रविवार, 15 मार्च 2015

मांझी के पीछे मोदी

जिन तीन दलों ने जीतन राम मांझी को पद से हटाया है, उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। नाम मांझी है, लेकिन मंझधार में उन्होंने कितनों को फंसा रखा है। भाजपा को भी सोचना होगा कि मांझी का अभी साथ देकर सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटा, तो छुटकारा पाने के वक्त क्या कहेंगे ? कहीं भाजपा की हालत भी नीतीश जैसी न हो जाए ? और सबसे बड़ा सवाल कि ये साथ कब तक और किस हद तक का है ?



बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के पीछे शुरुआत में नीतीश कुमार थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। नौ महीना बीतते-बीतते एक नए मांझी का स्वरूप दिखने लगा, जिसके पीछे भाजपा थी। अचानक भाजपा मांझी का साथ क्यों देने लगी ? बिहार की जनता के मन में सबसे बड़ा सवाल यही था और आज भी है। बिहार में सुशील मोदी और केंद्र में नरेंद्र मोदी को ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि वो मांझी के पीछे आ गए ? क्या नीतीश को नेस्तोनाबूद करने के लिए और कोई विकल्प नहीं रह गया था। 
असल में, बिहार की राजनीति को समझने-बूझने वाले भी आज सवाल कर रहे हैं कि यदि महादलित की चिंता थी, तब भाजपा ने मांझी के मुख्यमंत्री बनने पर स्वागत क्यों नहीं किया ? क्यों कहा कि ये कठपुतली मुख्यमंत्री है। हर दिन मांझी पर हमला हुआ। पर इस बीच मांझी कैसे भाजपा के करीब पहुंच गए। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि इस पोलिटिक्स को आप केमिस्ट्री की क्लास में समझना चाहते हैं या कॉमर्स की ? क्या मांझी भाजपा बीजेपी की कठपुतली नहीं हैं? नीतीश अगर रिमोट के जरिये मांझी की सरकार चला रहे थे, तो क्या बीजेपी रिमोट के जरिये मांझी को नहीं चला रही थी। 
असल में, कहा गया कि रामविलास पासवान के बाद मांझी का भाजपा की तरफ आना उसके सामाजिक आधार का विस्तार तो करेगा, लेकिन इससे मांझी या दलित राजनीति को क्या मिलेगा। क्या चुनाव बाद मुख्यमंत्री का पद मिलेगा? आखिर भाजपा ने खुद को इस खेल से खुलेआम अलग क्यों नहीं किया है। क्या वह अब भीतरघात की राजनीति भी करेगी। याद कीजिए, मांझी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर कहा कि नीतीश का चेहरा एक्सपोज हो गया है। वे सत्ता के लालची हैं, लेकिन मांझी कैसे सत्ता के संन्यासी बने हुए हैं। सिर्फ इसलिए कि उनके पास एक ऐसा प्रतीक है, जिसकी काट किसी के पास नहीं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भाजपा बिहार में यह सब सामाजिक न्याय के लिए कर रही है ? क्या बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा रामविलास पासवान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएगी, मांझी को बनाएगी ?
बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटने पर मजबूर किए जाने के एक हफ्ते बाद जीतन राम मांझी ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की। मांझी ने अपनी पार्टी का नाम ‘हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा’ (हम) रखा है। मांझी ने कहा कि वह इस मोर्च के जरिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमारे के असली चेहरे को पब्लिक के सामने लाएंगे। हमारी पार्टी नीतीश कुमार और जेडी(यू) को सीधी चुनौती देगी। हमलोगों ने कई लंबी बैठकों में विचार-विमर्श के बाद नई पार्टी हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा बनाने का फैसला किया है। इन बैठकों में हमने अपने समर्थकों, हमदर्दी रखने वालों और पूर्व मंत्रियों से विचार-विमर्श किया। इसके बाद हमलोग नई पार्टी बनाने के फैसले पर पहुंचे।
