बुधवार, 2 दिसंबर 2009

कृषि भूमि का बढ़ता संकट

भूमि, कृषि प्रधान भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। देश की दो तिहाई से अधिक आबादी आज भी कृषि, पशुपालन और इनसे संबंधित व्यवसायों पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूरी तरह भूमि पर निर्भर है। लेकिन हाल के वर्षाें में सरकार द्वारा भूमि के अधिग्रहण से ग्रामीण क्षेत्रा की कृषि योग्य निजी और सार्वजनिक जमीन निरंतर सिकुड़ती जा रही है। सरकार शहरी विस्तार से जुड़ी विभिन्न योजनाओं, औद्योगिकीकरण और विशेष आर्थिक क्षेत्रा ; ैचमबपंस म्बवदवउपर्ब वदमद्ध के नाम पर भूमि का अधिग्रहण कर देश को जाने-अनजाने में एक बड़े संकट की ओर धकेल रही है। इससे एक ओर आने वाले समय में देश की जरूरत के लिए खाद्यान्न और अन्य कृषि उत्पादों का संकट पैदा होने की आशंका बढ़ गई है तो दूसरी ओर किसानों और ग्रामीण आबादी को उनकी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किए जाने से विस्थापन और सदियों पुरानी ग्रामीण समाज व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है।
यह सच है कि मूलभत नागरिक सुविधाओं की आपूर्ति और विकास योजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण अवश्यंभावी है। स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, नहरों, पेयजल और बिजली परियोजनाओं के निर्माण और प्रशासनिक भवनों व सेना के लिए जमीन के अधिग्रहण को रोका नहीं जा सकता। इन उद्देश्यों से जब सरकार कृषि योग्य या सार्वजनिक भूमि का अधिग्रहण करती है और इससे किसी गांव या बस्ती का विस्थापन होता है तो सरकार कथित रूप में जमीन का मुआवजा देने और विस्थापितों के पुनर्वास की व्यवस्था करती है। लेकिन इधर सरकार द्वारा सस्ते दामों पर या मनमाने ढंग से किसानों की निजी अथवा सार्वजनिक जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों और व्यवसाइयों को सौंपे जाने सेे भूमि अधिग्रहण एक जटिल समस्या बन गई है। इससे कई पीढ़ियों से कृषि, पशुपालन और जल-जंगल-जमीन पर निर्भर लोगों के समक्ष आजीविका संकट का खतरा बढ़ ही गया है तो दूसरी ओर लेकिन जिन उद्यमियों और व्यवसाइयों को सरकार जमीन सौंप या बेच जा रही है उनकी संपत्ति और आमदनी में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो रही है। यह समस्या विशेष आथर््िाक क्षेत्रा के नाम पर सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण कर उसे पंूजीपतियों को सौंपने के लिए 2005 में बनाए गए विशेष आथर््िाक क्षेत्रा अधिनियम के कारण और बढ़ गई है। सरकार की योजना कृषि योग्य जमीन में करीब 600 एस।ई.जेड. बनाने कीे है। इनमें से वर्ष 2008 के अंत तक, 260 एस.ई.जेड. परियोजनाओं को अधिसूचित ;छवजपपिमकद्ध किया जा चुका था।
जानकारों का कहना है कि एस।ई.जेड. के नाम पर जमीन हथियाने की जो होड़ इस समय देश में लगी है वह पिछले करीब 100 वर्षों में अब तक की सबसे बड़ी भूमि अधिग्रहण की मुहिम है। चंूकि सरकार विशेष आथर््िाक क्षेत्रा अधिनियम बनाने के समय ही स्पष्ट कर चुकी थी कि एस.ई.जेड. समय की मांग है, इसलिए उसने पहले चरण में ही 125 लाख कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण कर इस मुहीम को हरी झंडी दिखा दी है। दूसरे चरण में भी लगभग इतनी ही जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि कानूनन दो फसली जमीन का 10 प्रतिशत से अधिक हिस्सा गैर कृषि उपयोग के लिए अधिग्रहण न किये जाने की व्यवस्था है। सरकार ने भी उद्यमियों से साफ कह दिया है कि स्वीकृत परियोजनाओं के लिए सरकार केवल 30 प्रतिशत जमीन का ही अधिग्रहण करेगी बाकी उन्हें सीधे किसानों से बाजार भाव पर खरीदनी होगी। स्पष्ट है कि जमीन सरकार खरीदे या उद्योगपति दोनों ही स्थितियों में किसान को ही बेदखल होना है।
