गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

अंगुली में अंगूठी, अंगूठी में दरख्त




लोगों को समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती ।


देश- दुनिया में न जाने कितने सेमिनार पर्यावरण के नाम सुपुर्द किए जा चुके हैं। लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आने का एहसास आ गया हो।


इसके साथ ही कुछ जज्बाती लोग हैं जो कुछ नया कर गुजरने का माद्दा रखते हैं। अमूमन लोग अंगुली में पहनी अंगूठी से ज्यादा उसमें जड़े नगीने को लेकर उत्साहित रहते हैं। अंगूठियों में कई तरह के नगीने या पत्थर पहनने का प्रचलन आम है। लेकिन अब एक ज्वैलरी डिजाइनर ने नया आइडिया पेश किया है। जिसके मुताबिक अगूंठी में कीमती नगीने या पत्थर की जगह जीवित पौधे लगाए जा सकते हैं। स्टेनलैस स्टील के बेस पर लगाए गए यह पौधे देखने में किसी छोटे द्वीप का आभास कराएंगे। दूसरे पौधों की तरह इन्हें भी पानी देने की जरूरत होगी। 23 साल के ज्वैलरी डिजाइनर हैफस्टीन जूलियन ने इसे 'ज्वैलरी एंड गार्डनिंगÓ नाम दिया गया है। इस पौधे को कांटने-छांटने की जरूरत नहीं होगी। यह पौधा अंगूठी बाहर नहीं आएगा। दरअसल, इस पौधे के बढऩे की रफ्तार काफी सुस्त होती है। हैफस्टीन के मुताबिक, 'मैं प्रकृति का समाज तक पहुंचाना चाहता हूं। क्योंकि लोग इससे बहुत दूर जा चुके हैं। मेरी ख्वाहिश है कि वे कुदरत के हर रंग को अपने आसपास महसूस करें।Ó


भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो पर्यावरण दिवस के मौकों पर और भी अन्यान्य समारोहों आदि पर नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रहती है। नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नजऱ आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी भी कर लेते हैं। जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दजऱ् हो जाती है,उसके दिन फिऱना तो तय है ।


परिपाटी के अनुसार ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते रहे हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर जि़ले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक देश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता ।


यह समझ से परे है कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...??? लोगों को समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।


1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बंधु आपकी बात तो सही है

पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है ।

कितना अच्छा होता कि आप और हम घर से निकलने और देश में वृक्षारोपण का एक अभियान चलाते। यदि सहमत हो तो कल से निकल चलें।
sanjay swadesh