गौरतलब है कि मांझी और उनके समर्थक मंत्रियों, विधायकों को जेडी(यू) चीफ शरद यादव ने पार्टी से निकाल दिया था। इसके बाद से अटकलबाजी तेज थी कि अब मांझी की राजनीति किस करवट बैठेग ? मांझी के ज्यादातर समर्थक महादलित कैटिगरी से ताल्लुक रखते है। पार्टी लॉन्च करने के मौके पर मांझी ने कहा, ‘हम अपने समर्थकों के साथ नीतीश कुमार के असली चेहरे को बेनकाब करेंगे। मैंने 9 महीने के शासनकाल में महज 12 दिन काम किए हैं। ज्यादातर वक्त मौखिक संघर्ष में ही गुजरा। मैं भले 9 महीने तक सीएम की कुर्सी पर रहा, लेकिन असली काम मैंने 7 से 19 फरवरी के बीच महज 12 दिनों तक किए। 
एक बार को लगा कि बिहार जाति की राजनीति के मिथक को तोड़ेगा। लेकिन आज दस साल बाद बिहार एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से जाति की राजनीति वाली सुरसा ने मुॅह खोल कर बिहार के विकास को अवरुद्ध कर हिंसा की भयावहता का विस्तार करने की कोशिश किया था। अफसोस! इस राजनीति को एक बार फिर हवा मिली है वह भी नीतिश कुमार के जरिए, हां यह अलग बात है कि इस बार उनकी मदद लालू यादव भी कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक और चेहरा बिहार की राजनीति में उभर कर आ गया है वह कोई और नहीं बल्कि निर्वासित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं। जीतन राम मांझी की राजनीति ने कांशीराम के उस दौर की याद दिला दी है, जब वे सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने के लिए कभी हाथ मिलाते थे तो कभी झटक कर चल देते थे। सत्तर के दशक के आखिरी साल में कर्पूरी ठाकुर को किन लोगों ने अपमानित किया बिहार की राजनीति जानती है। कर्पूरी को कुर्सी से हटाकर एक दलित चेहरा खोजा गया, रामसुंदर दास का। जिन्हें सवर्ण नेताओं के समूह और जनसंघ ने समर्थन दिया था। दिक्कत यह है कि आप जीतन राम मांझी को सामाजिक न्याय के प्रतीक से अलग भी नहीं कर सकते, लेकिन उस सियासत से आंख भी बंद नहीं कर सकते जो दिल्ली से पटना तक में इस प्रतीक के नाम पर खेली जा रही है। नैतिकता और न्याय सियासत में कब पाखंड है और कब प्रतीक यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप नीतीश को पसंद करते हैं या नरेंद्र मोदी को या फिर मांझी को। दिलचस्प बात यह है कि जिन तीन दलों ने मांझी को पद से हटाया है उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। जेडीयू से बर्खास्त मांझी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं और दूसरी तरफ विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद भी नीतीश कुमार शपथ नहीं ले पा रहे हैं। राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि वे जहां भी जाते हैं, यूपी विधानसभा की स्थिति पैदा हो जाती है। मांझी की त्रासदी यह है कि कोई इन्हें अपनी नाव का खेवनहार नहीं बनाना चाहता, बल्कि सब मांझी को नाव बनाकर खेवनहार बनना चाहते हैं। मांझी हैं कि तूफान का सहारा लेना चाहते हैं। यह मजा कब सजा में बदल जाएगी मांझी को अभी इसका एहसास शायद न हो आज नितीश का बहुमत मिल गया माझी का विश्वास मत, भाजपा की बैशाखी पर नही टिक सका। समुद्र में आया उफान बहुत कुछ दे दिया करता है लेकिन जो कुछ ले जाता है वह मांझी से बेहतर कोई नही समझ सकता। राजनीति में मौका प्रधान है भावना नहीं।

