सोमवार, 10 अगस्त 2009

क्यों न हो टेलिविजन चैनल के लिए भी सेंसर बोर्ड?

टेलिविजन चैनलों के कई कार्यक्रम अब काफी बोल्ड हो गये हैं। ऐस लगता है कि अब इनमें ’वे-वाॅच’ और ’बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ जैसे विदेशी कार्यक्रमों को पीछे छोडने की होड़ लग गई है। ’कौन बनेगा करोड़पति’ से लेकर सच का सामना तक अधिकांश चर्चित रिएल्टी शो विदेशी सिरिमलों के नकल पर भी आधारित है। बहुत पहले अपराधी के तह तक पहुंचने का दावा करनेवाली ’इंडियाज मोस्ट वाॅटेड’ भी ’अमेरिकाज मोस्ट वांटेड’ से ही प्रभावित थी। चूंकि भारतीय संस् कृति और सभ्यता पर प्रश्न उठाने वाले निर्माता निर्देशक पश्चिमी कार्यक्रमों का सीधा नकल करने की ही प्रगतिशीलता और प्रयोग मानने लगे है, इसलिए उनकी नज़र में भारतीय समाज भी पश्चिमी जगत की तहर खुला और बिंदास दिखने लगा है। ’रोडीज’ के रघुराम कहते हैं कि “वे कौन लोग हैं? जो सभ्यता और संस्कृति जैसी दकियानूसी बातें करते हैं? क्या उनकी सभ्यता और संस्कृति इतनी कमजोर है कि एक फिल्म या टीवी कार्यक्रम से बिखर जाय?” वे आगे कहते है, ’देश में दो समाज एक साथ रहते है, एक भारतीय दूसरा इंडियन। हम इंडियन समाज के कार्यक्रम बनाते हैं उनका यह भी कहना है कि दकियानुसी भारतीय समाज के लोग ने इंडियन कल्चर वाला कार्यक्रम देखते ही क्यों हैं? उनकस समर्थन फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट से लेकर ’मुझे इस जंगल से बचाओ’ और ’सच का सामना’ के समर्थक भी करते हैं। अब इस ’इंडियन कल्चर’ के हिमायती भारतीयों को यह भी मान लेना चाहिए कि उनके दिमागमें कचरा भरा है और वे मौलिक कल्पनाशीलता और सृजन के काबिल ही नहीं रह गये हैं। इसलिए विदेशी कार्यक्रमों का अंधानुकरण करने को ही प्रयोगधार्मिता मान चुके हैं। जिस ’इडिसन कल्चर’ के युवाओं के लिए वे गाली-गलौज और मर्यादित अशालीन और अभद्र भाषा और दृश्यों का इस्तेमाल करते है, वे सिवाय अभद्रता और गालियों के नया सीखते ही, क्या है इन कार्यक्रमों से। यहां तक कि सच का सामना के संचालन राजीव खंडेलवाल की मां लक्ष्मी खंडेलवाल भी जानती है कि यह कार्यक्रम बच्चों के साथ देखने लायक नहीं है। ग्यारहवीं का छात्रा अर्चना कहती है कि ’रेडीज में जब रघुराम गाली देता है तो उसे सुनने में काफी मजा आता है। अब वे हमारे स्कल के बच्चे भी उन गालियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। उसी के क्लास की रूचिका कहती है कि संवाद के बीच में जहां पी बजता है, वहां गालियां होती है और उसे सीखने के लिए ध्यान से सुनना पड़ता है। अब स्कूलों से बच्चे दूसरे को गाली देने के लिए पी का इस्तेमाल करते हैं। छोटी गाली के लिए छोटी पीं और बड़ी गाली के लिए बड़ा पीं पीं... बच्चे बोलने लगे हैं। सुन रहे हैं रघुराम जी क्या सीखा रहे हैं आप इंडियन कल्चर के बच्चों को। कैमरे से सामने बिकनी में नहाने से लेकर इस ’पीं’ का इस्तेमाल धड़ल्ले से ’मुझे इस जंगल से बचाओ’ मंे भी होता है।
’सच का सामना’ अपनी फूहड़ता के लिए कई परिवारों को तोड़ने का सबब बनने की राह पर है। ऐसा में सवाल उठता है कि क्या टेलिविजन के लिए एक सेंसर बोर्ड का अलग से गठन नहीं किया जाना चाहिए?
फिल्मों और टेलिविजन में एक खास अंतर यह है कि फिल्म देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। उस अनुरूप लोग सेंसर्ड और अंसेसर्ड फिल्म देखने की अपनी इच्छा की पूत्र्ति करते हैं। किन्तु हर घर में पहुंच रखनेवाले टेलिविजन में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। चैनल बदलने ही कौन सा दृश्य या संवाद आपको देखना-सुनना पड़े कहा नहीं जा सकता है। यहां आप एकदम से विवश हो जाते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के हिमायती का कहना है कि ये कार्यक्रम रात में आता है जब बच्चे सो जाते हैं। इन इंडियन कल्चर के लोगों को कौन समझाये के पाश्चात्य प्रभावित ’इंडियन कल्चर’ मंे रात हमेशा जवां होती है और दस-साढे़ दस बजे आज के ’इंडियन’ बच्चे नहीं सोते हैं। फिर इनका प्रोमों तो दिन में कई बार चलता हे और इन कार्यक्रमों की रीपीट टेलिकास्ट भी अक्सर दिन में ही होता है। अतः इन्हें रोकने के लिए एक नियामक बोर्ड का होना आवश्यक है। संसद में भी इन कार्यक्रमों पर बहस होने के बाद उम्मीद है कि सराकर और सभी सम्बन्ध पल इस दिशा में ईमानदारी से सोचेंगे।



- विपिन बादल

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