बरती है। अमीर-गरीब सभी परिवारों की स्त्रियां इस धंधे में है। लिहाजा, भारतीय समाज आंखें, फाड़-फाड़ कर रोज देह-व्यापार के पर्दाफाश की खबरें अखबार में पढ़ रहा है, टेलीविजन पर देख रहा है। विडंबना यह है कि जिस अखबार के एक पन्ने पर इस व्यापार को 'गंदाÓ बताकर उसका भंडाफोड़ किया जाता है, उसी अखबार के किसी और पन्ने पर इस व्यापार में उतरने या स्त्री देह को 'भोगनेÓ के ढेर सारे निमंत्रण आपके सामने मौजूद होते हैं। मीडिया की भूमिका इस मामले में कैसी है, इस पर विचार करने की जरूरत है। खासकर तब, जब एक अखबार-देह व्यापार के जरिये हानेवालीकमाई से देश के आर्थिक विकास का आंकलन करने लगे, जब वह यह हिसाब बिठाने लगे कि भारत की लड़कियों के देह-व्यापार में उतरने से देश के सकल घरेलू उत्पाद में कितना विकास होगा। अब देह व्यापार का धंधा बनारस या कोलकाता की किसी बदनाम रेड लाइट एरिया में रहने वाली औरतें ही नहीं करती हैं। तथाकथित कुलीन घरानों कॉन्वेंट एजूकेटेड लड़कियां, जिनके पास कैरियर के अच्छे विकल्प भी हैं, वो भी देह व्यापार के इस धंधे में लिप्त हैं और यह किसी भय या दबाव में नहीं, बल्कि एक ऐशो-आराम भरी जिंदगी जीने की ललक के कारण। पैसे और सुख-सुविधाओं की यह आकांक्षा बाजार में ले आ रही है।
देश की राजधानी दिल्ली अब देह-व्यापार की राजधानी हो गयी है- कहना अतिश्योक्ति न होगी। राजनीति के साथ-साथ सेक्स का बाजार भी यहां काफी तेजी से फल-फूल रहा है। पहले यहां विदेशी आते थे गौतम-बुद्ध और महात्मागांधी के दर्शन करने को और अब यहां विदेशी बालाएं आती हैं 'धंधेÓ की तलाश में। सचमुच, कितना बदल गया है जमाना। देह व्यापार के लिए विदेशी लड़कियों द्वारा भारत के बाजार को सहूलियत की नजर से देखना न सिर्फ हमारे समाज को गर्त में धकेल रहा है, बल्कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति के समागम को ऊहापोह की स्थिति में अधिकतर उच्च-मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की लड़कियों को अपने जिस्म की नुमाइश और इनके व्यापार को एडवांस समाज में अपने आपको एडजस्ट करने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण शार्ट कट मानने के लिए भी उकसा रहा है।
गौरतलब है कि विदेशी लड़कियों को भारत आने में ज्यादा मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता है। टूरिस्ट वीजा के नाम पर आने वाली इन लड़कियों का भारत आना-जाना लगा रहता है और भारतीय दलाल इन लड़कियों से निरंतर संपर्क बनाए रहते हैं। कॉरपोरेट जगत के बादशाहों, नेताओं की पहली पसंद आजकल विदेशी लड़कियां अधिक होती हैं। पिछले कुछ महीनों में खासकर दिल्ली में एक के बाद एक हुए कॉल गर्ल रैकेट के पर्दाफाश पर यदि नजर दौड़ाएं तो यह बात खासतौर पर सामने आती है कि अधिकतर ऐसे रैकटोंका पर्दाफाश न सिर्फ पॉश इलाकों में हुआ है, बल्कि बड़े-बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के फार्म हाउसों में भी। अलबत्ता अपनी पहुंच के बूते ऐसे लोगों के नाम सामने नहीं आ पाए हैं।