निजी एस।ई.जेड. तो किसानों से कृषि योग्य जमीन हथिया कर उसे पंूजीपतियों के हवाले करने का एक षढयंत्रा तो है ही, इसके लिए सरकार और पूंजीपति दोनों किसानों और भू-मालिकों को तात्कालिक लाभ और प्रलोभन दिखाने के साथ-साथ उनकी मजबूरी को फायदा उठाकर जमीन हथिया रहे हैं। इसके अलावा सार्वजनिक और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप नाम से स्थापित होने वाली औद्योगिक इकाइयों के लिए भी सरकार भारी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण कर रही है, हालांकि ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप कंपनियों का लाभ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में पूंजीपतियों और उद्योग जगत को ही मिलना निश्चित है। लेकिन कुछ मामले तो ऐसे भी हैं। जहां न तो घोषित तौर पर एस.ई.जेड. बनाया जाना है और न ही सार्वजनिक या पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप नाम से औद्योगिक इकाइयां विकसित की जानी हैं वहां भी सरकार किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर सीधे उद्यमियों को सांैप रही है। प. बंगाल का चर्चित सिंगूर भूमि अधिग्रहण का मामला इसकी एक मिसाल है।
प।बंगाल सरकार ने सिंगूर की जिस 9097 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर टाटा मोटर्स को सौंपी थी उस पर कोई एस।ई.जेड. नहीं बनना था बल्कि वह उसकी लखटकिया ‘नैनो’ कार के निमार्ण के लिए लगने वाले उपक्रम के लिए दी गई थी। इसके लिए सरकार ने 140 करोड़ रुपए की कीमत चुकाई थी और मात्रा 20 करोड़ रुपए में टाटा को सौंप दी गई, वह भी पांच वर्षीय कर्ज के रूप में छोड़ दी गई। यह अलग बात है कि सिंगूर में भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध चले जनांदोलन के कारण टाटा को वहां लखटकिया का कारखाना लगाने का विचार छोड़ना पड़ा। अन्यथा किसानों और मजदूरों की हितैषी कही जाने वाली राज्य की वाममोर्चा सरकार ने किसानों को उनकी जमीन से बेदखलकर टाटा को लाभ पहुंचाने की तैयारी पूरी कर ली थी।
प।बंगाल सरकार केे समान ही सभी राज्यों की सरकारें एस.ई.जेड. या गैर एस.ई.जेड. के नाम पर जमीन का अधिग्रहणकर उसे देशी-विदेशी उद्यमियों और पूंजीपतियों और जमीन के कारोबार करने वाले डेवलपरों को देने की होड़ में लगी हुई हैं। गुजरात के जाम नगर में 9000 हेक्टेयर में पेट्रो प्रोडक्ट एस.ई.जेड., मंगलोर के पास ओएनजीसी की भागीदारी वाला एस.ई.जेड., उड़ीसा के जगतसिंहपुर में कोरियाई स्टील कंपनी पास्को का एस.ई.जेड., हरियाणा के झज्जर जिले में अनिल अंबानी का एस.ई.जेड., मुंबई के पास रायगढ़ में 14000 हेक्टेयर पर देश का सबसे बड़ा एस.ई.जेड., पंजाब के बरनाला जिले में बन रहा एस.ई.जेड. आदि कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जहां कि राज्य सरकारें कृषियोग्य भूमि का अधिग्रहणकर उसे पूंजीपतियों को सौंपने पर आमादा हैं। चूंकि इस बीच देशभर में भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध चले आंदोलनों के कारण सरकार ने एस.ई.जेड. के लिए भूमि की अधिकतम सीमा 5000 हेक्टेयर कर दी है इसलिए राज्यों की सरकारें उनका अधिक हित नहीं कर पा रही हैं फिर भी उद्योगपति सरकार पर जिस तरह का दबाव बनाए हुए हैं। इससे साफ है कि यदि किसान लापरवाह और उदासीन रहे तो देर-सबेर वे अपनी जमीन से बेदखल हो जाएंगे। इसका खामियाजा किसानों को ही नहीं पूरे देश को आने वाले समय में खाद्यान्न संकट के रूप में झेलना पड़ सकता है। इसके अलावा कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग जो कंक्रीट का जंगल उगेगा उससे पैदा होने वाली पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या अलग है। एक ओर दुनियाभर के पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक अनिंयत्रित औद्यौगिकीकरण के कारण भू-मंडलीय उ$ष्णता और उसके कारण जलवायु परिवर्तन से बराबर आगाह कर रहे हैं वहीं भारत सरकार पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन के लिए जिम्मेदार उद्योगों को चिंताजनक गति से बढ़ावा दे रही है।