एनडीए की नाव मांझी भरोसे!
विधानसभा चुनाव से पहले बिहार में कई तरह के समीकरण बनते बिगड़ते दिख रहे हैं। कभी जेडीयू के खेवनहार बनकर निकले मांझी जब अपनी ही नाव डूबो दिये, तो नीतीश कुमार को फिर कमान संभालना पड़ा. अब एक और खबर आ रही है। जेडीयू से निष्कासित होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बिहार में अपने लिए नए सिरे से राजनीतिक जमीन तलाशने की तैयारी में हैं। इसी सिलसिले में बीते दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलने दिल्ली पहुंचे। उस दौरान उन्होंने कहा था कि वो चुनाव के बाद एनडीए के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं। जीतनराम मांझी ने कहा था कि उनकी पार्टी बिहार की कम से कम 125 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि मांझी ने साफ कर दिया है कि वो साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ेंगे और परिणाम आने के बाद ही गठबंधन को लेकर कोई फैंसला करेंगे। लेकिन उससे पहले मांझी ने गठबंधन को लेकर भाजपा का रूख साफ करने की मांग की।
उल्लेखनीय है कि चुनाव को लेकर मांझी का संगठन हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा 20 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में महारैली का आयोजन करने जा रहे है। जिसके बाद ही तय किया जाएगा कि कितनी सीटों पर चुनाव लड़ना है। मांझी ने बयान देकर कि उन्हें चुनाव के बाद कांग्रेस और आरजेडी के साथ भी गठबंधन से गुरेज नहीं है, गठबंधन की गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है। यानी अब भाजपा बीजेपी को तय करना है कि उसे मांझी का साथ देना है या नहीं। 

भाजपा का आॅपरेशन बिहार 
भाजपा की कोशिश है कि अगर मांझी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो यही उसके के लिए सबसे मुफीद होगा। अगर चुनाव के वक्त भाजपा और मांझी की पार्टी में तालमेल होता है, तो भी भाजपा को ही फायदा होगा। अगर नहीं होता तो भी भाजपा उसका फायदा उठा सकती है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि भाजपा की ओर से ऑपरेशन बिहार के तहत इसकी शुरुआत कर दी गई है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि मांझी और भाजपा के बीच किस तरह का रिश्ता बनता है, लेकिन इतना जरूर है कि भाजपा चाहती है कि बिहार विधानसभा चुनाव में मांझी की भूमिका जरूर हो। इससे भाजपा को नीतीश-लालू की जोड़ी से लड़ने में कामयाबी मिलेगी।
मांझी को लेकर भाजपा के पास तीन विकल्प हैं। सबसे बेहतर विकल्प पर माथापच्ची जारी है। पहला विकल्प ये है कि मांझी को भाजपा में लाया जाए। हालांकि इससे भाजपा को ज्यादा फायदा नहीं होगा। कुछ क्षेत्रों में भाजपा को अतिरिक्त वोट ही मिल जाएगा। दूसरा विकल्प ये कि मांझी अपनी पार्टी बनाएं और चुनाव मैदान में नीतीश-लालू की जोड़ी पर जमकर हमला करें। इससे नीतीश- लालू बनाम भाजपा की बजाय त्रिकोणीय और कई जगह बहुकोणीय मुकाबला होगा। अब तक जो संकेत आए हैं, उसके तहत आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस जैसे दल मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे में भाजपा और अन्य दलों के गठजोड़ की सीधी टक्कर होगी। तीसरा विकल्प यह कि मांझी की पार्टी से भाजपा का तालमेल हो जाए यानी भाजपा मांझी की पार्टी को गिनती की सीटें दे और बदले में मांझी राज्य में नीतीश व लालू के खिलाफ कैंपेन करें यानी भाजपा के पक्ष में।
क्या कहती है भाजपा का यह इशारा 
भाजपा के लिए सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अगर मांझी की पार्टी के साथ मिलकर वह चुनाव लड़ती है तो महादलित वोट उसकी ओर आ सकता है। इससे लालू और नीतीश के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। पार्टी के लिए यह भी अच्छा होगा कि राज्य में सीधी टक्कर नहीं होगी। भाजपा को यह मालूम है कि अगर सीधी टक्कर हुई तो उसके लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं, क्योंकि नीतीश व लालू के साथ आने के बाद उनका वोट बैंक और मजबूत हो गया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए राजग के साथ आने के संकेत दिए है। हालांकि उन्होंने कहा है कि वे चुनाव पूर्व किसी दल से गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव बाद के सारे विकल्प खुले हुए हैं। मांझी 20 अप्रैल को पटना में रैली कर अपनी नई पार्टी की घोषणा करेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात की है। मांझी ने कहा है कि धर्मनिरपेक्षता व विकास के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सत्ता का लालची करार देते हुए कहा कि जनादेश नीतीश कुमार को नहीं, बल्कि राजग को मिला था। उन्होंने कहा कि वे 20 अप्रैल को पटना में रैली कर नई पार्टी की घोषणा करेंगे। चुनाव पूर्व व बाद की राजनीति पर उन्होंने कहा कि अभी उनकी किसी दल से बात नहीं चल रही है। दिल्ली आए मांझी भाजपा के बड़े नेताओं के साथ मुलाकात की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा ने अगर विश्वास मत परीक्षण के आठ दिन पहले समर्थन देने की घोषणा कर दी होती तो वे उनकी सरकार बच जाती। भाजपा के अधिकांश बड़े नेता इन दिनों दिल्ली में नहीं है। वैसे भी भाजपा नेताओं को मांझी पर ज्यादा भरोसा नहीं है कि वे किस करवट बैठेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात कर उनको टटोला है। सूत्रों के अनुसार रालोसद मांझी को अपने साथ जोड़ना चाहती है। उसने मांझी से कहा है कि वे रालोसद में आकर राजग से जुडम् सकते हैं। हालांकि मांझी इस समय अपनी पार्टी बनाने के पक्ष में हैं, जिसे वे राजग के साथ जोड़ सकते हैं।