तेजी से पांव पसारते कॉलगर्ल के मौजूदा बाजार में गोरी-चमड़ी वाली लड़कियों की काफी मांग है, उजबेकिस्तान, अजरवैजान,नेपाल, बंाग्लादेश और मोरक्को सरीखे देशों से आने वाली अत्याधुनिक कपड़े पहनने वाली, शराब-सिगरेट की आदी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाली इन विदेशी लड़कियों को भारतीय सेक्स बाजार में सेक्स के मामले में ज्यादा खुला समझा जाता है। यही कारण है कि कुछ ग्राहक इन्हें हाइजेनिक माल भी कहते हैं। दरअसल, इन लड़कियों के साथ सेक्स सुख भोगने में इन्हें ज्यादा सामाजिक खतरा नहीं होता, क्योंकि अधिकतर विदेशी लड़कियां धंधा कर अपने देश वापस चली जाती हैं। इस कारण ग्राहकों के साथ किसी भी तरह का उन्हें भावनात्मक जुड़ाव भी नहीं होता है। लिहाजा, भारतीय पुरुष विदेशी लड़कियों पर पैसा लगाना अधिक फायदे का सौदा समझते हैं। पिछले कुछ दिनों में उजागर हुई घटनाओं पर गौर फरमाने पर यह बात खासतौर पर सामने आई है कि कॉलगर्लके इस बाजार में उपभोक्ता जहां अधिकतर उच्च वर्ग का है, वहीं मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग इस बाजार का 'मालÓ बन गया है। इन घटनाओं के अध्ययन से यह बात भी खास तौर से जाहिर होता है कि अधिकतर खाते-पीते घरों की लड़कियां ही ऐसा कदम उठाने में क्यों बाजी मार रही हैं? कारण सामने आता है कि उच्च मध्यमवर्गीय लड़कियों के कदम इस धंधे में जानबूझकर पड़ रहे हैं। दरअसल, किसी के साथ एक रात गुजारो और 15-20 हजार पा लो, इससे हसीन दुनिया और भला क्या हो सकती है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ ने इन लड़कियों की आस्था और मूल्यों को काफी पीछे छोड़ दिया है। महंगे मोबाइल, गाड़ी, कपड़े, अच्छे रेस्तरां में भोजन- ये सभी चीजें एक हाई-फाई जिंदगी जीने के लिए आवश्यक है।
सवाल कई हैं। जैसे-जैसे दुनिया आधुनिक होती जाएगी, पुरानी मानदण्डों का टूटना लाजिमी है। हर वह मंदिर लूटा गया, जो हीरे-जवाहरात की खान जैसा बन गया था। जायदाद के रूप में देखी गयी औरत आज अपनी उस ताकत का इस्तेमाल कर रही है, तो मुश्किल सवालों का खड़ा होना लाजिमी है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि बहुत तेज रफ्तार से भागते हुए इस देह के धंधे को वह समाज कितना और कैसे पचा पाएगा, जिस समाज में बलात्कार के बाद खुद लड़की भी अपना जीवन खत्म हुआ मान बैठती है? यकीनन, अभी हमें और बहुत सारे सवालों से रू-ब-रू होना बाकी है। आधुनिकता की आंधी में पुराने महलों का ढहना लाजिमी है, लेकिन देखना होगा कि इस आंधी में टिकने के लिए जो रास्ते अख्तियार किए जाएंगे, वे नयी पैदा होनेवाली आंधियों का सामना कैसे कर पाते हैं। जाहिर है कि समाज अपने सामने पैदा होने वाले नए हालात से तालमेल बिठा ही लेता है। लगता है, आज का हमारा समाज इस नए सवाल से तालमेल बिठाने की कोशिश में है।
इन्हीं कोशिशों को आत्मसात करने, वज्रमूल्यों को चकनाचूर करने आदि पुरानी औरत को 'सतीÓ या 'वृंदावन-बनारस की गंजी विधवाÓ के द्वार तक पहुंचने से रोकने की प्रक्रिया को ब्यूटी कांटेस्ट, ग्लैमर, महिला आजादी, उनकी नौकरी, गायन, रैंपमॉडल, स्वागतकर्मीया एस्कार्ट के छद्ïम नाम और आवरण में लपेटना समाज की मजबूरी तो है, पर यह औरत को गंदे शब्दों और गंदी परिभाषाओं से निजात भी दिलाता है।