सोमवार, 26 अगस्त 2013
तो खत्म होगा राज्यपाल का पद?
हाल ही में राज्यपाल के पद के राजनीतिक दुरुपयोग की लोकसभा में जमकर बवाल मचा। इसकी आलोचना करते हुए विभिन्न दलों के नेताओं ने इस पद को औपनिवेशक काल की विरासत बताया और इस संवैधानिक पद को समाप्त किए जाने की पुरजोर मांग की। जनता दल यू , तृणमूल कांग्रेस , समाजवादी पार्टी , राजद और बीजू जनता दल समेत अधिकतर दलों के सदस्यों की राय थी कि देश की आर्थिक हालत को देखते हुए राज्यपाल का पद आर्थिक ढांचे पर एक बोझ है और बदलते परिदृश्यों में इस पद की व्यावहारिकता की समीक्षा किए जाने की जरूरत है।
इन दलों के नेताओं ने ‘राज्यपाल (उपलब्धियां, भत्ते और विशेषाधिकार) संशोधन विधेयक’ पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए राज्यपाल पद की कड़ी आलोचना की और राजभवनों को ‘सफेद हाथी’ करार दिया। राज्यपाल पद को बनाए रखने की स्थिति में अधिकतर दलों के सदस्यों ने संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सलाह मशविरे के अनुसार ही राज्यपाल की नियुक्ति किए जाने संबंधी 1988 में गठित सरकारिया आयोग की सिफारिशों का अनुपालन किए जाने की पुरजोर मांग की। विधेयक पर चर्चा की शुरुआत करते हुए भाजपा के कीर्ति आजाद ने राज्यपाल के पद को राजनीति से परे रखे जाने, नियुक्ति में पारदर्शिता बरते जाने और इस संबंध में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा गठित सरकारिया आयोग की सिफारिशों का अनुपालन किए जाने पर जोर दिया। कीर्ति आजाद ने कहा कि सरकारिया आयोग समेत केंद्र राज्यों के संबंधों पर तीन आयोग और दो समितियां गठित की जा चुकी हैं, लेकिन इसके बावजूद राज्यपाल का पद दिनोंदिन विवादास्पद होता जा रहा है। उन्होंने दागदार व्यक्तियों को इस संवैधानिक पद पर नियुक्ति नहीं किए जाने का प्रावधान करने की भी मांग की।
यदि हाल के वर्षों में बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि के राज्यपालों की भूमिका पर पड़ताल की जाए, तो कहने में कोई संकोच नहीं होता कई बार राज्यपाल केंद्र सरकार नहीं बल्कि केंद्र में सत्तासीन दल के एजेंट विशेष के रूप में कार्य करते हैं। ऐसे में सवाल तो बनता ही है कि ऐसे सियासी दांवपेच के बीच राज्यपालों की भूमिका क्या होनी चाहिए? इस पर बहस तेज हो गयी है। हालांकि राज्यपालों की बयानबाजी और उनकी भूमिका को लेकर यह कोई पहली मर्तबा सवाल नहीं उठा है। गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल द्वारा लोकायुक्त के पद पर न्यायमूर्ति आरए मेहता की नियुक्ति को लेकर भी सवाल उठा था। मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक गया था। कर्नाटक में भी राज्य मंत्रिपरिषद से सलाह-मशविरा किए बगैर ही लोकायुक्त की नियुक्ति की गई। सच यह है कि कांग्रेस पार्टी जब भी सत्ता में रही है राज्यपालों का दुरुपयोग की है। साढ़े छह दशक का इतिहास बताता है कि वह गैरकांग्रेसी सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए राजभवन की ताकत का इस्तेमाल की है। वह संघ-राज्य संबंधों का बिल्कुल ख्याल नहीं रखती है। आज भी जिन राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें हैं वहां राज्यपालों की सक्रियता ज्यादा देखी जाती है।
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