गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

शहरी विस्तार और खाद्यान्न संकट

देश की बहुसंख्य आबादी की निर्भरता और स्वतंत्राता आन्दोलन की प्रतिबद्धताओं के चलते आजद भारत की सरकारें आरंभ से ही कृषि और ग्रामीण विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती रही हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि कृषि भूमि का गैर कृषि उपयोग के लिए अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी शासनकाल में बने काले कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के साए में किसानों की इच्छा के विरुद्ध या फिर उसकी मजबूरी के चलते कृषि भूमि का निरतंर अधिग्रहण होता रहा है। इधर इस कानून में कई संशोधन भी किए गए हैं जिसमें यह व्यवस्था की गई है कि किसानों की इच्छा के बिना सामाजिक कारणों के अलावा किसी भी जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। लेकिन जिन सामाजिक कारणों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाना तय है उनमें से अधिकतर सरकार पहले ही निजी हाथों में सौंपकर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने का इंतजाम कर चुकी है।
उदाहरण के तौर पर बिजली परियोजनाएं, स्कूल, अस्पताल आदि सभी सामाजिक कारण हैं लेकिन सरकार इन सभी क्षेत्रों को एक बड़ा हिस्सा निजी हाथों में सौंप चुकी है। वह इन योजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण कर उसे निजी हाथों में सौंप देगी और निजी क्षेत्रा के व्यवसायी उसका व्यावसायिक लाभ उठाते हैं। आज इस बात पर बड़ी बहस की जरूरत है कि जब एक व्यवसायी सरकार से सस्ते दरों में हासिल जमीन पर जब अस्पताल या शिक्षण संस्थान खोलता है, जो कि आज सबसे कम लागत पर सबसे अधिक मुनाफा देने वाला व्यवसाय है, किसी अन्य व्यवसाय की अपेक्षा इन व्यवसायों से जुड़े लोगों की समृद्धि में दिन-दूनी रात चैगुनी गति से वृद्धि हुई है, क्या ऐसे सामाजिक कारणों के लिए जमीन अधिग्रहण करने का अधिकार सरकार के पास होना चाहिए या नहीं?
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरी विस्तार के लिए सरकार ने उपलब्ध जमीन के उपयोग का जो फार्मूला तय किया है उसमें किसानों का अपनी जमीन से बेदखल होकर उजड़ना तय है। कथित सामाजिक कारणों के लिए सरकार देश के किसी भी हिस्से में भूमि का अधिग्रहण कर सकती है। लेकिन शहरी विस्तार मुख्यतः महानगरों और नगरों के आसपास विभिन्न सुविधाओं की आपूर्ति के लिए भूमि का अधिग्रहणकर सरकार उस पर स्वयं या व्यवसाइयों के माध्यम से सेवाओं का विस्तार करती हैं। इसलिए इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि सरकार जमीन का अधिग्रहणकर निश्चित क्रिया कलापों के लिए पूंजीपतियों को देती है या स्कूल, अस्पताल, पावर हाउस, पेट्रोल पंप आदि बनाने से लेकर काॅमर्शियल काॅम्पलेक्स व इण्डस्ट्री लगाने के लिए किसानों की जमीन खरीदनेे की आजादी देती है। दोनों ही स्थितियों में किसान और ग्रामीण ही अपनी जमीन से बेदखल होते हैं। कृषि और कृषि आधारित व्यवसायों के खत्म होने से सदियों पुरानी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का अंत होता है। दूसरी ओर तमाम जन सुविधाओं को निजी हाथों में सौंप दिए जाने से पूंजीपति सरकार से सस्ते दरों पर प्राप्त अथवा बाजार भाव से सीधे किसानों से खरीदी जमीन पर कारोबार कर सीमित समय में अपनी संपत्ति में कई गुना बढ़ोत्तरी कर लेते हैं। मुख्यतः निर्माण कार्यों और उसमें इस्तेमरल होने वाली सामग्री - लोहा, लकड़ी, सीमेंट, ईंट आदि के निर्माता मालामाल होते हैं। निर्माण के बाद उसका लाभ उठाने वाले अलग हैं। सरकारी तंत्रा के अलावा भी कारोबारियों की एक ऐसी लंबी सूची है जो शहरी विस्तार में अपना हित देखती है।
शहरी विस्तार के इस फार्मूले के मुताबिक न केवल किसान बल्कि शहरी क्षेत्रों में सरकार की इच्छा के विरुद्ध अपनी मेहनत-मजदूरी की कमाई से किसानों से जमीन खरीदकर उसमें अपना अशियाना बनाकर रह रहे लोग भी बेदखली की मार से नहीं बच पाते। दिल्ली सहित देश के सभी नियेजित कहे जाने वाले नगरों और महानगरों की अवैध कालोनियों को उजाड़े जाने से लेकर शहर में रेहड़ी-ठेले के कारोबार पर प्रतिबंध लगाने के पीछे यह प्रमुख कारण है। इससे जहां समाज के कमजोर लोगों के समक्ष तो आवास से लेकर आजीविका तक का संकट पैदा हो जाता है वहीं निर्माण कार्यों से जुड़े व्यवसायी, बिल्डर, शाॅपिंग काॅम्पलेक्स या माॅल के संचालक व्यवसायी हर दृष्टि से फायदे में रहते है। शहरी विस्तार के निम्न फार्मूले से स्पष्ट हो जाता है कि भूमि अधिग्रहण के बाद उसके उपयोग से इस वर्ग के लोगों में कौन कितने फायदे में रहता है।
