भारत जैसे देश में एड्स की बीमारी का बड़ा कारण है झिझक, जबकि इस बीमारी से बचने का सबसे आसान रास्ता है एहतियात। यहां तो लोग कंडोम खरीदने में भी शर्म महसूस करते हैं। अभी तक इस बीमारी का कोई प्रामाणिक इलाज सामने नहीं आया है, ऐसे में यह जरूरी है कि लोग सावधानी बरतें...
20वीं सदी के अंतिम दशक को प्रसिद्घ इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने विश्वव्यापी संकट का दशक कहा था। इस दशक में मानव-समाज के सामने जो संकट आए, उनमें से एक एड्स के दुनिया-भर में फैलने की भयावह आशंका और चिंता का संकट ही था। जैसे इस दशक के अन्य अनेक संकटों का जनक अमेरिका रहा है, वैसे ही एड्स की खतरनाक खबर भी अमेरिका ही में पैदा हुई और फिर सारी दुनिया में फै लाई गई। इतिहास के पन्नों को टटोला जाए, तो पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशकों में अमेरिकी समाज में युवा समुदाय नशीले पदार्थों के सेवन और अनेक प्रकार के मुक्त यौन-व्यवहारों का शिकार था, जिसके परिणामस्वरूप वहां अनेक प्रकार की बीमारियां फै ल रही थीं, उससे अमेरिकी समाज और सरकार में गहरी चिंता पैदा हुई, लेकिन अमेरिकी समाज यह कैसे स्वीकार करता कि यह एक बीमार समाज है और उस समाज में फैलने वाली बीमारी की दवा की खोज किसी अन्य देश के वैज्ञानिक करें। सो, आनन-फानन में अमेरिका ने डॉक्टर गैलो नाम के एक वैज्ञानिक के झूठे दावे के आधार पर एडस नामक की बीमारी और उसकी खोज का दावा किया और फिर बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में उसका प्रचार-प्रसार हुआ। यह कहने की जरूरत नहीं कि अमेरिकी मानसिकता तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों और समाजों को असभ्य, गंदा और बीमार मानती है। एड्स संबंधी अमेरिकी प्रचार-प्रसार के पीछे भी वही मानसिकता दिखाई पड़ती है, साथ ही इसका हौआ खड़ा करके कंडोम के लिए एक विस्तृत बाजार बनाने की साजिश भी?
हाल के दिनों में जिस प्रकार से भारत-अमेरिकी संबंधों में गर्माहट आई है और अमेरिका भारत की ओर दोस्ताना हाथ बढ़ा रहे हैं, उसके पीछे उनकी नजर में भारत का व्यापक बाजार है। तभी तो वह भारत को एड्स से ग्रस्त समाज साबित करके एक हाथ से आर्थिक अनुदान देकर स्वयं को उदार और मानवीय सिद्घ करने का प्रयत्न कर रहा है, तो दूसरे हाथ से अमेरिकी दवाइयों क ी बिक्री के माध्यम से भारत के गरीबों को लूटने की कोशिश भी कर रहा है। एड्स के बारे में अमेरिकी प्रचार की मानें, तो यह जाहिर होता है कि दुनिया में जो गरीब है और पिछड़ेपन तथा बदहाली के शिकार हैं, वे ही एड्स के कारण भी हैं। भारत में एड्स की खोज करने वालों ने सबसे पहले मणिपुर राज्य को बड़े पैमाने पर एड्स-ग्रस्त माना था। एड्स की खोज करने वालों की नजर सबसे अधिक आदिवासी समुदायों पर है। मध्य प्रदेश के मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बंछारा और बोदिया आदिवासी समुदाय की सभी लड़कियां वेश्यावृत्ति में लगी रहती हैं, इसीलिए वे एड्स के लिए अति संवेदनशील हैं।
हालांकि इस सबके पीछे कहीं न कहीं अमेरिकी नीति काम कर रही है। वह चाहती है कि पूरी दुनिया में उसकी बादशाहत हो। अगस्त 2002 में रामबहादुर राय ने अपने लेख के जरिये एड्स के प्रसंंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण देकर लोगों को समझाने की कोशिश की थी कि यह एक अमेरिकी साजिश है। एड्स का तो सिर्फ हौआ खड़ा किया जाता है। इस लेख के माध्यम से कहा गया था कि एड्स के प्रसंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण हैं। दुनिया के विभिन्न देशों को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की शिक्षा देने की अमेरिक ी आदत और अमेरिकी हितों की सेवा करने वाली दूसरे देशों में क्रियाशील संस्थाओं के बचाव के लिए अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है। यद्यपि भारत में एड्स का प्रभाव घट रहा है, लेकिन अमेरिकी दवा कंपनियां यह नहीं चाहतीं कि भारत में एड्स में कमी आए? इसीलिए ये कंपनियां, उनसे जुड़े बुद्घिजीवी और उनके इशारों पर काम करने वाले गैरसरकारी संगठन आंकड़ों की कलाबाजी के सहारे एड्स का आतंक बढ़ा रहे हैं। यह प्रयास असल में बड़ी चाल का हिस्सा है, जिसका मकसद भारत के आत्मविश्वास को तोड़ना है। दुनिया के किसी भी आत्मविश्वासी समाज और व्यवस्था को अमेरिका अपना दुश्मन समझता है और उसके आत्मविश्वास को तोड़ने की कोशिश करता है।
