सोमवार, 26 अगस्त 2013

छोटे दल खेलेंगे बड़ा खेल

2013 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने है। जिसके लिए रणनीति बनाने में जहां कांग्रेस अपनी पूरी तैयारी में है वहीं भाजपा भी इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। दिल्ली में विधानसभा की 70 सीटें हैं इनपर भाजपा और कांग्रेस में लड़ाई होती रही है। बीते एक दशक में बसपा ने भी अपनी आमद दर्ज कराई है। इस बार के नगर निगम के चुनाव में जीत दर्जकर बसपा सबको चौका भी दिया है। लेकिऩ अब एक और दल उस मुकाबले में आ गई है वह आम आदमी की पार्टी। यानी तय है कि इस वर्ष मुकाबला चतुष्कोणीय है। कम से कम बनाने की तो कोशिश है। कांग्रेस और भाजपी की असली चिंता यही है कि आखिर कैसे बसपा और आप के प्रभाव को कम किया जा सके। जहां तक आंकड़ों की बात है तो दिल्ली में अनुसूचित जाति के 19 फीसदी, मुस्लिम 10 फीसदी, सिख 5 फीसदी, जाट 3 फीसदी और अन्य 14 फीसदी मतदाता हैं। इनमें से 50 लाक मतदाता बिहार-यूपी, झारखंड और उत्तराखंड के हैं। दरअसल, पूर्वांचल मतदाता ही इस बार कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकता है। ऐसा प्रतीत हो रहा है। जिसका ट्रेलर नगर निगम के चुनाव में देखा गया है। हालांकि, शीला दीक्षित अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती है। शीला दीक्षित ने एक बार फिर अपा मैनेजमेंट संभाल लिया है। शीला दीक्षित के लिए इस बरा सबसे बड़ा मुद्दा है अनियमित कॉलनियों को नियमित करना। उन्होंने घोषणा तो कर दी हैं लेकिन अभी तक वे कुछ नहीं कर पाई है। दिल्ली सचिवालय में अभी मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री इस काम को पूरा करने में साफ दिख जाएंगें। शीला दीक्षित दिल्ली वालों के सुहाने सफर के लिए ईस्टर्न वेर्स्टन कॉरिडोर, पानी की सप्लाई के लिए मुनक नहर, केरोसीन फ्री दिल्ली, अन्न श्री योजना, गरीब महिलाएं के बैंक खाते और विकलांगों जैसी योजनाओं का प्रचार कर रही हैं ताकि जनता के बीच अभी सकारात्मक छवि पहुंच सकें। हालांकि इस बार समीकरण में कुछ बदलाव जरूर आया है। जिस प्रकार अन्य प्रदेशों में छोटी पार्टी अहम रोल निभा रही है, उससे बार-बार यह कहा जा रहा है कि इस बार छोटी पार्टियां अपना बड़ा रोल अदा करेंगी। दरअसल दिल्ली में बसपा ही एकमात्र पार्टी है जो अहम भूमिका में है। दिल्ली में अन्य पार्टियों में जो चुनाव के समय सक्रियता दिखाती है वह आईएनएलडी, राजद, जदयू, पीस पार्टी, अपना दल, एनसीपी, अकाली दल है। इस बार आप पार्टी और प्रोग्रेसिव पार्टी अहम भूमिका में रहेगी। दिल्ली में छोटे दलों की चर्चा के पहले दो पार्टियों की चर्चा आवश्यक है वह है आप पार्टी और प्रोग्रेसिव पार्टी। प्रोग्रेसिव पार्टी के अध्यक्ष जगदीश मंमगई हैं। वे पार्षद रह चुके हैं। भाजपा में रहे हैं और दिल्ली की पूरी जानकारी रखते हैं। इनकी खास बात यह है कि इनकी पार्टी दिल्ली आधारित पार्टी है। जगदीश मंमगई अरविंद केजरीवाल की तरह मीडिया में छाए रहने और होहल्ला में विश्वास नहीं करते हैं। जगदी मंमगई के आदर्श कांशीराम हैं जिन्होंने अपना मजबूत आधार बनाया। अपने कार्यकर्ता बनाएं जिसके बदौलत अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बना ली और जो पार्टी आज देश में अहम भूमिका में है। ममंगई भी लगातार दिल्ली में घूमघूमकर अपना जनाधार मजबूत करने में लगे हैं। इनका फास मानना है कि जो कांग्रेस और भाजपा से दुखी है वह अपना विकल्प ढूंढेगा और वह विकल्प प्रोग्रेसिव पार्टी देगी। इस रूप में इन्हें सफलता मिलता साफ नजर आ रहा है क्योंकि कांग्रेस सत्ता में है तो इसे सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा जबकि शहरी मतदाता भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के छिछालेदर से अवगत हो गया है। इसलिए ये मतदाता प्रोग्रेसिव पार्टी की ओर आएंगें ही । जगदीश ममंगई का अरविदं केजरीवाल के बारे में कहना है कि वे भले ही दिल्ली में अपनी गतिविधि चला रहे हैं लेकिन इनके साथ और वे खुध बाहरी है, जिससे चुनाव में इनका प्रभाव नहीं पड़ेगा। अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी की पार्टी बनाकर सीधे मैदान में आ गए हैं। इन्हें मीडिया भी खूब तरजीह दिया। भाजपा के मंच पर चढकर इन्होंने उसे भी रूलाया तो कांग्रेस पर आरोप लगाकर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन चुनाव में सबसे अहम बात होती है सामाजिक समीकरण की। वह इनके पास जीरो है। इनका अभियान व्यवहारिक नहीं दिखता है चुनाव के खातिर। केजरीवाल के वोटर वे होंगे, जिनके लिए वोट फैशन है। ऊंचे वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के मतदाता इनके प्रभाव में हैं जिन्हें ये प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन यह तो तय है कि दिल्ली में आम भूमिका में नहीं होगी आप पार्टी। हां यह भी तय है कि भाजपा को ही इनके आने से नुकसान होगा। प्रोग्रेसिव पार्टी आप पार्टी में अंतर यही है कि प्रोग्रेसिव पार्टी प्रत्येक मुहल्ले और आर डब्ल्यूए में जाकर अपने जड़ मजबूत करने में लगी है सामाजिक समीकरण समझने में लगी है तो केजरीवाल सीधे मीडिया से मजबूत होना चाहते हैं। दिल्ली में जो नेशनल पार्टी यहां छोटी भूमिका में हैं लेकिन अहम है, वह है बसपा। दिल्ली में 12 सीटे सुरक्षित सीटें हैं पहले यह 13 हुआ करती थी जो परिसीमन के बाद 12 हो गई। बसपा ने पिछले विधानसभा में दो सीटें जीती भी थी। अभी इनमें 10 सीट कांग्रेस के पास है। बसपा इऩ सीटों पर अपना प्रभाव छोड़ देती है। इऩ सीटों में भाजपा कहीं भी मुकाबले में नहीं है। यहां भी मुकाबले में भाजता तभी आती है जब बसपा कांग्रेस का वोट काट दें तो इसका फायदा भाजपा को मिल जाता है। यहां सामाजिक समीकरण समझने की जरूरत है। बसपा को दिल्ली में जाटव का वोट तो मिलता है लेकिन बाल्मिकी का नहीं। यह वोट केवल और केवल कांग्रेस को जाता है। जबकि यही बाल्किमीकी उत्तर प्रदेश में बसपा को वोट देता है। दिल्ली में बाल्मिकी वोट यहां पुराने समय से कांग्रेस से जुडा है जिसे बसपा भी नहीं तोड़ पाई है। नंदनगरी जैसे इलाकों में सुरक्षित सीट पर वोट कांग्रेस को मिलता है जिसका कारण बताया जाता है कि यहां झुग्गी झोपड़ी से सीधे कांग्रेस इन्हें बसा दिया है जिससे इनके मकानों की कीमत आसमान पर है। इसलिए इन क्षेत्रों में बुर्जुग सौ फीसदी कांग्रेसी है। भले ही युवा कुछ इधर-उधर हो जाएं। 12 सीटें जो सुरक्षित हैं उसमें दूसरी पार्टी ज्यादा अहम रोल इसलिए नहीं निभा पाती है क्योंकि यहां अन्य समुदाय के लोगों में उत्साह नहीं है क्योंकि अल्टीमेटली सुरक्षित सीट ही है। इसलिए यहां जो एक बार मजबूत हो गया है वही रहेगा। यह भी तय है। दिल्ली में बसपा में टिकट लेने की होड़ इसलिए रहता है क्योंकि टिकट के साथ अपना वोट बैंक भी देती है। बसपो को दिल्ली में 9 से 10 फीसदी वोट पड़ जाती है। यह पार्टी तीसरे नंबर पर तीन बार से रही है चुनावों में। सीमापुरी, मंगोलपुरी, त्रिलोकपुरी, सुलतानपुरी, भलस्वा, जहांगीरपुरी, पटपड़गंज, देवली और अंबेडकरनगर जैसे इलाकों में बसपा का प्रभाव है। अब बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी की। दिल्ली में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का मतलब है रामवीर सिंह विधुरी। जो बदरपुर का प्रतिनिधित्व