एस।ई.जेड. और औद्योगिकीकरण को यदि छोड़ भी दिया जाए तो शहरी विस्तार ही अकेले किसानों और ग्रामीण आबादी को उनकी जमीन से बेदखल कर दर-ब-दर करने के लिए कम नहीं है। शहरी विस्तार के कारण सरकार जन सुविधाओं के नाम पर सामाजिक कारणों के लिए जमीन का अधिग्रहण करती है, जिस पर सड़कों, सीवर लाइनों, पेट्रोल पंपों, स्कूलों, अस्पतालों, बिजली घरों, पेयजल योजनाओं, आवासीय एवं व्यावसायिक परिसरों का निर्माण किया जाता है। यद्यपि ये सभी निर्माण कार्य जन सुविधाओं के नाम पर होते हैं लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद ये सभी दायित्व सरकार द्वारा निजी हाथों में सौंप दिए जाने के कारण अधिग्रहण की गई जमीन पूंजीपतियों और व्यवसाइयों को सौंप दी जाती है जिस पर वे करोड़ों-अरबों रुपए का कारोबार करते हैं। या फिर सरकार स्वयं जमीन का अधिग्रहण कर उसे विभिन्न योजनाओं के लिए विकसित करने के बाद उसे किसानों को चुकाई गई कीमत से कई गुना अधिक कीमत पर जरूरतमंदों को बेचती है। इससे किसान न केवल अपनी जमीन से बेदखल हो जाता है बल्कि उससे आजीविका का सहारा भी छिन जाता है। जमीन से मिली कीमत से 10-12 साल तक ही गुजारा हो पाता है। अत्याधुनिक बाजार व्यवस्था के भूमि की कीमत या मुआवजे के रूप में मिला धन विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के जरिए फिर से पूंजीपतियों के खजाने में जा मिलता है, इस क्रम में किसानों के बच्चे जो देश के अन्नदाता हो सकते थे फिजूलखर्ची और कई तरह की बुरी आदतों के आदी हो जाते हैं। आगे वह स्वयं या उसके बच्चे अपनी पुस्तैनी जमीन पर आबाद व्यावसायिक परिसरों-आवासीय परिसरों में मजदूर, क्लर्क, ड्रायबर, चपड़ासी, चैकीदार या घरेलू नौकर के रूप में नौकरी करके आजीविका चलाने के लिए मजबूर हो जाता है, लेकिन ये नौकरियां भी जमीन से विस्थापित सभी किसानों को नहीं मिल पाती हैं। यही नहीं कुछ लोग अपनी फिजूलखर्ची और बुरी आदतों के कारण राहजनी और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रा, दिल्ली सहित उन सभी क्षेत्रों में हुई आपराधिक गतिविधियों और उनमें सक्रिय लोगों से भी होती है, जहां कि सरकार ने कृषि भूमि के स्थान पर भव्य आवासीय, व्यावसायिक और औद्योगिक परिसरों का निर्माण किया है। ये समस्याएं शहरी विस्तार और अंधाधुंध औद्योगिकीकरण के साथ बढ़ती ही जा रही है।
मुंबई समेत महाराष्ट्र के एक बड़े हिस्से में वहां कार्यरत गैर मराठी भाषी मुख्यतः बिहार और उत्तर प्रदेश लोगों के प्रति जो विद्वेष की भावना हाल के वर्षों में देखी गई है, उसका एक बड़ा और अहम् कारण भी यही है। यद्यपि इस भावना को भड़काने उसका राजनैतिक लाभ लेने में पहले शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की कुत्सित राजनीति रही है लेकिन मुंबई के विस्तार और राज्य में शहरीकरण के विस्तार के कारण कृषि और कृषि आधारित व्यवसायों के खत्म होने से मराठी लोगों में कहीं न कहीं इस तरह की भावना रही है। दुर्भाग्य यह है कि वे अपनी जमीन छिन जाने से उस पर आबाद उद्योगपतियों और पूंजीपतियों की समृद्धि तो नहीं देख पा रहे और न ही सरकार की विकास योजनाओं की खामी को समझ रहे बल्कि वहां आबाद औद्योगिक-व्यावसायिक इकाइयों में कार्यरत कमजोर मजदूरों और कामगारों को उसके लिए जिम्मेदार मान रहे हैं। शिवसेना जैसे राजनैतिक संगठन मराठी भाषियों के इस भ्रम को बनाए रखने में अपनी भलाई देख रहे हैं, ऐसा नहीं वे इस त्रासदी की जड़ को नहीं समझते बल्कि वे उन व्यवसाइयों के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहते। कारण, उन्हीं से वे अपनी राजनति के लिए संसाधन जुटाते हैं। यदि ऐसा न होता तो इतने सालों से मराठी हितों की रक्षा का दावा करने वाली शिवसेना या उसी से निकले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कृषि भूमि का अधिग्रहण कर उसपर आबाद और निर्भर लोगों को बेदखल किए जाने का विरोध करती।
यही स्थिति कम या ज्यादा कमोवेश पूरे देश की है। कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण से कृषि और उससे संबंधित व्यवसायों के खत्म होने से बेरोजगार लोगों का वहां पर कार्यरत बाहरी लोगों के प्रति नफरत की भावना पैदा हुई है। इससे राष्ट्रीय एकता और सहिष्णुता की जो भावना भारतवासियों के मन में रही है, उसपर नकारात्मक असर पड़ा है। साथ ही एक नई समाज व्यवस्था जो कि स्वाभावकि रूप से पूर्णतः बाजार और बाजार के मानदंडों पर निर्भर हैं, के अस्तित्व में अपने से संक्षेप में कहा जाए तो शहरी विस्तार और अंधाधुंध औद्योगिकीकरण से देश का सामाजिक ताना-बना भी प्रभावित हुआ है।

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