गुरुवार, 7 जनवरी 2010

वैधव्य की त्रासदी

कहा जाता है अभी भी पूर्णिमा की रात को वृन्दावन के जंगल में कृष्ण का महारास होता है। जो उसे देखने की कोशिश करता है वह जिंदा वापस नहीं आता है ...संभव है यह लक्षणा हो। कदाचित वृन्दावन की विधवाओं के संदर्भ में। यहां के विधवाश्रम में भी जो एक बार आ जाए, उसे किसी रूप में अपना अस्तित्व नहीं मिलता।
लीलाधरी श्रीकृष्ण की लीला नगरी वृंदावन के रास्ते आज भी बिल्कुल कुञ्ज गली कहलाने के लायक ही है । संकरी गलियों में से होकर गुजरने से जेहन में सवाल आता है कि यहाँ पर बांसुरी की धुन पर गोपियाँ कैसे दौड़ी होगी ! कैसे रासलीला करते होंगे कृष्ण !!! कहा जाता है अभी भी पूर्णिमा की रात को वृन्दावन के जंगल में कृष्ण का महारास होता है। जो उसे देखने की कोशिश करता है वह जिंदा वापस नहीं आता है ...संभव है यह लक्षणा हो। कदाचित वृन्दावन की विधवाओं के संदर्भ में। यहां के विधवाश्रम में भी जो एक बार आ जाए, उसे किसी रूप में अपना अस्तित्व नहीं मिलता।
रस्ते में एक विधवा आश्रम भी आया । यहाँ निराधार 2000 विधवाओं का पालन पोषण किया जाता है। उन्हें प्रात: थोड़ा काम करके पूरे दिन भक्ति में बिताना होता है । इसे विधवाओं की मजबूरी अथवा नित्यक्रिया का नाम दिया जा सकता है।
वृन्दावन और मथुरा में 8 गौशाला हैं मन्दिर की आय से जिन्हें चलाया जाता है और जहाँ तकऱीबन 5000 गाय रहती हैं । ये गाय वो हैं जिनको उनके 'मालिकोंÓ ने घरों से इसलिए निकल दिया क्योंकि या तो इन गायों का दूध सुख गया था या फिर किसी वजह से ये अपंग हो गयी थी । इन्हें कसाई को नहीं बेचा जाता हैं और मरने का बाद इनको जमीन में 1 किलो नमक के साथ गाड़ दिया जाता हैं । वृन्दावन और मथुरा में जहाँ तकऱीबन 5000 विधवा और अपंग स्त्रियाँ मंदिरों में रहती हैं । मन्दिर की आय से इनको 10 रुपए रोज और आधा किलो चावल मिलते हैं । ये कथन हैं एक गाइड का जो मथुरा-वृन्दावन में मिला ।
सच तो यही है कि मंदिरों के भीतर भगवान की प्रतिमाओं का सौन्दर्य, पंडों की सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े विभाजित सिकुड़ते दृश्यों में बंधा दर्शन मन में किसी भक्ति भावना को नहीं उकसाता। कोई आनन्द फलित नहीं होता वहां की धरती पर, कुछ भी नहीं। उत्साह के स्थान पर सहस्र आँखों का रुदन, दु:खी सताई हुई विधवाओं का हृदयविदारक क्रन्दन तीर्थों के भक्ति संगीत को लील गया है। वहाँ के विधवा-आश्रमों में जो बड़े-बड़े शहरों के रईसों, साहूकारों ने बनवाये हैं बारह घंटे जाप चलता है। नरकंकाल जैसी भूखी बीमार, बेसहारा वह विधवाएं जैसे अपने जन्म लेने की एक सजा भुगत रही हैं। कालकोठरी जैसे अंधेरे में डूबे उन आश्रमों में उनकी चेतना का रुपान्तरण यांत्रिक या मैकेनिकल ढंग से किया जाता है, उन विधवाओं का जाप जैसे कील पर पड़ता हथौड़ा-जिसे आश्रम के नियम ठोंक-ठोंक कर बैठाना चाह रहे हैं। यह आश्रम विधवाओं को मनुष्यत्व की योनि, उसके प्राकृतिक स्वरुप से निकाल कर उन्हें एक परतन्त्र ईकाई में बदल रहे हैं। जहाँ वह अपनी सभी क्षमताएं, संवेदनाएं खोकर एक अपाहिज की तरह कोई भी काम करने के लिए मजबूर है। उन्हें कुछ भी करना पड़ता है। बताया तो यह भी गया कि छ: घंटों के जाप के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति भीख या उससे भी गिरे हुए कार्य जो आश्रम की अध्यक्षा की इच्छा या घृणा पर आधारित होते हैं। लेकिन, इन घृणित कार्यों का प्रमाण कौन देगा? सवाल अहम है।
वृन्दावन की गलियों, सड़कों मंदिरों और आश्रमों के गलियारों में पैदल चल-चल कर वहाँ की वास्तविकता से धीरे-धीरे साक्षात्कार होता गया। बहुत सी स्त्रियों से जो मंदिर में जाप कर रही थीं या सड़क के किनारे बैठी भीख माँग रही थीं बातचीत की, जानना चाहा उनकी अपनी सत्ता और स्वायत्तता, उनके जीवन का सच क्या था ? क्या हो गया है ? उनके दु:ख शारीरिक कष्ट उनकी व्याकुल प्रश्नाकुलता ने भीतर तक सिहरा दिया है।
अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी सरिता अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, 'आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा ?Ó लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। सरिता बक्सर जिले के रहने वाली हैं। 16 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र दो साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई सरिता से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और सरिता के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मायके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। और, वर्तमान में वह वृन्दावन में वैधव्य की त्रासदी झेल रही है। कोटा से वृदांवन घूमने आई विधवा, जिसका नाम राधिका था, ने बताया कि रोजी-रोटी के लिए घर से बाहर निकलो तो लोग फब्तियाँ कसते हैं। कई बार मरने की इच्छा होती लेकिन छोटे बच्चे की तरफ देखती हूँ तो कदम थम जाते हैं। सवाल यह भी है कि इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं हैं। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी ? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चौखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।
समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी में कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती हैं। महिला सशक्तिकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही हैं। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह हाल केवल और केवल वृंदावन की ही है। अमूमन देश के भीतर जितने भी तीर्थ स्थान हैं, जहाँ लोगों की आवाजाही अधिक है, वहां विधवाश्रमों का अस्तित्व है। सच तो यह भी है कि भारत और चीन विश्व के उन देशों में शामिल हैं, जहां बहुत से लोग यह मानते हैं कि उनके देश में विधवाओं के साथ भेदभाव और तलाकशुदा महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। गत दिनों वल्र्ड पब्लिक ओपिनियन डाट ओआरजी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत और चीन सहित दुनिया के 17 देश ऐसे हैं, जहां के लोग इसी तरह का विचार रखते हैं। इन देशों के 28 प्रतिशत लोगों ने यह कहा कि उनके देशों में विधवाओं से कोई भेदभाव नहीं किया जाता है, जबकि 20 प्रतिशत लोगों ने यह कहा कि उनके देशों में विधवाओं के साथ थोड़ा बहुत भेदभाव किया जाता है। सर्वेक्षण में शामिल 18 प्रतिशत लोगों ने कहा कि विधवा महिलाओं के शोषण का स्तर काफी बढ़ रहा है। तलाकशुदा महिलाओं के बारे में 28 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके खिलाफ कोई भेदभाव नहीं होता, जबकि 21 प्रतिशत ने कहा कि तलाकशुदा महिलाएं कहीं न कहीं थोड़ी बहुत भेदभाव की शिकार होती हैं। 18 प्रतिशत लोगों ने कहा कि तलाकशुदा महिलाएं बड़े पैमाने पर शोषण की शिकार हो रही हैं। सिर्फ दो देशों में अधिकतर लोगों ने कहा कि विधवाओं से कोई भेदभाव नहीं किया जाता है, जबकि एक देश के अधिकतर लोगों के अनुसार तलाकशुदा महिलाएं किसी भेदभाव की शिकार नहीं हैं। छह देशों में लोगों के एक बड़े तबके का यह मानना है कि विधवाओं के साथ किसी न किसी रूप में थोड़ा बहुत भेदभाव किया जाता है। इस तरह की राय रखने वालों में दक्षिण कोरिया 81 प्रतिशत, तुर्की 70 प्रतिशत, फलस्तीनी 61 प्रतिशत, नाइजीरिया 58 प्रतिशत और चीन 54 प्रतिशत शामिल हैं। भारत में 35 से 42 प्रतिशत लोगों का यह मानना है कि विधवाओं के साथ बुरा बर्ताव किया जाता है। चीन में 54 प्रतिशत लोग विधवाओं के साथ दुव्र्ययवहार की बात मानते हैं, जबकि वहां के 46 प्रतिशत लोगों का कहना है कि तलाकशुदा महिलाएं बुरे बर्ताव की शिकार होती हैं। इन आंकड़ों से यह तो समझ जा सकता है कि देश में करोड़ों औरतें अकेले जी रही हैं, किन्तु उनकी मुसीबतों का अंदाज अकेले आंकड़ों के आईने से लगाना असंभव है। एकल महिला अमीर हो या गरीब, मुसीबत मरते दम तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। विधवा होना तो हमारे समाज में अभिशाप है ही, किन्तु पति या ससुराल के अत्याचारों से तंग आकर अलग रह रही स्त्री को भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। घर चाहे पति का हो या पिता का, अकेली औरत को आसरा देने का इच्छुक कोई नहीं होता। सामाजिक और धार्मिक बंधनों की बेडिय़ां डालकर उसे काबू में रखने की कोशिश की जती है। अकेली महिलाओं की संपत्ति, बच्चों और यौन इच्छा को घर-बाहर के पुरुष अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं। ऐसी महिलाओं को कानून का भी पर्याप्त सहारा नहीं मिल पाता। नतीज यह होता है कि उन्हें ताउम्र किसी न किसी के इशारों पर नाचना पड़ता है।
सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है ? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता जस्टिस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी। आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2।5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं । इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताडऩा से परेशान हैं। ऐसी परिस्थितियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी।