करते हैं। दो सीटें हैं इस पार्टी के पास एक बदरपुर तो दूसरा हरकेशनगर से। इनका दिल्ली में और कहीं जनाधार नहीं है। जो भी उम्मीदवार जीतकर इस पार्टी से आते हैं वह अपने बूते हीं। उन्हें पार्टी का चिह्न जरूर मिल जाता है जबकि पार्टी को नेशनल पार्टी बनने में सहायता इसके अलावे इनकी भूमिका नग्णय है। विधुरी इस पार्टी का अपने आवश्यकतानुसार उपयोग करते हैं। छोटी पार्टी में एक दल है राजद। जिसके सुप्रीमो लालू प्रसाद हैं। राजद ने पिछले विधानसभा में ओखला से एक सीट जीता है। राजग की साख बिहार में होने की वजह से ऐसा प्रतीत होता है कि उसे दिल्ली में बिहार वासियों का वोट बैंक मिलेगा। लेकिन यह तय है दोनों दिग्गज पार्टियां भाजपा औऱ कांग्रेस भी अपने-अपने उम्मीदवार ऐसे तय करते हैं जहां इनकी संख्या ज्यादा है वहां उम्मीदवार भी बिहार और यूपी के लोगों को देते हैं जिससे राजद जैसे दलों की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। हां यह तय है कि राजद के कुछ समर्थक जरूर दिल्ली में हैं जो इनकी साख को मजबूत करने में लगे हैं लेकिन यह आसान नहीं दिखता। राजद की तरह जदयू भी अपनी उम्मीदवार दिल्ली में खड़ा करती है। जदयू के जो उम्मीदवार रहते हैं उसे ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार का समर्थन मिलेगा। लेकिन नीतीश राजनीति की बारिकियों को समझते हैं और दिल्ली में प्रचार के लिए नहीं आते। शरद यादव का तो खुद जनाधार कहीं नहीं है तो दिल्ली में कहां से मतदाताओँ को रिझा पाएंगे। इंडियन नेशनल लोकदल बाहरी दिल्ली नजफगढ़ इलाके में अपना वजूद एक सीट तक ही सीमित रखा है। दिल्ली के अंदर इनका प्रभाव न के बराबर है। हां इतना तय है कि नजफगढ़ इलाके में इनका प्रभाव चलता रहेगा जहां से अभी भरत सिंह विधायक हैं। आईएनएलडी अन्य इलाकों में विस्तार की भी योजना नहीं है। लेकिन छोटी पार्टी की लिस्ट में तो है ही। आउटर दिल्ली में लोकदल का प्रभाव भी रहा है वह चौधरी चरण सिंह की वजह से लेकिन फिलहाल किसी रोल में नजर नहीं आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश की दो और पार्टी है जो दिल्ली में अपना जगह तलाश रही है वह अपना दल और पीस पार्टी। अपना दल को भी तक कोई खास अहमियत यहां नहीं मिलने जा रहा है क्योंकि यहां जाति आधारित चुनाव न हो कर समुदाय आधारित चुनाव होते हैं। जबकि पीस पार्टी मुसलमानों की पार्टी कही जाती है इसमें वैसे मुसलमान टिकट के लिए आ जाते हैं जिन्हें कांग्रेस या भाजपा ने टिकट नहीं दिया हो। ताकि वे अपने बलबूते जीत दर्ज करा सकें। इनकी भूमिका भी यहीं तक है। जहां तक सपा की बात है तो इस बार सपा अपने उत्तर प्रदेश के जीत को दिल्ली में भुनाना चाह रही है। लेकिन उसे लगता है कि उसका प्रभाव यहां ज्यादा नहीं है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तीसरा मोर्चा पर काम कर रहे हैं उनका मानना है कि अगर इसी तर्ज पर दिल्ली में काम किया जाए तो दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा का वर्चस्व तोड़ा जा सकता है। बहरहाल, छोटी पार्टी चुनाव के पहले तक तो लगता है कि अहम भूमिका में रहती है लेकिन चुनाव के समय में दिल्ली जैसे इलाकों में अहम भूमिका में नहीं होती है क्योंकि वोटों का समीकरण कुछ इस प्रकार है। दिल्ली के समीकरण को समझें तो 37 फीसदी वोट कांग्रेस के पास हैं, 32 फीसदी वोट भाजपा के पास। उस 37 फीसदी वोट में कोई सेंध लगता है तो भाजपी की सरकार बन जाएंगी। यानी बाकी बचे 30 फीसदी वोट पर अन्य छोटे दल अपने पक्ष में कर लेते तो कुछ अहम भूमिका में आ सकते हैं जो कि लगता नहीं है।

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