सोमवार, 27 जुलाई 2009

घर का जनेऊ बाजारू हुआ


कभी मिथिलांचल के घर-घर में बनने वाला जनेऊ अब बाजारों में बिकने लगा है। पहले वृद्घ महिलाएं जनेऊ बनाकर घर में रखती थीं, जिसका विशेष अवसरो पर उपयोग होता था। पर बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश में जनेऊ बनाने की यह सहज प्रवृत्ति लुप्त हो गयी है। अब महत्वपूर्ण अवसरों पर भी बाजार से ही जनेऊ खरीदे जाते हैं। मिथिलांचल के बाजार में अब बनारसी जनेऊ का बोलबाला हैै जबकि धार्मिक मामलों में मिथिलांचल और बनारस में 36 का आंकड़ा है। दोनों के पंचाग तक अलग हैं। मधुबनी के निवासी विघ्रेश झा कहते हैं कि पूर्व में महिलाएं जनेऊ बनाने में गौरव महसूस करती थीं। वे काफी उत्कृष्ट जनेऊ बनाती थी। पर अब सिर्र्फ गरीब परिवार की महिलाएं ही जनेऊ बनाकर आर्थिक उपार्जन करती हैैं। पूजापाठ में प्रयुक्त होने वाले जनेऊ जहां 50 पैसे प्रति जोड़ा मिलता हैै, वहीं पहनने वाला जनेऊ दो रूपए। मंगरौनी निवासी जनेऊ बनाने वाली श्यामा देवी कहती हैं कि बाजार में जनेऊ की कीमत इतनी कम है कि इसे बनाने में लगने वाले श्रम, समय के कारण उनका धीेरे-धीरे मोहभंग होता जा रहा हैै। ग्रामीण क्षेत्र में कुछ महिलाएं जनेऊ बनाती भी हैं पर उनकी संख्या इतनी कम है कि उसका उपयोग उनने घर तक ही सीमित रहता है। लिहाजा मशीनों से तैयार होने वाले धागों से बने जनेऊ की आपूत्र्ति और खपत अधिक होने लगी हैै।

स्थानीय निवासी 80 वर्षीय कालीचरण मिश्रा का मानना है कि अगर इसे विधिपूर्वक और निष्ठा के साथ पहना जाए तो लोग दीर्घायु होते हैं। यों ही हमारे संस्कारों में उपनयन संस्कर को समाहित नहीं किया गया हैै, कुछ तो पौराणिक मान्यता और वैज्ञानिक कारण रहा होगा जिसे जानकर ही हमारे पूर्वजों ने इसे कुलाचार के रूप में स्वीकार किया। जनेऊ पर उन्होंने वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता पर बल दिया। कई जातियों में तो शादी के समय जनेऊ पहनने का रिवाज है। जनेऊ पूरी तरह हस्तकला है और चरखे पर इसका धागा बनता है। जनेऊ छह तानी का होता है। एक तानी में कम से कम सात या फिर नौ धागा होता है। विभिन्न गोत्र और मूल के अनुसार जनेऊ को अलग-अलग परवल के नाम से जाना जाता हैै। परवल जनेऊ में दिए गए गांठ को कहते हैैं। कुछ जनेऊ में तीन और कुछ पांच परवल के होते हैं।

अब जनेऊ बनाने वालों की कमी के कारण लोग बाजार से खरीदने लगे हैं। बाजार में दो तरह के जनेऊ हैं। एक जो स्थनीय महिलाओं द्वारा तैयार है और दूसरा बनारस का होता है। आबादी बढऩे के साथ ही जनेऊ की मांग में भी काफी इजाफा हुआ हैै। स्थानीय बाजार में जनेऊ का व्यवसाय करने वाला श्यामसुंदर पटवा कहता हैै कि बनारसी जनेऊ की बिक्री भी बढ़ी है। पर वह स्थानीय जनेऊ की अपेक्षा काफी मोटा होता है। दोनों तरह के जनेऊ की कीमत एक जैसी है। उपनयन के अवसर पर आचार्य (गुरू) बरूआ (बालक) को जनेऊ पहनाते है। धारण करने से पूर्व इसे गंगाजल से सिंचित कर मंत्रोच्चार के साथ पवित्र बनाया जाता है। मंत्रयुक्त जनेऊ भी बाजार में उपलब्ध है पर कई लोग पंडितों से मंत्रोच्चारण कराके ही जनेऊ पहनते हैं। अधिकांश लोग तो स्वयं मंत्र का उच्चारण कर जनेऊ पहनते हैं। जनेऊ धारण करने का खास मंत्र होता हैै।

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