शनिवार, 16 जनवरी 2010

आयोग क्यूँ !

लोकतांत्रिक प्रणाली में 'लोगÓ की प्राथमिकता होती है। सो, लोगों की मनोदशा का अंदाजा लगाकर किसी भी अप्रिय घटना के बाद शासनपक्ष द्वारा फौरन जांच आयोग का गठन किया जाना रस्मअदायगी बन चुकी है। जिसका हश्र जनता को पहले से ही पता होता है। आखिर क्यों? अहम सवाल है। न्याय के बारे में एक कहावत है हमारी परम्परा में कि न्याय तो त्वरित होना चाहिए और मुफ्त होना चाहिए। आज जहां किसी मामले के निपटारे में कोर्ट 20 वर्ष भी लगा देता है तो त्वरित होने की बात स्वत: ही खत्म हो जाती है और मुफ्त न्याय की बात तो मजाक ही लगती है, क्योंकि न्यायलयों पर बाजार बुरी तरह से हावी है। न्यायलय परिसर में घुसते ही वकीलों और दलालों की जो लूट-खसोट मचती है, उसकी अपेक्षा तो कभी-कभी चोर और डाकू भी ज्यादा मानवीय लगते हैं।
भारतीय कार्यपद्घति अंग्रेजों की देन, कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली, बोल-चाल सब में अंग्रेजियत। यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी में आवाज उठने लगी है कि आमूलचूल परिवर्तन की। वह भी हर कदम पर। चाहे कार्यपालिका हो, विधायिका हो अथवा न्यायपालिका। तभी तो उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति के।जी. बालाकृष्णन को भी कहना पड़ता है कि न्याय में देरी होने से बगावत हो सकती है । जानकारों की रायशुमारी में न्याय में देरी होने का मुख्य कारण अभियोजन पक्ष होता है जिसके ऊपर पूरा नियंत्रण राज्य का होता है । राज्य की ही अगर दुर्दशा है तो न्याय और अन्याय में कोई अंतर नहीं रह जाता है । आज अधिकांश थानों का सामान्य खर्चा व उनका सरकारी कामकाज अपराधियों के पैसों से चलता है । उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारियों व करमचारियों का भी एक लम्बा अपराधिक इतिहास है कैसे निष्पक्ष विवेचना हो सकती है और लोगो को इन अपराधिक इतिहास रखने वाले अपराधियों से न्याय कैसे न्याय मिल सकता है ?
हालिया घटनाक्रम में छेड़छाड़ के दोषी हरियाणा के पूर्व पुलिस प्रमुख एसपीएस राठौर को मिले अभूतपूर्व संरक्षण का सच उजागर होने के बाद केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार भी सक्रियता दिखा रही है तो सिर्फ इस कारण कि इस शर्मनाक मामले में मीडिया देश को उद्वेलित करने में सफल रहा। यह लगभग तय है कि यदि टेनिस खिलाड़ी रुचिका के साथ छेडख़ानी करने और फिर उसके परिवार का जीना हराम कर देने वाले राठौर को सजा के नाम पर एक तरह का पुरस्कार मिलने पर चारों ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती तो कहीं कुछ होने वाला नहीं था। हालांकि यह कहना कठिन है कि आखिर इसके पहले हरियाणा के प्रशासनिक अथवा न्यायिक तंत्र ने इसकी सुधि क्यों नहीं ली कि एक परिवार 19 साल से न्याय के लिए भटक रहा है? हरियाणा की एक के बाद एक सरकारों ने जिस तरह राठौर की सहायता की उससे इस आम धारणा की पुष्टि ही होती है कि मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार और अनैतिकता को कदम-कदम पर संरक्षण मिलता है।
गौर किया जाए तो यह केवल एक रूचिका प्रकरण में ही नहीं हुआ है। स्वतंत्र भारत में कई ऐसे मामले हुए हैं जिनकी न्यायिक और जांच आयोगों की कार्रवाइयां वर्षों हुई हैं। और जब बात परिणाम की आती है तो वही ढाक के तीन पात। चर्चित बोफोर्स कांड जिसमें तथाकथित रूप से 64 करोड़ रुपए की दलाली की बात उठी थी, उस पर वर्षों जांच होती रही और जांच के नाम पर 250 करोड़ रुपए से अधिक की राशि बर्बाद कर दी गई। लेकिन, नतीजा रहा सिफर। ऐसे में आम जनता के मन में यही सवाल उठता है कि इससे अच्छा होता कि इस मामले को लेकर जांच ही नहीं की जाती है। बोफोर्स कांड ने नेता, सरकार और भ्रष्टाचारियों को साहस दिया है कि तुम दलाली खाते-फैलाते रहो, हम तुम्हारे साथ हैं। इसी का परिणाम है कि कभी एस।पी.एस. राठौर तो कभी आर.के. शर्मा, नागराजन सरीखें नौकरशाहों का नाम चर्चा में आता है। इनके साथ अमरमणि त्रिपाठी, मनु शर्मा, संतोष यादव जैसे भी आते हैं। तो न्यायपालिका के नुमाइंदे सौमित्र सेन और दिनाकरन भी सामने आते हैं। देश में न जाने कितने राठौर ऐसे हैं जिन्हें अपने दुष्कृत्यों के लिए छह माह तो क्या छह मिनट की भी सजा नहीं मिली। इसी प्रकार रुचिका की तरह न जाने कितनी युवतियां और परिवार ऐसे हैं जिनकी पीड़ा से कोई अवगत तक नहीं हो सका।