एड्स के प्रचार-प्रसर में सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ असंख्य गैरसरकारी संगठन भी लगे हुए हैं। हाल के वर्षों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा के नाम पर कमार्ई करने वाले बहुत सारे गैरसरकारी संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। इनमें से कुछ राष्टÑीय हैं, तो कुछ अंतर्राष्टÑीय भी। जो गैर सरकारी संगठन एड्स के काम में लगे हैं, उनके बारे में यह कहना ज्यादा सही है कि एड्स से जितने लोग मरते नहीं, उससे कहीं ज्यादा लोग एड्स के नाम पर जिंदा है। वैसे तो ये संगठन गैरसरकारी हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश को देशी एवं विदेशी सरकारों की सहायता और सुरक्षा प्राप्त है।
वैसे सुनने में यह कोई सामाजिक कार्य की ओर बढ़ाया गया कदम लगता है, लेकिन इससे वाकई में एड्स पीड़ित बच्चों को राहत मिली है या नहीं यह खबर में पता चल जाएगा। नागपुर नगर निगम द्वारा एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के लिए खोला गया एक विद्यालय इन दिनों विवादों के घेरे में है। वर्तमान में इस विद्यालय का विरोध कुछ गैरसरकारी संगठन कर रहे हैं। खास बात यह है कि हाल ही में विश्व एड्स दिवस के मौके पर गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के निवेदन पर ही एनएमसी ने इस विद्यालय को खोलने का फैसला लिया था।
एनएमसी के इस कदम से नाखुश विरोधी संगठन हो-हल्ला मचा रहे हैं। विरोधियों का तर्क है कि हाल ही में समूचे विश्व में एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के प्रति भेदभाव की भावना का प्रचार होगा। वहीं दूसरी ओर एनएमसी के एक अधिकारी और शिशु रोग विशेषज्ञ मिलिंद माने ने कहा कि इस विद्यालय में 28 बच्चों के नाम दर्ज किए गए हैं, जिनके साथ पूर्व में विद्यालयों में अच्छा बर्ताव नहीं किया जा रहा था।
निगम के आयुक्त संजय सेठी का कहना है कि एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों से जुडेÞ तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया है। इस विद्यालय के विरोध में शामिल गैरसरकारी संगठन ‘सजीवन’ की कार्यकर्ता शशिकला का आरोप है कि एनएमसी के अधिकारी साधारण विद्यालयों से एचआईवी/एड्स विद्यार्थियों को निकाल कर इस विशेष विद्यालय में भेज रहे हैं। शशिकला ने बताया कि इस संबंध में गैरसरकारी संगठनों की एक बैठक भी हुई थी। यही नहीं, यह संगठन गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के खिलाफ बगावत करने को तैयार हो गए हैं। पेड़ के नीचे बैठकर गुफ्तगू करने की पुरानी आदत को इस देश में एड्स विरोधी अभियान का हथियार बना दिया गया है। एक स्वयं सेवी संस्था ने एड्स के खिलाफ जागरूकता अभियान को सफल बनाने के लिए यह उपाय आजमाया है। कॉन्गो शहर की 48 वर्षीय आसिया किका, जो छह बच्चों की मां है, इस अभियान से प्रभावित हैं। वे बताती हैं कि मुझे पहले महिला कंडोम के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन अब मैं इसके बारे में जान गई हूं। किका के हाथ में पर्चे और कुछ कंडोम हैं और वह इनकी उपयोगिता से वाकिफ हैं। इससे पहले किका को यह मालूम नहीं था कि महिला कंडोम का उपयोग कैसे किया जाता है। उसे इसकी भी जानकारी नहीं थी कि यह कंडोम स्त्री-पुरुष को एक दूसरे से होने वाली बीमारियों से बचाता है।
जर्मनी की संस्था जीटीजेड अपने इस अभियान के तहत पिछडेÞ और युद्घ प्रभावित इलाकों के लोगों के बीच एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने में लगी है। इसके लिए संस्था ने लोगों को इक्ट्ठा करने का यह परम्परागत तरीका खोज निकाला है। समाचार एजेंसी डीपीए को जीटीजेड के एक प्रबंधक अचिम कोच ने बताया यह तरीका बेहद कारगर साबित हो रहा है।
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एड्स पर चर्चा से कतराते हैं भारतीय
तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद भारत में आज भी लोग एचआईवी/एड्स के प्रति रुढ़िवादी रवैया अपनाए हुए हैं। इस बात का खुलासा दो महीने पहले मैक एड्स फंड नामक अंतर्राष्टÑीय संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण से हुआ है। मैक के अध्यक्ष जॉन डेमेसी कहते हैं कि एड्स को लेकर भारतीयों के बीच फैली तमाम भ्रांतियों को दूर करना बेहद जरूरी है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि 79 फीसदी भारतीय एड्स को बेहद ही घातक बीमारी समझते हैं, जबकि 59 लोग मानते हैं कि एड्स का उपचार हो सकता है।
कंडोम खरीदने से शर्माते हैं भारतीय?
