शनिवार, 19 दिसंबर 2009

मील का पत्थर

पनपा भी मैं तो रेगिस्तान में
बालुओं की ठहरी जिंदगी ने
मेरी सीमाएँ बांध दी है
एक माली है, जो चाहता है
मैं बढ़ँू, फूलूँ और फ लूँ
और काट देता है
जीवन की चाह लिए
मेरे कपोल शाखाओं को
जिनकी थी तमन्ना कि
वे विकसित होकर
अपना जहाँ बनाए
बाधाओं से लड़कर
रेगिस्तान में फूल खिलाएं
लेकिन, शायद मेरा माली डरता है
कहीं सत्य ही में बालूखण्ड पर
कल्पतरू बन न उभर जाऊँ
इसलिए उसने मेरे चारों ओर
फैला दिया है अपने बरगदी साए को
और ठँूट कर दिया है मेरे व्यक्तित्व को
दिया है तोहफा हमें
अपनेपन के नागफनी फूल का
आज ठूँठ होकर रह गया हँू में
यही सत्य है।
मैं ठूँठ हँू, लेकिन स्पन्दहीन नहीं
अभी तक धड़कने,
मेरे अस्तित्व को
कंपायमान किए हुए हैं
सूखने नहीं दे रही है
मेरी जीर्ण-शीर्ण पड़ी काया को
फिर मुझे है तलाश
ऐसे बहार की जो
मेरे कुण्ठित शिराओं को सहलाए
कराए एहसास, मैं ठूँठ नहीं हँू
ऐसे सींचे मुझे कि
जीवन में हरियाणा बिखेर सकूँ
और मृगतृष्णा से दूर
ठहरी हुई जिंदगी के लिए
मील का पत्थर बन सकूँ।

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