ये तो हुई कुछ व्यक्तिगत मामले, जिनमें व्यक्ति विशेष के खिलाफ ही कार्रवाई की बात है। सामूहिक मामले, भोपाल गैस त्रासदी को हुए 25 वर्ष हुए, जांच आयोगों बैठी, और नतीजा? इसी प्रकार 17 वर्ष व्यतीत करने के बाद भी अयोघ्या की सरजमीं पर जांच आयोग के मुखिया न्यायधीश लिब्राहन ने कदम तक नहीं रखा और सैकड़ों पृष्ठ की रिपोर्ट तैयार कर दी। आखिर रिपोर्ट का नतीजा क्या आया? कुछ तो नहीं। महज खानपूर्ति ही तो हुई । इसलिए यह सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है कि ऐसे आयोगों का क्या उपयोग है? इस सवाल को और ज्यादा गंभीरता से उठाया जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में और भी कई महत्वपूर्ण आयोग और उनकी रिपोर्टे अधर में लटकी हुई हैं। उन पर या तो कोई कार्रवाई हो ही नहीं रही और अगर हो रही है तो उसकी गति बहुत धीमी है। गोपाल सिंह आयोग, रंगनाथ मिश्र आयोग और बेशक सच्चर आयोग की बात करें तो इनमें से बहुत से आयोगों ने ऐसी गंभीर समस्याओं की ओर हमारा ध्यान खींचा, जो देश को पतन की ओर ले जा रही हैं। एक ओर जहां गोपाल सिंह और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टो को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, वहीं सच्चर कमेटी पर प्रधानमंत्री के पंद्रह सूत्रीय कार्यक्रम की अभी शुरुआत भी नहीं हो पाई है। इसलिए स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ खड़ा होता है कि जांच आयोग क्यों होने चाहिए? हमने अनगिनत मुद्दों के लिए ढेर सारे आयोगों को बनते देखा है।
दिल्ली में सरकारी विद्यालय में शिक्षक डा। राकेश कुमार कहते हैं कि इस देश में आयोगों के गठन का कोई औचित्य ही नहीं है। देश में जब भी कोई हादसा होता है, जांच आयोग बिठा दिया जाता है। जांच आयोग के निहितार्थ यही हैं, एक सरकारी संस्था जो शक्ति-अधिकार विहीन है, यह किसी अपराधी को पेशी के लिए मजबूर नहीं कर सकता। इसकी रिपोर्ट और इसके समक्ष दिए बयानों का कोई महत्व नहीं होता। यह आयोग सजा नहीं दे सकता। तब खुद ही निर्णय करें इसका औचित्य क्या है? इसकी प्रभावहीनता पर प्रश्नचिह्न् लगे हैं। वह सवालिया लहजे में यह भी कहते हैं कि आखिर आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा। मेजर उन्नीकृष्णन के पिता का आक्रोश करना उचित है, क्योंकि यह आक्रोश चरमराई व्यवस्था की ओर था। क्योंकि हर कोई सोचता है कि हमारे शहीद बेटे ने तो देश के लिए लड़ाई लड़ी। अब उसके जाने के बाद अब उनको लड़ाई लडऩी पड़ रही है वो भी व्यवस्था के प्रति। आखिर कब तक हमको इस तरह की व्यवस्थाओं से जूझना पड़ेगा। कब इस देश के लिए कुर्बानी देने वाले के माता-पिता गर्व करना महसूस करेंगे।
भारतीय शासन की परंपरा रही है कि राजकीय हिंसा का विरोध करने वाली शक्तियों की सबसे प्रमुख मांग जांच के लिए समितियां अथवा आयोग का गठन करने की रही है। सरकार किसी भी प्रकार के हिंसा अथवा भ्रष्टïाचार के विरूद्घ खड़ी शक्तियों की व्यापकता को भंग करने तथा प्रतिमरोध में बिखराव डालने के लिए इस मांग को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। अमूमन कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट नंबर साठ ऑफ 1952 के तहत कुछेक बड़ी घटनाओं को लेकर आयोगों का गठन किया जाता है। आयोगों के लिए नियुक्त किए जाने