सर्वेक्षण से पता चला है कि 65 फीसदी भारतीय एड्स के बारे में बातचीत तक करने में हिचकिचाते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि 44 फीसदी भारतीय इस बीमारी के बारे में डॉक्टर से बात करने में शर्माते हैं। सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, 18 फीसदी भारतीय एचआईवी/एड्स से पीडित लोगों के साथ काम करने से डरते हैं, जबकि कुछ लोग उस कमरे में रहना पसंद नहीं करते हैं जिसमें एचआईवी/एड्स से पीडित लोग निवास करते हैं। भारत में सबसे उन्मुक्त विचार वाले संस्थानों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई है। यह दिल्ली के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में लगाई गई पहली कंडोम मशीन है। इस मशीन पर ग्राहक सीधे आकर कंडोम ले सकते हैं। लेकिन यह बात जितनी आसान लगती है, उतनी शायद है नहीं। इस मशीन पर अधिकतर लोग रात के अंधेरे में आते हैं। वे रात में 11 बजे के बाद आते हैं। दिन के वक्त केवल एक या दो व्यक्ति आते हैं और जो दिन में आते भी हैं, वे सीधे-सीधे पूछते भी नहीं है। अक्सर ‘बिस्किट’ या ‘चिप्स’ कंडोम मांगने का बहाना बनाते हैं। वे बताते हैं कि वे सामने से बिस्किट मांगते हैं, लेकिन मुझे कोने में ले जाकर कंडोम मांगते हैं। आम तौर पर मशीन एक दिन में 30 पैकेट बेचता है। फिलहाल ‘क्रेर्जडों’ कंडोम की सबसे ज्यादा मांग है और मध्य प्रदेश में इस कंडोम को खरीदने की लहर-सी चल पड़ी है। प्रबंधक बताते हैं कि भले ही यह महंगा हो, लेकिन इसकी मांग सबसे ज्यादा है। भले ही युवक इस मशीन को लगाने के कदम से खुश हैं, लेकिन वयस्क अब भी इस मशीन की जरूरत होने के बावजूद सबसके सामने नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं।
कॉमिक्स पढ़कर एड्स की समझ बढ़ाएंगे पुरुष
भारत के अलावा आठ अन्य देशों में भी इस संस्था द्वारा सर्वेक्षण कराया गया। कॉमिक्स केवल बच्चों के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। देश में कार्यरत कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर पुरुषों में यौनता और इसे जुड़ी समस्याओं की समझ बढ़ाने के लिए कॉमिक्स का सहारा लेने का निर्णय लिया है। ‘दि पॉपुलेशन काउंसिल’और अन्य गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर ऐसे कॉमिक्स का सेट तैयार किया है, जिसमें एचआईवी/एड्स से संबंधित जानकारी दी गई हैं। यह सेट बंगाली, अंग्रेजी, हिन्दी औैर तेलुगु में में उपलब्ध है।
जनसंख्या परिषद के संचार विभाग के प्रमुख विजया निदादावोलू का कहना है किइस तरह के कॉमिक्स तैयार करने का उद्देश्य समाज में मौजूदा समझ को बदलना है। वेश्याओं से यौन संबंध बनाने के दौरान कंडोम के प्रयोग के लिए प्रेरित करना भी इसका उद्देश्य है।
कॉमिक्स के एक सेट में ‘होश में जोश’,‘खून का खतरा’, ‘सावधान सीनियर’ और ‘प्यार का पॉकेट’ नामक शीर्षक से कॉमिक्स तैयार किए गए हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और हैदराबाद की शहरी झोपड़पट्टियों में उक्त कॉमिक्स की 25 हजार प्रतियां वितरित करने के लिए भेजी गई हैं। पे्ररणा(दिल्ली), अपनालय (मुंबई), सिनी आश (कोलकाता) और दिव्य दिशा (हैदराबाद) ने मिलकर कॉमिक्स तैयार किया है। विजया का कहना है कि 2006 में इस तरह के कॉमिक्स तैयार करना अति आवश्यक था। देश में 30 प्रतिशत एड्स रोग 15 से 20 साल के हैं। उन्होंने कहा कि इस कॉमिक्स के माध्यम से युवा भारतीय पुरुषों को उस पारंपरिक पुरुषत्व को बदलने के लिए कहा गया है, जिसमें वे जोखिम भरा यौन व्यवहार अपनाते हैं। इसके अलावा देश के चार शहरों में युवाओं से कॉमिक्स में बताए गए मुद्दों पर बातचीत भी की गई, ताकि उनकी समझ बढ़ाई जा सके।
संवेदना का मरहम जरूरी
करीब बीस वर्ष पहले पहचान में आई बीमारी एचआईवी/एड्स से इंसानों की जितनी मौतें हुई, उतनी आज तक के ज्ञात मानव इतिहास में किसी भी बीमारी से समूचे विश्व में एक साथ मौतें नहीं हुई हैं। पांच करोड़ 30 लाख से अधिक लोग इस भयावह बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं और अभी तक इस बीमारी से एक करोड़ 88 लाख लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। आज तक 130 लाख बच्चे इस बीमारी के चलते अनाथ हो चुके हैं, क्योंकि उनके माता-पिता दोनों ही इसी बीमारी के चलते मर चुके हैं। दुर्भाग्य से ये सभी आंकड़े हर दिन तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व भर के नेता इस बीमारी का जल्दी पता लगाने, प्रभावी व अचूक उपचार करने, इससे बचने और पीड़ितों की देखभाल करने जैसी बातों को सभी के लिए मानव अधिकारों की सूची में शामिल करने की अपील कर रहे हैं।