कैसे तोड़ेंगे नीतीश के मास्टर स्ट्रोक को
नीतिश कुमार ने संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधान खूब फायदा उठाया। बल्कि भाजपा को चिढ़ाने के लिए यह भी कह डाला कि यह प्रावधान केंद्र की एनडीए सरकार ने ही किया है। इसी प्रावधान के तहत उन्होंने मांझी को भी पार्टी व्हिप के दायरे में ला खड़ा किया। हालांकि, मांझी सदन में पहले ही असम्बद्ध करार दिए जा चुके थे। नीतीश कुमार ने बार-बार इस दौरान इस बात का भी जिक्र कर रहे थे कि मांझी का जदयू के 40-50 विधायकों के संपर्क में रहने का दावा के क्या हुआ? उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय बार-बार कहते थे कि जब चाहेंगे, सरकार गिरा देंगे, उस दावे का क्या हुआ? हालांकि भाजपा ने अपनी ओर से यह कोशिश जरूर की थी कि वोटिंग की नौबत नहीं आए। यही कारण रहा कि वोटिंग का समय आने से पहले ही भाजपा के सभी सदस्य सदन से वाक-आउट कर गए, लेकिन उनकी यह रणनीति काम नहीं आई। इसके विपरित मांझी ने सदन में नहीं आकर अपनी सदस्यता गंवाने का रिस्क जरूर लिया और साथ ही नीतिश कुमार के खिलाफ जंग का ऐलान भी कर डाला। साथ ही विश्वासमत को लेकर विधानसभा में चल रही चर्चा के दौरान मांझी ने एक अणे मार्ग स्थित अपने आवास पर पत्रकारों से यह भी कह डाला कि उनको व्हिप की अवहेलना करने के कारण विधायकी खत्म होने की कोई चिंता नहीं है। वसूल और सिद्धांत के लिए वे हर कुर्बानी देने को तैयार हैं। इस बीच नीतीश कुमार ने मांझी सरकार के 34 फैसलों को रद करने का भी साहस भी दिखा दिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस फैसले को जनता के समक्ष सही ठहराने के लिए वह कौन सी रणनीति अपनाएंगे?


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