वाले न्यायधीशों के लिए कोई मापदण्ड नहीं है। प्रतिरोध झेल रही है सरकारें ही स्वयं तय करती हैं और न्यायधीशों की नियुक्ति हो जाती है। दिलचस्प बात यह भी है कि सरकारें आयोग के गठन की पहली सूचना जब प्रकाशित करती है तभी हिंसा के शिकार लोगों को 'उपद्रवीÓ 'हिंसा पर उतारूÓ जैसे शब्दों से विभूषित कर देती है। यह भी ध्यान रहे कि राज्य ढांचे की एक महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका के ही न्यायाधीश नुमांइदेे होते हैं, जिन्हें राज्य ढंाचे की सुरक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, राज्य ढांचे के दूसरे महत्वपूर्ण स्तंभ कार्यपालिकों के नुमाइंदे की कार्रवाई की जांच करनी होती है। यह भी बात है कि न्यायापालिका की जांच एजेंसी भी कार्यपालिका ही है।
इतिहास साक्षी है कि कालेलकर आयोग (1955) ने दलित समुदाय की जरूरतों के मद्देनजर बहुत ऐतिहासिक काम किया, लेकिन उसका क्रियान्वयन ढेर सारे पैबंदों से भरा और निष्प्रभावी था। 1977 में जनता सरकार ने मंडल आयोग का गठन किया था। 1990 तक इस आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही। फिर वीपी सिंह ने इस आयोग की रिपोर्ट पर कार्रवाई की और इसने हिंदुस्तानी सियासत की शतरंज की बिसात ही बदल दी। इन जांच आयोगों के परिणाम दलितों और निचली जातियों के लिए बहुत सकारात्मक रहे। इसके अलावा जगमोहन रेड्डी (1969, अहमदाबाद), जस्टिस मेडोन आयोग (भिवंडी, मालेगांव 1970), नानावटी आयोग (1984 के सिख विरोधी दंगों के संबंध में), जस्टिस श्रीकृष्ण आयोग (1992-93 के मुंबई दंगे) और बनर्जी आयोग (2002, गोधरा ट्रेन कांड)। नानावटी शाह आयोग को गुजरात दंगों के संबंधी रिपोर्ट को लेकर भी मामला निपटा नहीं है। इनमें एक समानता यह भी है कि उन सभी की संस्तुतियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई और अमूमन दोषियों को कोई सजा नहीं दी गई।
दरअसल, जांच आयोग गठित करने की परंपरा खासी पुरानी है। 1952 में लोकसभा ने बाकायदा जांच आयोग अआिँानियम को पारित कर इसे कानूनी जामा पहनाने का काम किया था। सबसे पहला आयोग कांग्रेसी नेता और तंत्कालीन वित्तमंत्री कृष्णमचारी की राजनीतिक बलि का कारण बना। कृष्णमचारी की गिनती नेहरू के प्रिय सहयोगियों में की जाती थी। हरीदास मूंदड़ा नाम के एक उद्योगपति के साथ कृष्णमचारी की निकटता के चलते सरकार को 166 करोड़ की चपत लगी। भारी हंगामा मचा तो सरकार ने 1957 में एक जांच आयोग गठित कर डाला। चूंकि तब तक भारतीय राजनीति में नैतिकता का पूरी तरह ह्वास नहीं हुआ था और राजनेताओं ने भी लोकलाज का सार्वजनिक रूप से त्याग नहीं किया था इसलिए इस जांच आयोग की रिपोर्ट को आधार बना मूंदड़ा पर कानूनी कार्रवाई हुई और कृष्णमचारी को पद त्यागना पड़ा। लेकिन यह शुरुआती दौर की बात थी। धीरे-धीरे इन आयोगों का गठन अपराधियों को बचाने के लिए किया जाने लगा।
आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर रह चुके राम पुनियानी भी कहते हैं कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाई इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन, मुंबई दंगों की जांच के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गांधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंगनाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं, जो 1952 के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायदा नहीं हुआ। सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट 1952 के आधार पर बने आयोग के नतीजों पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर।सी. लाहोटी ने तो यहां तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्त्व नहीं होता। किसी भी जज को 1952 के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं। उनका कहना है कि अगर इन आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है, तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए। कुदाल कमीशन के आला जांच अधिकारी रह चुके और पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश ग्रहण कर चुके जनार्दन सिंह का कहना है कि किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार-बार इस्तेमाल कर चुकी हैं।