दुनिया अब जान चुकी है कि एड्स जैसी महामारी से लड़ने के लिए मानव अधिकारों की सुरक्षा करना मूलभूत अधिकारों के तहत बेहद जरूरी है। मानव अधिकारों की अवहेलना से सेक्स वर्करों और नशेड़ियों के बीच यह बीमारी बेहद गंभीर खतरा बनकर मौजूद रहती है। वैसे इस दिशा में एचआईवी और एड्स नियंत्रण के प्रशंसनीय कार्य हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन एचआईवी और एड्स के नियंत्रण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और प्रयत्न करने की जरूरत है। अन्यथा, हर वर्ष लाखों लोग इसी तरह एचआईवी बीमारी से संक्रमित होते रहेंगे और यह पूरी दुनिया में तेजी से फैलती रहेगी। लांछन और कलंक एचआईवी एड्स ने मानव जाति को समानांतर रूप से विभाजित कर दिया है। वैज्ञानिक जगत इस बीमारी की रोकथाम और इलाज की खोज करने में अपना सिर खपा रह है।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए है। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीड़ितों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए, लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीड़ित व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीड़ित को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन आॅफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुड़ी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।
आज हमें एचआईवी एड्स पर कुछ अलग चर्चा करने की जरूरत महसूस होने लगी है और पूरी दुनिया के शोधार्थी, समुदाय, नेतागण और अन्य सभी इस विषय को प्रमुखता दें। विश्व एड्स दिवस सभी लोगों, समूहों, नेताओं समेत सभी को यह सुनहरा मौका दे रहा है कि वे एड्स पीड़ितों पर लगे कलंक के टीके को पोंछने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कार्य करें। कलंक की यह आंधी बड़ी तेजी से फैल रही है और समाज को दो भागों में बांट रही है। अत: विश्व एड्स दिवस के अवसर पर एड्स पीड़ितों के साथ हो रहे भेदभाव को जड़ से मिटाने के लिए बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य करने का वक्त आ गया है। जीने का अधिकार इस वर्ष के लिए ह्यूमन राइट्स एंड एक्सेस टू ट्रीटमेंट यानी मानव अधिकार और इलाज तक की पहुंच के नाम से स्लोगन बनाया गया है। इसके तहत सभी पीड़ितों को इलाज की सुविधा देने, उनकी सुरक्षा और देखभाल करने जैसे लक्ष्यों को पूरा करने की योजनाएं बनी हैं। इस स्लोगन के माध्यम से पूरी दुनिया के सभी देशों को बताया जाएगा कि वे इस रोग से पीड़ितों के इलाज और सामान्य जीवन जीने में बाधक बने कानूनों को सुधारें और नए कानून बनाएं।
मानव अधिकार सभी के लिए मूलभूत अधिकार के रूप में है। एड्स से पीड़ित लोगों के साथ हो रहे भेदभाव, उन्हें परेशान करने और सताने जैसी प्रथाओं को रोकना होगा। पूरी दुनिया में यह एक कड़वा सच है कि इससे पीड़ित लोगों को कलंकित घोषित कर दिया जाता है, जो नौकरी पर हैं, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है। यहां तक कि इससे पीड़ित लोगों को इलाज कराने तक के मूलभूत अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। कई बार अस्पताल और डॉक्टर-नर्स आदि एड्स पीड़ितों का इलाज करने से मना कर देते हैं। भारत में भयावहता अपने देश में वर्ष 1986 में एड्स के पहले मरीज का पता चला था। तब से अब तक देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एचआईवी संक्रमित लोगों का फैलाव हो चुका है। वैसे एचआईवी संक्रमित मरीजों का अनुपात अपने देश में कम ही रहा है। हां, दक्षिण भारत और सुदूर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इन मरीजों की संख्या कुछ अधिक है। एचआईवी से ग्रस्त मरीजों की अधिकता महाराष्टÑ, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक और उत्तर-पूर्व में मणिपुर व नागालैंड में है। अगस्त 2006 में राष्टÑीय स्तर पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, एड्स से पीड़ित कुल मरीजों में से 90 फीसदी मरीज देश के सभी 38 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में पाए गए थे। भारत में एड्स बीमारी को किसी और की समस्या के रूप में देखा जाता है। इससे पीड़ित लोगों की जीवनशैली व उनके चरित्र को संदेह की नजर से देखा जाता है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि कई बार इस बीमारी से मरने वाले व्यक्ति का अंतिम संस्कार तक करने से इंकार कर दिया गया है।
