मंगलवार, 21 जुलाई 2009

मिथिला की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक पाग

मिथिला की खास पहचान पाग, जिसे पहनकर लोग स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं, अपने अतिथियों को सम्मान देने के लिए उन्हें पाग पहनाते हैं, वह पाग मिथिला की संस्कृति का ही प्रतीक नहीं बल्कि मिथिला की गंगा-जमुनी तहजीब एवं यहां के सांप्रदायिक सौहार्र्द्र का भी प्रतीक है। कवि कोकील विद्यापति से लेकर आज के महानुभावों के बीच सम्मान के रूप में प्रचलित पाग की अपनी विशिष्टï महत्ता है। लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता हैै कि जिस पाग को मिथिला के हिंदू श्रद्घा से अपने सिर पर धारण करते हैैं उस पाग को बनाते हैैं यहां के मुसलमान भाई। लेकिन दूसरों को पाग पहनाने वाले इस पुश्तैनी कारीगरों ंको भी अपनी कला के सम्मान के लिए कोई उन्हें पाग पहनाता - यह इच्छा उनकी आज तक पूरी नहीं हुई। दरभंगा-मधुबनी का पाग मिथिला ही नहीं पूरे देश एवं विदेशों में भी प्रसिद्घ रहा है।
दरभंगा में पाग बनाने का कार्य पिछली पांच पीढिय़ों से कर रहा है शहर के महराजगंज का एक अंसारी परिवार। पिछड़ी जाति से आनेवाले इस अंसारी परिवार का मुखिया मो। मोआज अंसारी का गुजर-बसर इसी पाग के सहारे चल रहा हैै। बेलबागंज में उसकी अपनी दुकान है जहां पर उसे बैठकर पाग बंाधते हुए कभी भी देखा जा सकता हैै। मोआज बताता है कि वह अपने धंधे से काफी खुश है क्योंकि इस पुश्तैनी पेशे से उसे अच्छी खासी आमदनी हो जाता हैै। मोआज का कहना है कि पहले केवल शादी-लगन के मौके पर ही उसे पागों के आर्डर मिलते थे, लेकिन अब तो सालों भर उसे इतने आर्डर मिलते हैं कि उतना वह बना नहीं पाता हैै। उसका कहना है कि जब से राजनीतिक दलों ने मिथिला के इस पाग को सम्मान देना शुरू किया है तबसे पाग का मार्र्केट काफी बढ़ गया हैै।
मोआज की बातों से ही इत्तफाक रखते हुए स्थानीय मोहल्ला मिश्रटोला निवासी शुभचंद्र झा बताते हैं कि अब तो पाग का फैशन हो गया हैै। पहले शादी-ब्याह, उपनयन संस्कार आदि विशेष मौके पर ही पाग का चलन देखा जाता था लेकिन अब तो कोई भी राजनीतिक नेता क्षेत्र में आते हैं उन्हें मिथिला की संस्कृति के रूप में पाग पहनाया जाता है। श्री झा कहते हैं कि पाग पहनाने का मतलब सामने वाले को आदर देना होता हैै, जिसकी लाज अतिथि को रखनी चाहिए। पाग को कुछ जाति विशेष या फिर सामंती व्यवस्था या धर्म विशेष से जोडऩेवालों को आड़े हाथों लेते हुए मोआज कहता हैै कि ऐसे लोगों को पाग के बारे में जानकारी नहीं हैै। यदि उन्हें सही मायने में इसकी पूरी जानकारी हो तो इस प्रकार की बातें नहीं करेंगे। वह कहता हैै कि अगर उन्हें पता हो कि हिंदुओं के पाग बनाने से एक मुस्लिम की रोजी रोटी चलती हैै तो फिर वे कभी पाग का विरोध नहीं करेंगे। पाग बनाने के हुनर को अपनी अगली पीढ़ी तक सुरक्षित रखने को इच्छुक मोआज का कहना है कि उसके परदादा हाजी नुरूल हसन ने सबसे पहले पाग बनाना शुरू किया। साठा पाग का प्रचलन खत्म होने के बाद दरभंगा के महराज भी उसी परिवार क ा बना पाग पहना करते थे। यह कहते हुए मानो गर्व से उन्नत हो उठता हैै कि मो। मोआज अंसारी का सर। लेकिन मोआज को इस बात का दुख जरूर है कि आज तक किसी ने उसके कला का सम्मान नहीं किया, किसी ने उसे आज तक कलाकार कहकर नहीं पुकारा जबकि उसके हाथ का बना पाग देश के शीर्षस्थ नेताओं के माथे पर चढ़ता रहा है।
पाग की ऐतिहासिकता के बारे में बताते हुए बिहार में शिक्षा विभाग के उच्च पद से सेवानिवृत्त डा। रामचंद्र चौधरी कहते हैं कि यों तो शास्त्र में ऐसा कोई विशेष समय का उल्लेख नहीं मिलता है कि कहा जाए कि फलां समय में फलां व्यक्ति ने इसकी शुरूआत की। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि समय के बदलते चक्र के साथ पाग का वर्तमान स्वरूप हमारे सामने आया। डा. चौधरी क ा कहना है कि आज का पाग बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की देन है, जिसे कुलाचार और लोकाचार के साथ फैशन के रूप में भी अंगीकार कर लिया गया। भले ही चित्रकारों ने अपनी कल्पना के आधार पर कवि कोकिल विद्यापति के माथे पर भी इसी पाग को दिखाया हो। वे बताते हैं कि मिथिला संस्कृति में गर्भाधान से लेकर श्राद्घकर्म तक सोलह संस्कार को समायोजित किया गया है। इन संस्कार में सर्वप्रथम उपनयन संस्कार और उसके बाद विवाह संस्कार में पाग का प्रचलन हैै। पहले साठा पाग का चलन था, जिसे अमूमन साठ हाथ के कपड़े से बनाया जाता था और इसे पहनने वाले स्वयं ही इसे अपने सिर पर बांधते थे। लेकिन समय बदला और लोगों का सोच भी। सो पाग अपने प्रारंभिक अवस्था से आधुनिक अवस्था में पहुंच चुका है। लेकिन इतना तो जरूर तो कहा जा सकता है कि पाग आज भी हमारी संस्कृति की पहचान है।
पाग निर्माण के संबंध में बताया जाता है कि पहले कोढि़ला से पाग बनता था, लेकिन अब उसके उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण बत्तीस औंस के कूट से पाग का ढ़ांचा तैयार किया जाता है, फिर मलमल के कपड़े से उसे छाड़ा सजाया जाता हैै। पाग के उपरी भाग को चनवा कहते हैैं जिस पर तिक ोना कूट लगाया जाता हैै, जिसे त्रिफला कहते हैं। पाग के आगे के भाग को आगूक चूनन उसके नीचे के मुड़े हुए भाग को पेशानी एवं पीछे के हिस्से को पिछुआ कहा जाता है। पाग निर्माता मोआज बताता है कि जरूरत के हिसाब से वह लाल, उजला, पीला, कोकटी और केसरिया रंग का कपड़ा पाग पर लगाता है। वैसे कभी-कभी उसे हरे रंग का पाग बनाने का भी आर्र्डर मिल जाता हैै। वह बताता है कि सूती पाग की कीमत प्रति पाग बीस रूपये होती है। साटन कपड़े वाले स्पेशल पाग की कीमत साठ रूपये। वह कहता हैै कि एक दिन में वह एक दर्जन पाग तैयार कर पाता है।

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