काबिलेगौर है कि 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों ने अकेले दिल्ली में सैकड़ों निर्दोषों की जान ले ली। सभी जानते हैं कि कांग्रेसी नेताओं के इशारे पर यह दंगा आयोजित किया गया और दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही। इस प्रकरण को लेकर लंबे अर्से तक जमकर राजनीति हुई, आज भी होती है। कई जांच आयोग बनाए गए लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि नरसंहार के लिए खुले तौर पर आरोपी ठहराए गए कांग्रेसी नेताओं को पार्टी का टिकट दिया जाता रहा और वह चुनाव जीत कर सांसद और मंत्री भी बने। लेकिन सजा किसी को नहीं हुई। पच्चीस साल बीत गए हैं लेकिन सिख विरोधी दंगों के आरोपियों पर ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी। इन दंगों में दिल्ली पुलिस की सवालिया भूमिका को लेकर जब मामला गरमाने लगा तो एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था। कपूर-मित्तल कमेटी ने दिल्ली पुलिस के 72 पुलिसकर्मियों को दंगों में सीधे लिप्त होने का दोषी माना था और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अनुशंसा की थी, पर हुआ कुछ नहीं। राजीव गांधी की सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग बनाया। बाद में एनडीए सरकार ने नानावती आयोग गठित किया। दोनों ही आयोगों ने इन दंगों की जांच की, रिपोर्ट भी दी लेकिन नतीजा सिफर। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की भूमिका को लेकर सवाल उठे थे। इन सवालों के जवाब तलाशने का काम एक जांच आयोग को सौंपा गया। जैन आयोग ने क्या किया यह कोई नहीं जानता।
बहरहाल, शासक आयोग के अलावा राजकीय हिंसा की बहुतेरी घटनाओं की अन्य माध्यमों से भी जांच कराने का ढोंग करता है। एक माध्यम में उच्चाधिकारी की एक सदस्यीय अथवा एक से ज्यादा सदस्यीय टीम को घटनास्थल पर भेजा जाता है। अपने मातहत रहने वाले अधिकारियों की कार्रवाईयों के बारे में जांच करने के लिए जाने वाली ये टीमें स्वभावत: अधिकांश घटनाओं को न्यायोचित ठहराती है।जांच की इस पद्घति में जब किसी विरोधाभास के कारण कोई प्रतिकूल निष्कर्ष आ जाता है तब उसकी फाइलें धूल चाटने के लिए छोड़ दी जाती है। गोपनीयता जैसे गूढ़ शब्दों के जाल में फंसाकार ऐसी रपटों पर सख्त पहरा बैठा दिया जाता है। कभी-कभार प्रतिकूल रिपोर्ट आने पर सरकारें कार्रवाई भी करती है। वह भी महज एक औपचारिकता पूरी करने की कार्रवाई।
इसे राजनीतिक विद्रूपता कहा जाए अथवा लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विडंबना कि देश की राजधानी नई दिल्ली हो अथवा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु तक यही हालात हैं। राज्यों में अपने प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगाने के उद्देश्य से आयोगों का गठन एक चलन सा बन गया है। इन आयोगों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। कई बार तात्कालिक आक्रोश को दबाने के लिए भी आयोग बना पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराने का आश्वासन दे सरकारें अपने दायित्व से मुक्ति पा लेती हैं।

1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

कानून व्‍यवस्‍था ठीक रहे .. भ्रष्‍टाचार बंद हो .. तो इन आयोगों के गठन की आवश्‍यकता ही नहीं .. और यदि कानून व्‍यवस्‍था ठीक न हो .. देश में भ्रष्‍टाचार चरम सीमा पर हो .. तो इन आयोगों के गठन का भी क्‍या फायदा ?