20वीं सदी के अंतिम दशक को प्रसिद्घ इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने विश्वव्यापी संकट का दशक कहा था। इस दशक में मानव-समाज के सामने जो संकट आए, उनमें से एक एड्स के दुनिया-भर में फैलने की भयावह आशंका और चिंता का संकट ही था। जैसे इस दशक के अन्य अनेक संकटों का जनक अमेरिका रहा है, वैसे ही एड्स की खतरनाक खबर भी अमेरिका ही में पैदा हुई और फिर सारी दुनिया में फै लाई गई। इतिहास के पन्नों को टटोला जाए, तो पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशकों में अमेरिकी समाज में युवा समुदाय नशीले पदार्थों के सेवन और अनेक प्रकार के मुक्त यौन-व्यवहारों का शिकार था, जिसके परिणामस्वरूप वहां अनेक प्रकार की बीमारियां फै ल रही थीं, उससे अमेरिकी समाज और सरकार में गहरी चिंता पैदा हुई, लेकिन अमेरिकी समाज यह कैसे स्वीकार करता कि यह एक बीमार समाज है और उस समाज में फैलने वाली बीमारी की दवा की खोज किसी अन्य देश के वैज्ञानिक करें। सो, आनन-फानन में अमेरिका ने डॉक्टर गैलो नाम के एक वैज्ञानिक के झूठे दावे के आधार पर एडस नामक की बीमारी और उसकी खोज का दावा किया और फिर बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में उसका प्रचार-प्रसार हुआ। यह कहने की जरूरत नहीं कि अमेरिकी मानसिकता तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों और समाजों को असभ्य, गंदा और बीमार मानती है। एड्स संबंधी अमेरिकी प्रचार-प्रसार के पीछे भी वही मानसिकता दिखाई पड़ती है, साथ ही इसका हौआ खड़ा करके कंडोम के लिए एक विस्तृत बाजार बनाने की साजिश भी?
हाल के दिनों में जिस प्रकार से भारत-अमेरिकी संबंधों में गर्माहट आई है और अमेरिका भारत की ओर दोस्ताना हाथ बढ़ा रहे हैं, उसके पीछे उनकी नजर में भारत का व्यापक बाजार है। तभी तो वह भारत को एड्स से ग्रस्त समाज साबित करके एक हाथ से आर्थिक अनुदान देकर स्वयं को उदार और मानवीय सिद्घ करने का प्रयत्न कर रहा है, तो दूसरे हाथ से अमेरिकी दवाइयों क ी बिक्री के माध्यम से भारत के गरीबों को लूटने की कोशिश भी कर रहा है। एड्स के बारे में अमेरिकी प्रचार की मानें, तो यह जाहिर होता है कि दुनिया में जो गरीब है और पिछड़ेपन तथा बदहाली के शिकार हैं, वे ही एड्स के कारण भी हैं। भारत में एड्स की खोज करने वालों ने सबसे पहले मणिपुर राज्य को बड़े पैमाने पर एड्स-ग्रस्त माना था। एड्स की खोज करने वालों की नजर सबसे अधिक आदिवासी समुदायों पर है। मध्य प्रदेश के मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बंछारा और बोदिया आदिवासी समुदाय की सभी लड़कियां वेश्यावृत्ति में लगी रहती हैं, इसीलिए वे एड्स के लिए अति संवेदनशील हैं।
हालांकि इस सबके पीछे कहीं न कहीं अमेरिकी नीति काम कर रही है। वह चाहती है कि पूरी दुनिया में उसकी बादशाहत हो। अगस्त 2002 में रामबहादुर राय ने अपने लेख के जरिये एड्स के प्रसंंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण देकर लोगों को समझाने की कोशिश की थी कि यह एक अमेरिकी साजिश है। एड्स का तो सिर्फ हौआ खड़ा किया जाता है। इस लेख के माध्यम से कहा गया था कि एड्स के प्रसंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण हैं। दुनिया के विभिन्न देशों को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की शिक्षा देने की अमेरिक ी आदत और अमेरिकी हितों की सेवा करने वाली दूसरे देशों में क्रियाशील संस्थाओं के बचाव के लिए अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है। यद्यपि भारत में एड्स का प्रभाव घट रहा है, लेकिन अमेरिकी दवा कंपनियां यह नहीं चाहतीं कि भारत में एड्स में कमी आए? इसीलिए ये कंपनियां, उनसे जुड़े बुद्घिजीवी और उनके इशारों पर काम करने वाले गैरसरकारी संगठन आंकड़ों की कलाबाजी के सहारे एड्स का आतंक बढ़ा रहे हैं। यह प्रयास असल में बड़ी चाल का हिस्सा है, जिसका मकसद भारत के आत्मविश्वास को तोड़ना है। दुनिया के किसी भी आत्मविश्वासी समाज और व्यवस्था को अमेरिका अपना दुश्मन समझता है और उसके आत्मविश्वास को तोड़ने की कोशिश करता है।