यह समस्या देश के कुछ चुनींदा नगरों और महानगरों तक सीमित नहीं है। कमोवेश पूरे देश की स्थिति एक सी है। देशभर में जहां-जहां सरकारें जमीन का अधिग्रहण कर रही हैं या कृषियोग्य जमीन पर औद्योगिक घरानों को उद्योग या फिर एसईजेड लगाने की अनुमति दी जा रही है वहां के किसान इस बात को लेकर आशंकित है कि उनकी आय का एकमात्रा और पुस्तैनी जरिया छिन जाने के बसद उनका क्या होगा। किसान यह बात अच्छी तरह समझ चुके हैं कि उनकी जमीन पर आवासीय, व्यावसायिक एवं औद्योगिक परिसर बनने से उद्योगपति, व्यवसायी और बिल्डर तो रातों-रात मालामाल हो जाएंगे लेकिन वे स्वयं आजीविका के लिए दर-ब-दर हो जाएंगे। उनके आने वाली पीढ़ियों के पास अपनी संपत्ति के नाम पर एक अदद मकान भी होगा या नहीं कहा नहीं जा सकता। क्योंकि सरकार या पूंजीपति उन्हें एक एकड़ जमीन की जितनी कीमत देंगे उससे वे उसी जमीन पर विकसित 100 मीटर का प्लाट भी नहीं ले सकेंगे।
देश का बुद्धिजीवी वर्ग शहरी विस्तार, औद्योगिकीकरण एवं एसईजेड के लिए कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण को आने वाले समय में खाद्यान्न संकट की समस्या के रूप में देख रहा है। यह सच भी है कि कृषियोग्य जमीन के गैर कृषि उपयोग की सर्वाधिक मार देश के खाद्यान्न भंडार पर ही पड़ेगी। अंतरराष्ट्रीय खाद्यनीति शोध संस्थान की वर्ष 2008 की रिपोर्ट से इसका खुलासा भी हो चुका है। संस्थान के महानिदेशक झाओचिम वान ब्राउन ने स्पष्ट किया है कि हम 2015 तक गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को पूरा करने में निरंतर पिछड़ते जा रहे हैं। वान ब्राउन का यह वक्तव्य परी दुनिया के संदर्भ में है। यदि हम सिर्फ भारत की बात करें तो स्थिति पूरी दुनिया से अधिक भयावह है। अंतरराष्ट्रीय खाद्यनीति शोध संस्थान का यह निष्कर्ष चैंकाने वाला है कि भारत में भूखे लोगों की संख्या न केवल दुनिया के किसी भी देश से अधिक है बल्कि भूख पर नियंत्राण करने में भारत की दशा अफ्रीका महाद्वीप के उप-सहारा देशों से भी अधिक चिंताजनक है। यही वजह है कि खाद्य नीति शोध संस्थान ने पहली बार विश्व भूख सूचकांक से अलग भारत के संदर्भ में भारत भूख सूचकांक तैयार किया है।
यह बात भारतीय नेतृत्व और भारत के योजनाकारों की समझ में क्यों नहीं आती, यह एक बड़ा प्रश्न है। वे इतनी सी बात को क्यों नहीं समझ पा रहे कि जब देश की कृषि पर निर्भर आबादी अपनी जमीन से बेदखल हो जाएगी और उसकी आजीविका के साधन से छिन जाएंगे, तो उनके बच्चे कुपोषण के शिकार होंगे ही, उन्हें अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिल पाएगी। बेशक इस पूरी प्रक्रिया का लाभ उठाने वाले व्यवसायी, उद्योगपति और मुट्ठीभर सेवादाता लोगों की आर्थिक स्थिति और मजबूत हो जाएगी। इससे पहले से मौजूद अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चैड़ी हो जाएगी। कुलमिलाकर यह समस्या और भी जटिल हो जाएगी।
आज देश के अर्थशास्त्रिायों का एक समूह सरकार से यह मांग कर रहा है कि सरकार कृषि योग्य जमीन के गैर कृषि उपयोग के लिए अधिग्रहण करने से पहले देश की कृषि भूमि का व्यापक सर्वेक्षण कर यह निश्चित करे कि क्या वह देश की आवश्यकता के लिए खाद्यान्न एवं अन्य कृषि उत्पादों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है। जब तक यह काम नहीं होता जमीन का अधिग्रहण न किया जाए और जिस जमीन को अधिग्रहण के लिए अधिसूचित किया गया है उसे निरस्त किया जाए। लेकिन देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों व पूंजीपतियों का हित पोषण के लिए और उनके दबाव में काम कर रहीं भारत की केन्द्र और राज्य सरकारों को इसकी कतई चिंता नहीं है।
भूमि अधिग्रहण के इन दोहरे दुष्परिणामों की आशंका के चलते देश के किसान, काश्तकार, आदिवासी, मछुवारे आदि सभी जो मूलतः जल, जंगल और जमीन पर निर्भर हैं, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलनरत हैं। निश्चित ही आज भी उनकी स्थिति कोई संतोषजनक नहीं है लेकिन भूमि अधिग्रहण एवं रोजगार के माध्यम छिन जाने के बाद तो और भी दयनीय हो जाएगी। आगे, आने वाली पीढ़ियों के पास वह भी नहीं रह जाएगा जो उनके पास है। इसलिए वे यह मान चुके हैं कि ऐसी स्थिति में अपनी जमीन और रोजगार को बचाने के लिए आंदोलन ही एकमात्रा जरिया रह गया है। यह अलग बात हैं कि कहीं पर आंदोलन अधिक मुखर है, किसान अपनी जमीन बचाने के लिए मर-मिटने के तैयार हैं तो कहीं जमीन की बेहतर कीमत और अधिक मुआवजा देने की मांग हैं लेकिन जमीन के अधिग्रहण के विरुद्ध असंतोष पूरे देश में है।

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