सोमवार, 25 जनवरी 2010

ये तो प्रभाषवाद ही है

वाल्मीकि रचित रामायाण और तुलसी के रामचरितमानस में 'राम राज्य Ó और 'मर्यादापुरूषोत्तम रामÓ का बखान किया गया। राम राज्य आएगा, लोग कहते आ रहे हैं, लेकिन कब, कोई नहीं जानता। उसी प्रकार आज की वह पीढ़ी जो पत्रकारिता में आई है, विशेषकर हिंदी पत्रकारिता में उसके लिए पत्रकारिता का स्वणर्र््िाम युग कभी था, केवल सुनने-सुनाने की बात है। आज जब हर क्रिया-कलाप बाजार से निर्धारित होता है, वैसे में भला पत्रकारिता कैसे अपने चाल-चरित्र को अक्षुण्ण रख सकती है।
ऐसे ही कई सवाल हैं, जिससे आज का हर युवा पत्रकार और इस क्षेत्र में आ रहे लोगों का वास्ता पड़ता है। कोई जबाव नहीं देना चाहता। संभवत: आज के अधिकांश संपादकों के पास इसका जबाव नहीं। संकट की इस घड़ी में प्रभाष जोशी का नाम जेहन में उभरता है। हर उस पत्रकार के जेहन में जो उनसे प्रत्यक्षरूप से मिला है और जो नहीं मिला , उसके भी जेहन में। मुझ से हजारों पत्रकार जो दिल्ली सहित देश के अन्यान्य हिस्सों में काम कर रहे हैं, शायद प्रभाष जोशी से नहीं मिल पाए हैं। सबके अपने-अपने कारण हैं। मगर, प्रभाष जी के मरने के बाद जिस प्रकार से हिंदी मीडिया में उन पर लेख छापे गए। सभा-संगोष्ठि आयोजित किए गए, काफी कुछ समझने-बूझने का मौका मिला। प्रभाष जी को जान पाया और उनके समय को भी। ।
इसके बीच जेहन में यह सवाल उठता है कि हमारी पीढ़ी जो अभी नई पौध है, या इसे नवांकुर कह लीजिए, के लिए प्रभाष जोशी के क्या मायने हैं। मैंने प्रभाष जोशी को प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं देखा। उनसे कभी नहीं मिला। हिंदी पत्राकारिता और उसके सरोकारों के लिए उन्होंने जो किया या नहीं किया उसके बारे में मेरी जानकारी शायद उतनी ही है जितनी एक आम इनसान की। कुछ लोग उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा के मानते हैं। ऐसा कई जगहों पर सुना है। मुझे कम्युनिस्टों से न प्रेम है, न घृणा। मैंने कम्युनिस्ट साहित्य ज्यादा नहीं पढ़ा, खुद कम्युनिस्ट विचारधारा का नहीं रहा। लेकिन एक मामले में मैं कम्युनिस्टों का कायल हूं और वह है सादगी, साधारण तरीके से रहने और जीने की विलक्षण क्षमता। बंगाल के मुख्यमंत्री बु्द्धदेव भट्टाचार्य अभी भी डेढ़ कमरे के घर में रहते हैं। एक दिन दिल्ली में सीपीआई के मुख्यालय अजय भवन गया जहां ए ।बी. बर्धन बैठे खाना खा रहे थे। कैंटीन में, आम लोगों की तरह दाल, चावल, सब्जी और रोटी। एक दिन अखबार में छपी तस्वीर देखी, सोमनाथ चटर्जी किसी गांव में घूम रहे थे। एक पार्टी कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर। इस उम्र में तमाम दूसरे नेता जेनुइन लेदर की मुलायम गद्दी वाली शानदार कार में घूमते हों, यह अचंभा ही तो है! सच में ऐसे लोग बिरले होते हैं।
अब, जबकि वह सशरीर नहीं हैं, उनके लेखों और उनके संबंध में लिखे लेखों को पढ़कर उन्हें समझने की कोशिश कर रहा है। उसी क्रम में जान पाया कि जब बाबरी मस्जिद गिराई गई, उसके बाद भाजपा और संघ परिवार पर उन्होंने जितना लिखा और खुल कर लिखा, बहुत कम लोगों ने लिखा। और, संघ पर उन्होंने काफी काम भी किया हुआ था और काफी पढ़ाई भी की हुई थी। वीर सावरकर और संघ परिवार के बीच किस तरह के वैचारिक मतभेद थे, उसपर खुल कर लिखा। उन्हें पढ़ा तो उनकी गहराइयों का पता चला। जीवन के अंतिम काल में उन्होंने इस विषय पर खूब लिखा कि चुनावों के दौरान समाचार पत्रों की किस तरह की भूमिका रही। चुनाव के दिनों में पैसा लेकर खबरों को छापा गया। हाल के दिनों में उन्होनें जो काम किया, वो एक तरह से पब्लिक इंटेलेक्चुअल की तरह उनकी भूमिका थी। वो चीज, जो लोगो के मन में आ रही है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में रखना और अपनी बात कहना, ये उनकी खासियत थी। शायद उन जैसे कलमकारों के वश में ही।