एड्स के प्रचार-प्रसर में सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ असंख्य गैरसरकारी संगठन भी लगे हुए हैं। हाल के वर्षों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा के नाम पर कमार्ई करने वाले बहुत सारे गैरसरकारी संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। इनमें से कुछ राष्टÑीय हैं, तो कुछ अंतर्राष्टÑीय भी। जो गैर सरकारी संगठन एड्स के काम में लगे हैं, उनके बारे में यह कहना ज्यादा सही है कि एड्स से जितने लोग मरते नहीं, उससे कहीं ज्यादा लोग एड्स के नाम पर जिंदा है। वैसे तो ये संगठन गैरसरकारी हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश को देशी एवं विदेशी सरकारों की सहायता और सुरक्षा प्राप्त है।
वैसे सुनने में यह कोई सामाजिक कार्य की ओर बढ़ाया गया कदम लगता है, लेकिन इससे वाकई में एड्स पीड़ित बच्चों को राहत मिली है या नहीं यह खबर में पता चल जाएगा। नागपुर नगर निगम द्वारा एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के लिए खोला गया एक विद्यालय इन दिनों विवादों के घेरे में है। वर्तमान में इस विद्यालय का विरोध कुछ गैरसरकारी संगठन कर रहे हैं। खास बात यह है कि हाल ही में विश्व एड्स दिवस के मौके पर गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के निवेदन पर ही एनएमसी ने इस विद्यालय को खोलने का फैसला लिया था।
एनएमसी के इस कदम से नाखुश विरोधी संगठन हो-हल्ला मचा रहे हैं। विरोधियों का तर्क है कि हाल ही में समूचे विश्व में एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के प्रति भेदभाव की भावना का प्रचार होगा। वहीं दूसरी ओर एनएमसी के एक अधिकारी और शिशु रोग विशेषज्ञ मिलिंद माने ने कहा कि इस विद्यालय में 28 बच्चों के नाम दर्ज किए गए हैं, जिनके साथ पूर्व में विद्यालयों में अच्छा बर्ताव नहीं किया जा रहा था।
निगम के आयुक्त संजय सेठी का कहना है कि एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों से जुडेÞ तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया है। इस विद्यालय के विरोध में शामिल गैरसरकारी संगठन ‘सजीवन’ की कार्यकर्ता शशिकला का आरोप है कि एनएमसी के अधिकारी साधारण विद्यालयों से एचआईवी/एड्स विद्यार्थियों को निकाल कर इस विशेष विद्यालय में भेज रहे हैं। शशिकला ने बताया कि इस संबंध में गैरसरकारी संगठनों की एक बैठक भी हुई थी। यही नहीं, यह संगठन गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के खिलाफ बगावत करने को तैयार हो गए हैं। पेड़ के नीचे बैठकर गुफ्तगू करने की पुरानी आदत को इस देश में एड्स विरोधी अभियान का हथियार बना दिया गया है। एक स्वयं सेवी संस्था ने एड्स के खिलाफ जागरूकता अभियान को सफल बनाने के लिए यह उपाय आजमाया है। कॉन्गो शहर की 48 वर्षीय आसिया किका, जो छह बच्चों की मां है, इस अभियान से प्रभावित हैं। वे बताती हैं कि मुझे पहले महिला कंडोम के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन अब मैं इसके बारे में जान गई हूं। किका के हाथ में पर्चे और कुछ कंडोम हैं और वह इनकी उपयोगिता से वाकिफ हैं। इससे पहले किका को यह मालूम नहीं था कि महिला कंडोम का उपयोग कैसे किया जाता है। उसे इसकी भी जानकारी नहीं थी कि यह कंडोम स्त्री-पुरुष को एक दूसरे से होने वाली बीमारियों से बचाता है।
जर्मनी की संस्था जीटीजेड अपने इस अभियान के तहत पिछडेÞ और युद्घ प्रभावित इलाकों के लोगों के बीच एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने में लगी है। इसके लिए संस्था ने लोगों को इक्ट्ठा करने का यह परम्परागत तरीका खोज निकाला है। समाचार एजेंसी डीपीए को जीटीजेड के एक प्रबंधक अचिम कोच ने बताया यह तरीका बेहद कारगर साबित हो रहा है।
बॉक्स आइटम
एड्स पर चर्चा से कतराते हैं भारतीय
तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद भारत में आज भी लोग एचआईवी/एड्स के प्रति रुढ़िवादी रवैया अपनाए हुए हैं। इस बात का खुलासा दो महीने पहले मैक एड्स फंड नामक अंतर्राष्टÑीय संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण से हुआ है। मैक के अध्यक्ष जॉन डेमेसी कहते हैं कि एड्स को लेकर भारतीयों के बीच फैली तमाम भ्रांतियों को दूर करना बेहद जरूरी है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि 79 फीसदी भारतीय एड्स को बेहद ही घातक बीमारी समझते हैं, जबकि 59 लोग मानते हैं कि एड्स का उपचार हो सकता है।
कंडोम खरीदने से शर्माते हैं भारतीय?