4 टिप्‍पणियां:

करण समस्तीपुरी ने कहा…

उफ़........ ! पठनोपारांत विचलित मन से यही स्वर फूट रहे हैं, "संकट में है आज वो धरती जिस पर तूने जनम लिया..... !!"

eklavya ने कहा…

बंधू यह बेसहारा विधावाए उन देवदासियों से जुदा नहीं है जिनका धर्म के नाम पर शोषण होता है . बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है लेकिन देखना ये है की कितने लोग इस पर ध्यान देते है

L.R.Gandhi ने कहा…

सरकार जितना धन ,कसब कि सुरक्षा, जेहादिओं कि पाठशालाओं और हाजिओं को अनुदान पर खर्च रही है , उस से आधे में इन बेसहारा औरतों का उद्दार हो सकता है।
ये विधवा आश्रम हिन्दू समाज में वियाप्त कुरीतिओं का परिणाम है । इनके विरुद्ध पत्रकार बिरादरी को आपकी तरह ही आवाज़ बुलंद करनी चाहिए .

शोभना चौरे ने कहा…

मानव सभ्यता का मुखोटा उतारता मर्मस्पर्शी आलेख |
बरसो से सुन रखा था मथुरा वन्दावन का सुन्दर चरित्र पिछले बरस वहा जाने का अवसर प्राप्त हुआ था कितु जिस अनुभूति कि अपेक्षा कि थी वो महसूस नहीं कर पाई वहां? और मन वहां कि इन्ही गलियों में भटक गया था |