प्रभाष जोशी को पढऩे के क्रम में ही एक लेख मिला, इंटरनेट पर। जिसमें प्रभाष जी के हवाले से कहा गया था कि सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता। दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन हंै या चेयरमेन इंडियन हैं या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है। क्यों क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है। क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है। तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारीरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं। यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं। सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते। ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं। इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ। आईटी में वो इतने सफल हुए।
जाहिरतौर पर यह ब्राह्मïणवाद माना गया। ब्राह्मण के शक्तियों को बताया गया। यह वक्तव्य प्रभाष जी की ओर से उस समय दिया गया जब राज्यसभा के लिए राष्ट्रपति की तरफ से मनोनित लोगों की सूची जारी होने वाले थी। कदाचित उस सूची में प्रभाष जोशी का नाम भी होता? लेकिन, उन्होंने ब्राह्मïण का विराट रूप दिखाया। उसके सरोकारों का स्मरण कराया। वर्तमान में कोई पत्रकार शायद यह नहीं करेगा और न ही उसके वश में होगा? कुर्सी पर सबकी नजर होती है और वह भी देश की सबसे बड़े पंचायत की तो क्या कहने...
बहुत सारे सभा-संगोष्ठी में मीडिया के चाल-चरित्र पर बहस-मुबाहिसे होते हैं। कोई मीडिया के वर्तमान को लेकर सशंकित है तो कोई मीडियाकर्मी को लेकर। कहा तो यह भी जा रहा है कि जब मानव के तमाम क्रियाकलापों पर बाजार की नजर है और बाजार ही तय कर रहा है कि हमारा अगला कदम क्या हो, तो भला उसमें मीडिया की शुचिता और सरोकार कहाँ तक टिक पाएगी। ऐसे में प्रभाष जी राह दिखाते नजर आते हैं। सच तो यही है कि आज की वर्तमान पीढ़ी महात्मा गाँधी से नहीं मिली है, लेकिन गाँधी के बारे में जानती है और मानती है कि गाँधी के बगैर हिंदुस्तान नहीं चल सकता। सबके निहितार्थ अलग-अलग हैं। प्रभाष जी के लिए भी गाँधी का अर्थ उनकी कर्मठता और जीवन दर्शन में रहा। कहीं पढ़ा था, उनका वक्तव्य जिसमें उन्होंने गाँधी जी के एक तसवीर को उद्घृत करते हुए कहा था, 'इस तस्वीर की खास बात है, गाँधीजी बाएँ हाथ से लिख रहे हैं। यह रेयर तस्वीर है। गाँधी संग्रहालय से निकलवाकर इसे बनवाया है। गाँधीजी जब दाएँ हाथ से लिखते-लिखते थक जाते थे तो वे खुद को आराम देने की बजाय बाएँ हाथ से लिखते थे और बाएँ हाथ से उसी सहजता और प्रवाह से लिखते थे जितना कि दाएँ हाथ से। तो ये होती है आदमी में काम करने की लगन।Ó प्रभाषजी ने भी कर्मठ का गाँधीजी से सीखी थी।

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