मध्य प्रदेश की सियासत में रियासतों का दखल अब भी कायम है। यहां रियासतों के वारिसों के बगैर किसी दल की सियासत नहीं चलती। सत्ता में कोई आए, मगर उन्हें नकारना किसी के लिए आसान नहीं है। लिहाजा, इस बार भी इनकी धमक का एहसास हो रहा है।
राजा और रजवाड़े भले ही खत्म हो गए हों, मगर मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा का टिकट पाकर विधायक बनने की आस में बुंदेलखंड में नाम के ‘राजा’ और ‘रानी’ प्रजा के साथ कतार में लगे हैं। विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा में टिकट वितरण की कवायद तेज हो चली है। अन्य लोगों के साथ नाम के राजा भी उम्मीदवार बनने के लिए जोड़-तोड़ लगाए हुए हंै।
बेशक, बुंदेलखंड?में रियासतें गिनती की रही हैं। आजादी के बाद रियासतें भले ही खत्म हो गई हों, मगर इस इलाके में क्षत्रिय परिवार में जन्मे बालक के नाम के साथ आज भी राजा या जू लगाने के परंपरा बरकरार है। यही कारण है कि क्षत्रिय परिवार का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसको राजा या जू कहकर न बुलाया जाता हो। इस इलाके की विभिन्न रियासतों के वारिस अथवा क्षत्रिय परिवारों से नाता रखने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की चौखट पर दस्तक देने में लगे हंै। कोई पाला बदल रहा है तो कोई अपनी निष्ठा का हवाला देकर चुनाव में टिकट मांग रहा है। इनमें से कई तो अभी विधायक है और कई अपने लिए नई जमीन तलाश रहे हैं।?बुंदेलखंड में वैसे तो मध्य प्रदेश में छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, दमोह, पन्ना और दतिया आते हंै। इस इलाके के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना में नाम के साथ राजा, रानी या जू लिखने की परंपरा अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा है। छतरपुर जिले के छतरपुर विधानसभा से कांग्रेस का टिकट पाने डीलमणी सिंह उर्फ बब्बू राजा, राजनगर क्षेत्र से वर्तमान विधायक विक्रम सिंह उर्फ नाती राजा व पूर्व विधायक शंकर प्रताप सिंह उर्फ मुन्ना राजा, महाराजपुर से भाजपा के विधायक मानवेंद्र सिंह उर्फ भंवर राजा, बिजावर से विधायक आशा रानी, भाजपा सांसद जितेंद्र सिंह बुंदेला उर्फ अन्नू राजा, टीकमगढ़ से कांग्रेस विधायक यादवेंद्र सिंह उर्फ जग्गू राजा, खरगापुर से भाजपा के पूर्व विधायक सुरेंद्र प्रताप सिंह उर्फ बेबी राजा टिकट पाने के लिए ताल ठोंक रहे हंै। इसी तरह पन्ना राजघराने की जीतेश्वरी देवी उर्फ युवरानी भाजपा से टिकट की दावेदार हैं।?एक तरफ जहां प्रजा के साथ राजा टिकट मांग रहे हैं, वहीं एक राजा दूसरे राजा की टिकट कटवाने में भी पूरी तरह सक्रिय है। इन राजाओं की दोनों ही दलों में मजबूत पकड़ है, यही कारण है कि अधिकांश दावेदारों को मैदान में जोरआजमाइश करने का मौका मिल जाएगा। ?बुंदेलखंड के वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र व्यास कहते हैं कि इस इलाके की राजनीति ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच घूमती है। खासकर छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना जिलों में आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर शेष स्थानों से इन्हीं दो वर्गों के प्रतिनिधि जीतकर आते हंै। ऐसा इसलिए क्योंकि यह दोनों वर्ग धन और बाहुबल में अन्य से कहीं आगे हंै। राज्य में विधानसभा चुनाव को लेकर बुंदेलखंड क्षेत्र में टिकट के लिए कतार में खड़े कितने राजा और रानी टिकट पाने में सफल होते हैं, यह कयास से आगे कुछ भी नहीं है।
देश की आजादी के बाद रियासतों का अस्तित्व मिट गया। उसके बाद सभी पूर्व रियासतों के मुखियाओं ने राजनीतिक दलों से नाता जोड़ा, क्योंकि वे सत्ता का हिस्सेदार बने रहना चाहते थे। आगे चलकर 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो रियासत से जुड़े यही लोग राज्य की राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। राज्य में दर्जनों रियासतें और जागीरें थीं, जिनका अपने क्षेत्र में प्रभाव था और वे वहां के राजनीतिक मुखिया बन गए। राज्य गठन के बाद से रियासतों व राज परिवारों के वारिसों की राजनीतिक हैसियत व रसूख पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राज्य के 57 वर्षो में से 18 वर्षो तक रियासतों से जुड़े प्रतिनिधि मुख्यमंत्री रहे हैं। सबसे ज्यादा समय तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह 10 वर्ष राज्य के मुखिया रहे, वहीं चुरहट रियासत के स्वर्गीय अर्जुन सिंह लगभग छह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है। वहीं, राज्य में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह रीवा राजघराने के मरतड सिंह व उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं। आगे बढ़ें तो पता चलता है कि देवास राजघराने के तुकोजीराव पंवार, मकड़ई राजघराने के विजय शाह भाजपा सरकार में मंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के बेटे ध्रुव नारायण सिंह विधायक हैं। चुरहट रियासत के अजय सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, छतरपुर राजघराने के विक्रम सिंह, अलीपुरा सियासत के मानवेंद्र सिंह, कालूखेड़ा राजघराने के महेंद्र सिंह कालूखेड़ा से विधायक हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार, देश की आजादी के बाद राजनीतिक दलों का कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए उन्हें रियासतों के विलीनीकरण के बाद चुनाव में उनका सहयोग लेना पड़ा। आज राज परिवारों का अस्तित्व कम भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी है, लिहाजा कांग्रेस और भाजपा के लिए उन्हें साथ लेकर चलना मजबूरी है। वहीं दूसरी ओर, राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है। राज्य में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर राजघरानों से नाता रखने वाले वारिसों ने टिकट हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राजघरानों के कुछ वारिस भाजपा का तो कुछ कांग्रेस का टिकट पाना चाह रहे हैं। दोनों दल एक दर्जन से ज्यादा स्थानों पर इन वारिसों को मैदान में उतारने की तैयारी में हैं। विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता चाहे किसी भी के हाथ आए, मगर इतना तो तय है कि पुरानी रियासतों से नाता रखने वालों का असर नई सरकार में भी बरकरार रहेगा।
राजा और रजवाड़े भले ही खत्म हो गए हों, मगर मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा का टिकट पाकर विधायक बनने की आस में बुंदेलखंड में नाम के ‘राजा’ और ‘रानी’ प्रजा के साथ कतार में लगे हैं। विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा में टिकट वितरण की कवायद तेज हो चली है। अन्य लोगों के साथ नाम के राजा भी उम्मीदवार बनने के लिए जोड़-तोड़ लगाए हुए हंै।
बेशक, बुंदेलखंड?में रियासतें गिनती की रही हैं। आजादी के बाद रियासतें भले ही खत्म हो गई हों, मगर इस इलाके में क्षत्रिय परिवार में जन्मे बालक के नाम के साथ आज भी राजा या जू लगाने के परंपरा बरकरार है। यही कारण है कि क्षत्रिय परिवार का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसको राजा या जू कहकर न बुलाया जाता हो। इस इलाके की विभिन्न रियासतों के वारिस अथवा क्षत्रिय परिवारों से नाता रखने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की चौखट पर दस्तक देने में लगे हंै। कोई पाला बदल रहा है तो कोई अपनी निष्ठा का हवाला देकर चुनाव में टिकट मांग रहा है। इनमें से कई तो अभी विधायक है और कई अपने लिए नई जमीन तलाश रहे हैं।?बुंदेलखंड में वैसे तो मध्य प्रदेश में छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, दमोह, पन्ना और दतिया आते हंै। इस इलाके के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना में नाम के साथ राजा, रानी या जू लिखने की परंपरा अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा है। छतरपुर जिले के छतरपुर विधानसभा से कांग्रेस का टिकट पाने डीलमणी सिंह उर्फ बब्बू राजा, राजनगर क्षेत्र से वर्तमान विधायक विक्रम सिंह उर्फ नाती राजा व पूर्व विधायक शंकर प्रताप सिंह उर्फ मुन्ना राजा, महाराजपुर से भाजपा के विधायक मानवेंद्र सिंह उर्फ भंवर राजा, बिजावर से विधायक आशा रानी, भाजपा सांसद जितेंद्र सिंह बुंदेला उर्फ अन्नू राजा, टीकमगढ़ से कांग्रेस विधायक यादवेंद्र सिंह उर्फ जग्गू राजा, खरगापुर से भाजपा के पूर्व विधायक सुरेंद्र प्रताप सिंह उर्फ बेबी राजा टिकट पाने के लिए ताल ठोंक रहे हंै। इसी तरह पन्ना राजघराने की जीतेश्वरी देवी उर्फ युवरानी भाजपा से टिकट की दावेदार हैं।?