सर्वेक्षण से पता चला है कि 65 फीसदी भारतीय एड्स के बारे में बातचीत तक करने में हिचकिचाते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि 44 फीसदी भारतीय इस बीमारी के बारे में डॉक्टर से बात करने में शर्माते हैं। सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, 18 फीसदी भारतीय एचआईवी/एड्स से पीडित लोगों के साथ काम करने से डरते हैं, जबकि कुछ लोग उस कमरे में रहना पसंद नहीं करते हैं जिसमें एचआईवी/एड्स से पीडित लोग निवास करते हैं। भारत में सबसे उन्मुक्त विचार वाले संस्थानों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई है। यह दिल्ली के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में लगाई गई पहली कंडोम मशीन है। इस मशीन पर ग्राहक सीधे आकर कंडोम ले सकते हैं। लेकिन यह बात जितनी आसान लगती है, उतनी शायद है नहीं। इस मशीन पर अधिकतर लोग रात के अंधेरे में आते हैं। वे रात में 11 बजे के बाद आते हैं। दिन के वक्त केवल एक या दो व्यक्ति आते हैं और जो दिन में आते भी हैं, वे सीधे-सीधे पूछते भी नहीं है। अक्सर ‘बिस्किट’ या ‘चिप्स’ कंडोम मांगने का बहाना बनाते हैं। वे बताते हैं कि वे सामने से बिस्किट मांगते हैं, लेकिन मुझे कोने में ले जाकर कंडोम मांगते हैं। आम तौर पर मशीन एक दिन में 30 पैकेट बेचता है। फिलहाल ‘क्रेर्जडों’ कंडोम की सबसे ज्यादा मांग है और मध्य प्रदेश में इस कंडोम को खरीदने की लहर-सी चल पड़ी है। प्रबंधक बताते हैं कि भले ही यह महंगा हो, लेकिन इसकी मांग सबसे ज्यादा है। भले ही युवक इस मशीन को लगाने के कदम से खुश हैं, लेकिन वयस्क अब भी इस मशीन की जरूरत होने के बावजूद सबसके सामने नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं।
कॉमिक्स पढ़कर एड्स की समझ बढ़ाएंगे पुरुष
भारत के अलावा आठ अन्य देशों में भी इस संस्था द्वारा सर्वेक्षण कराया गया। कॉमिक्स केवल बच्चों के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। देश में कार्यरत कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर पुरुषों में यौनता और इसे जुड़ी समस्याओं की समझ बढ़ाने के लिए कॉमिक्स का सहारा लेने का निर्णय लिया है। ‘दि पॉपुलेशन काउंसिल’और अन्य गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर ऐसे कॉमिक्स का सेट तैयार किया है, जिसमें एचआईवी/एड्स से संबंधित जानकारी दी गई हैं। यह सेट बंगाली, अंग्रेजी, हिन्दी औैर तेलुगु में में उपलब्ध है।
जनसंख्या परिषद के संचार विभाग के प्रमुख विजया निदादावोलू का कहना है किइस तरह के कॉमिक्स तैयार करने का उद्देश्य समाज में मौजूदा समझ को बदलना है। वेश्याओं से यौन संबंध बनाने के दौरान कंडोम के प्रयोग के लिए प्रेरित करना भी इसका उद्देश्य है।
कॉमिक्स के एक सेट में ‘होश में जोश’,‘खून का खतरा’, ‘सावधान सीनियर’ और ‘प्यार का पॉकेट’ नामक शीर्षक से कॉमिक्स तैयार किए गए हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और हैदराबाद की शहरी झोपड़पट्टियों में उक्त कॉमिक्स की 25 हजार प्रतियां वितरित करने के लिए भेजी गई हैं। पे्ररणा(दिल्ली), अपनालय (मुंबई), सिनी आश (कोलकाता) और दिव्य दिशा (हैदराबाद) ने मिलकर कॉमिक्स तैयार किया है। विजया का कहना है कि 2006 में इस तरह के कॉमिक्स तैयार करना अति आवश्यक था। देश में 30 प्रतिशत एड्स रोग 15 से 20 साल के हैं। उन्होंने कहा कि इस कॉमिक्स के माध्यम से युवा भारतीय पुरुषों को उस पारंपरिक पुरुषत्व को बदलने के लिए कहा गया है, जिसमें वे जोखिम भरा यौन व्यवहार अपनाते हैं। इसके अलावा देश के चार शहरों में युवाओं से कॉमिक्स में बताए गए मुद्दों पर बातचीत भी की गई, ताकि उनकी समझ बढ़ाई जा सके।
संवेदना का मरहम जरूरी
करीब बीस वर्ष पहले पहचान में आई बीमारी एचआईवी/एड्स से इंसानों की जितनी मौतें हुई, उतनी आज तक के ज्ञात मानव इतिहास में किसी भी बीमारी से समूचे विश्व में एक साथ मौतें नहीं हुई हैं। पांच करोड़ 30 लाख से अधिक लोग इस भयावह बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं और अभी तक इस बीमारी से एक करोड़ 88 लाख लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। आज तक 130 लाख बच्चे इस बीमारी के चलते अनाथ हो चुके हैं, क्योंकि उनके माता-पिता दोनों ही इसी बीमारी के चलते मर चुके हैं। दुर्भाग्य से ये सभी आंकड़े हर दिन तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व भर के नेता इस बीमारी का जल्दी पता लगाने, प्रभावी व अचूक उपचार करने, इससे बचने और पीड़ितों की देखभाल करने जैसी बातों को सभी के लिए मानव अधिकारों की सूची में शामिल करने की अपील कर रहे हैं।
