शुक्रवार, 26 जून 2015

हे, देवी बन जाओ महादेवी !

मैं सोचता हूं कि क्या उसे महादेवी हो जाना चाहिए ? कई बार उसकी डबडबाती आंखों ने ये सवाल किया है मुझसे ? आखिर वो कहना चाहती है कुछ। साझा करना चाहती है अपनी पीड़ा। फिर बार-बार चाहकर भी क्यों रह जाती है चुप्प। घंटों साथ बैठना। बतियाना। दुनियादारी की बातें। समाज की बातें। दूसरों की बातें। लेकिन अपना आते ही खामोशी... कब हो तोड़ेगी खामोशी ? मैं तो उससे यही करूंगा निवेदन - हे देवी, बन जाओ महादेवी।
तुमको देखकर, तुमसे मिलकर आज मुझे याद आ रही है महादेवी वर्मा की कविता - ‘अश्रु यह पानी नहीं है’। हो सकता है तुमने भी पढ़ा हो। एक बार गौर से पढ़ो। गुनो, रमो और सहेजो। 

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औश् न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले ।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घडि़यालघंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
हे देवी तुम्हें पता है, वर्तमान में तुम्हारे जैसे निष्कपट लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। न परिवार में, न समाज में। हर ओर छल-छद्म का राज दिख रहा है। यूं तो हर सिद्धांत का अपवाद होता है, लेकिन कितने लोग उसे याद रखते हैं ? विशेष अवसरों पर ही अपवाद पर वाद-विवाद होता है। जिसके साथ वर्षों बिताएं, आज वो अपना एक पल देने को तैयार नहीं। जिनके साथ दिन साझा किया, वो चंद बोल नहीं दे सकते। जिनके साथ दुख सुख की बातें की, वो आगे नहीं आते। जिनके साथ लड़कपन थी, वो अब गलियों में नजर नहीं आते। आखिर क्यों ? क्योंकि तुम औरों जैसी नहीं हो।
तुम्हें पता है, गांव के निरक्षर, निसहाय निर्धन, विपन्न लोग हैं, जो अपने अस्तित्व के कठिन संघर्ष को झेलते हुए ही अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेकिनऐसे अति सामान्य लोगों के व्यक्तित्व का भी कोई सकारात्मक, कोई उज्जवल पक्ष होता जरूर है। जीवन की भयंकर यातनाएँ सहकर भी हमेशा प्रसन्न रहने वाली लछमा का अद्भुत जीवन-दर्शन, जो तीन-चार दिन तक भूखे रहने पर मिट्टी के गोले बनाकर खा लेती है और उन्हें ही लड्डू समझकर तृप्त भी हो लेती है और हँसकर कहती है, ‘‘यह सब तो सोच की बात है, जो सोच लो, वही सच।’’ अपने इसी सोच से चकित कर देती हैं वह महादेवी वर्मा को। मार्मिक कथा में लिपटी चीनी फेरीवाले की देशभक्ति को सेविका मलिन की प्रगल्भयुक्त स्वामीभक्ति। बस, ऐसे ही हँसते-रोते अनेक पात्र हैं। इन संस्मरणों के जो जीवन में चाहे जितने आम हों महादेवी जी की कलम के कौशल ने साहित्य में तो इन्हें विशेष बना ही दिया। इन संस्मरणों के संदर्भ में जहाँ तक महादेवी जी के सामाजिक सरोकार का प्रश्न है तो इतना तो स्पष्ट है कि इनमें इन्होंने कहीं भी समाज की विकृतियों पर प्रहार करना तो दूर, एक-दो अपवादों को छोड़कर उनका उल्लेख तक नहीं किया। पर समाज का जो वर्ग उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा है, समाज के जिन बेबस, असहाय लोगों पर उन्होंने अपनी सहानुभूति उड़ेली है, क्या वही उनके गहरे सामाजिक सरोकार का प्रमाण नहीं?
मैं समझता रहा कि ईष्वर की सर्वोत्तम कृति है नारी। वेद ने भी उसकी महिमा का बखान किया है। लेकिन तुमसे मिलने के बाद जैसे-जैसे तुम्हारा निष्कपट भाव सामने आता गया, तुम्हारे ही क्षेत्र और पूर्व संपर्क के लोगों में मैंने ईष्र्या देखी। खूब। बहुत अधिक। ऐसा क्यों ? मैंने तो सुना था कि महिलाओं में रचनात्मकता का गुण जन्मजात होता है। घर-परिवार की बालिकाएं देख-सुनकर ही माता से कई गृह उपयोगी बातें सीख जाती हैं।नारी परिवार और समाज का आधार है। इसलिए इसका सम्मान आवश्यक है। संसार के सृजन से लेकर पालन पोषण तथा सजाने, संवारने तक की सारी अवस्थाओं में नारी सहनशीलता का परिचय देकर ही अपनी भूमिका को निभा सकती है इसलिए सहनशीलता नारी का दिव्य गुण है।
तुम्हार अतीत समझकर और वर्तमान देखकर तो यही कहूंगा -  हे देवी, बन जाओ महादेवी।




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