एक तरफ जहां प्रजा के साथ राजा टिकट मांग रहे हैं, वहीं एक राजा दूसरे राजा की टिकट कटवाने में भी पूरी तरह सक्रिय है। इन राजाओं की दोनों ही दलों में मजबूत पकड़ है, यही कारण है कि अधिकांश दावेदारों को मैदान में जोरआजमाइश करने का मौका मिल जाएगा। ?बुंदेलखंड के वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र व्यास कहते हैं कि इस इलाके की राजनीति ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच घूमती है। खासकर छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना जिलों में आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर शेष स्थानों से इन्हीं दो वर्गों के प्रतिनिधि जीतकर आते हंै। ऐसा इसलिए क्योंकि यह दोनों वर्ग धन और बाहुबल में अन्य से कहीं आगे हंै। राज्य में विधानसभा चुनाव को लेकर बुंदेलखंड क्षेत्र में टिकट के लिए कतार में खड़े कितने राजा और रानी टिकट पाने में सफल होते हैं, यह कयास से आगे कुछ भी नहीं है।
देश की आजादी के बाद रियासतों का अस्तित्व मिट गया। उसके बाद सभी पूर्व रियासतों के मुखियाओं ने राजनीतिक दलों से नाता जोड़ा, क्योंकि वे सत्ता का हिस्सेदार बने रहना चाहते थे। आगे चलकर 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो रियासत से जुड़े यही लोग राज्य की राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। राज्य में दर्जनों रियासतें और जागीरें थीं, जिनका अपने क्षेत्र में प्रभाव था और वे वहां के राजनीतिक मुखिया बन गए। राज्य गठन के बाद से रियासतों व राज परिवारों के वारिसों की राजनीतिक हैसियत व रसूख पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राज्य के 57 वर्षो में से 18 वर्षो तक रियासतों से जुड़े प्रतिनिधि मुख्यमंत्री रहे हैं। सबसे ज्यादा समय तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह 10 वर्ष राज्य के मुखिया रहे, वहीं चुरहट रियासत के स्वर्गीय अर्जुन सिंह लगभग छह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है। वहीं, राज्य में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह रीवा राजघराने के मरतड सिंह व उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं। आगे बढ़ें तो पता चलता है कि देवास राजघराने के तुकोजीराव पंवार, मकड़ई राजघराने के विजय शाह भाजपा सरकार में मंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के बेटे ध्रुव नारायण सिंह विधायक हैं। चुरहट रियासत के अजय सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, छतरपुर राजघराने के विक्रम सिंह, अलीपुरा सियासत के मानवेंद्र सिंह, कालूखेड़ा राजघराने के महेंद्र सिंह कालूखेड़ा से विधायक हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार, देश की आजादी के बाद राजनीतिक दलों का कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए उन्हें रियासतों के विलीनीकरण के बाद चुनाव में उनका सहयोग लेना पड़ा। आज राज परिवारों का अस्तित्व कम भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी है, लिहाजा कांग्रेस और भाजपा के लिए उन्हें साथ लेकर चलना मजबूरी है। वहीं दूसरी ओर, राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है। राज्य में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर राजघरानों से नाता रखने वाले वारिसों ने टिकट हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राजघरानों के कुछ वारिस भाजपा का तो कुछ कांग्रेस का टिकट पाना चाह रहे हैं। दोनों दल एक दर्जन से ज्यादा स्थानों पर इन वारिसों को मैदान में उतारने की तैयारी में हैं। विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता चाहे किसी भी के हाथ आए, मगर इतना तो तय है कि पुरानी रियासतों से नाता रखने वालों का असर नई सरकार में भी बरकरार रहेगा।
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