दुनिया अब जान चुकी है कि एड्स जैसी महामारी से लड़ने के लिए मानव अधिकारों की सुरक्षा करना मूलभूत अधिकारों के तहत बेहद जरूरी है। मानव अधिकारों की अवहेलना से सेक्स वर्करों और नशेड़ियों के बीच यह बीमारी बेहद गंभीर खतरा बनकर मौजूद रहती है। वैसे इस दिशा में एचआईवी और एड्स नियंत्रण के प्रशंसनीय कार्य हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन एचआईवी और एड्स के नियंत्रण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और प्रयत्न करने की जरूरत है। अन्यथा, हर वर्ष लाखों लोग इसी तरह एचआईवी बीमारी से संक्रमित होते रहेंगे और यह पूरी दुनिया में तेजी से फैलती रहेगी। लांछन और कलंक एचआईवी एड्स ने मानव जाति को समानांतर रूप से विभाजित कर दिया है। वैज्ञानिक जगत इस बीमारी की रोकथाम और इलाज की खोज करने में अपना सिर खपा रह है।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए है। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीड़ितों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए, लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीड़ित व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीड़ित को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन आॅफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुड़ी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।
आज हमें एचआईवी एड्स पर कुछ अलग चर्चा करने की जरूरत महसूस होने लगी है और पूरी दुनिया के शोधार्थी, समुदाय, नेतागण और अन्य सभी इस विषय को प्रमुखता दें। विश्व एड्स दिवस सभी लोगों, समूहों, नेताओं समेत सभी को यह सुनहरा मौका दे रहा है कि वे एड्स पीड़ितों पर लगे कलंक के टीके को पोंछने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कार्य करें। कलंक की यह आंधी बड़ी तेजी से फैल रही है और समाज को दो भागों में बांट रही है। अत: विश्व एड्स दिवस के अवसर पर एड्स पीड़ितों के साथ हो रहे भेदभाव को जड़ से मिटाने के लिए बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य करने का वक्त आ गया है। जीने का अधिकार इस वर्ष के लिए ह्यूमन राइट्स एंड एक्सेस टू ट्रीटमेंट यानी मानव अधिकार और इलाज तक की पहुंच के नाम से स्लोगन बनाया गया है। इसके तहत सभी पीड़ितों को इलाज की सुविधा देने, उनकी सुरक्षा और देखभाल करने जैसे लक्ष्यों को पूरा करने की योजनाएं बनी हैं। इस स्लोगन के माध्यम से पूरी दुनिया के सभी देशों को बताया जाएगा कि वे इस रोग से पीड़ितों के इलाज और सामान्य जीवन जीने में बाधक बने कानूनों को सुधारें और नए कानून बनाएं।
मानव अधिकार सभी के लिए मूलभूत अधिकार के रूप में है। एड्स से पीड़ित लोगों के साथ हो रहे भेदभाव, उन्हें परेशान करने और सताने जैसी प्रथाओं को रोकना होगा। पूरी दुनिया में यह एक कड़वा सच है कि इससे पीड़ित लोगों को कलंकित घोषित कर दिया जाता है, जो नौकरी पर हैं, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है। यहां तक कि इससे पीड़ित लोगों को इलाज कराने तक के मूलभूत अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। कई बार अस्पताल और डॉक्टर-नर्स आदि एड्स पीड़ितों का इलाज करने से मना कर देते हैं। भारत में भयावहता अपने देश में वर्ष 1986 में एड्स के पहले मरीज का पता चला था। तब से अब तक देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एचआईवी संक्रमित लोगों का फैलाव हो चुका है। वैसे एचआईवी संक्रमित मरीजों का अनुपात अपने देश में कम ही रहा है। हां, दक्षिण भारत और सुदूर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इन मरीजों की संख्या कुछ अधिक है। एचआईवी से ग्रस्त मरीजों की अधिकता महाराष्टÑ, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक और उत्तर-पूर्व में मणिपुर व नागालैंड में है। अगस्त 2006 में राष्टÑीय स्तर पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, एड्स से पीड़ित कुल मरीजों में से 90 फीसदी मरीज देश के सभी 38 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में पाए गए थे। भारत में एड्स बीमारी को किसी और की समस्या के रूप में देखा जाता है। इससे पीड़ित लोगों की जीवनशैली व उनके चरित्र को संदेह की नजर से देखा जाता है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि कई बार इस बीमारी से मरने वाले व्यक्ति का अंतिम संस्कार तक करने से इंकार कर दिया गया है।
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