मंगलवार, 7 जुलाई 2009

'रिएल्टी शो का सच कुछ और है...

सूचना-क्रांति के युग में लोगों को भले ही काफी सहूलियतें मिली हों, लेकिन इसके साथ बाजारवाद के समागम ने लोगों के लिए प्रतिस्पर्धा और उसके संग मुसीबतों का सौगात भी दिया। टेलिवीजन शो पर दिखाए जा रहे तमाम रिएल्टी-शो तो कम से कम यही बयां कर रहे हैं। आज के जाने-माने गायक शान, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान सरीखें लोग इसी शो की खोज हैं तो उसके उलट पश्चिम बंगाल की शिंजनी, इंदौर का अनजार जैसे कई दूसरे चेहरे स्याह धब्बे की तरह इन कार्यक्रमों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। हालांकि इन कार्यक्रमों के जनक के रूप में विख्यात गजेंद्र सिंह इन स्याह धब्बों को बेबुनियाद बताते रहे हैं। आखिर बाजार का दबाव जो ठहरा। बाजारू संस्कृति ने लोगों की सोच को बदलकर रख दिया है और 'छोटे उस्तादÓ, 'चक दे बच्चेÓ, 'लिटिल चैम्पÓ सरीखें रिएल्टी शो ने अभिभावकों की कुंठा को अधिक उजागर क रके बच्चों पर बेतहाशा दबाव बना दिया है, जिसे कई दफा मनोचिकित्सक व्यक्त कर चुके हैं। प्रसिद्घ मनोचिक्ति डा। समीर पारिख कहते हैं, '' विभिन्न चैनलों पर दिखाए जाने वाले रिएल्टी शो विशेषकर बच्चों वाले कार्यक्रमों ने बच्चों पर जबरदस्त दबाव बनाया है। जो अभिभावक जीवन में स्वयं उतने सफल नहीं होते, वे अपनी महत्वाकांक्षा के कारण बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाते हैं और उसके दुष्परिणाम आए दिन बच्चों में देखने को मिलते हैं।ÓÓ
सच दो प्रकार के होते हैं। एक जो प्रत्यक्ष दिखता है और दूसरा वो जो नेपथ्य में रहता है और उसे जगजाहिर नहीं किया जाता है। यही हाल रिएल्टी शो का है। टीवी पर दिखाए जाने वाले तमाम रिएल्टी शो ने देशभर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। महानगरों से लेकर छोटे-बड़े शहरों के लोग भी बड़े चाव से इन कार्यक्रमों को देखते हैं और अपने बच्चों को इन शो में भाग लेने के लिए दबाव बनाते हैं। जाहिर है शो निर्माता लोगों में स्टारडम हासिल करने की हसरत और रातों-रात सुर्खियोंं में छा जाने की भूख को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। लोगों की ख्वाहिशें और बाजार का मणिकांचन संयोग इन कार्यक्रमों में देखने को मिलता है। लोग जहां अपनी ख्वाहिशें पूरी करने के लिए इन कार्यक्रमों में भाग लेते हैं और देखते हैं, जिससे टीआरपी बढ़ती है और संबंधित चैनल को उतने अधिक राशि की विज्ञापन मिलती है। चूंकि सारा खेल 'टीआरपीÓ पर निर्भर करता है, सो कार्यक्रम का निर्देशक कई बार निर्णायकों के बीच आपसी टकराव या किसी प्रतिभागी के खिलाफ सख्त टिप्पणियां करवाते हैं और बाद में इन विवादों वाले हिस्से को विभिन्न न्यूज चैनलों को कार्यक्रम के पहले ही प्रसारण के लिए उपलब्ध कराते हैं। जिससे कार्यक्रम प्रसारण होने से पहले ही लोग उसे देखें और पूरा कार्यक्रम देखने के प्रति उनमें विशेष उत्सुकता बनी रही।
दरअसल, हरेक चैनल के कमाई का स्रोत विज्ञापन है। जिस चैनल की टीआरपी जितनी अधिक होती है, उसके विज्ञापन दर उतने अधिक होते हैं। एक मीडिया ग्रुप में बतौर मार्केटिंग मैनेजर काम करने वाले वरूण चौधरी बताते हैं, ''चैनल की दुनिया में सारा आर्थिक कारोबार विज्ञापन पर निर्भर करता है। यदि विज्ञापन नहीं आएगा तो भला चैनल कब तक अपना खर्च निकल पाएगा। कोई भी विज्ञापनदाता चैनल को उसके टीआरपी के आधार पर विज्ञापन राशि जारी करते हैं और टीआरपी इस बात पर निर्भर करता है कि उसके दर्शक कितने हैं।ÓÓ सो, जब से चैनल की दुनिया में रिएल्टी शो की शुरूआत हुई है, तभी से यह खेल हो रहा है। भारतीय टेलिवीजन चैनल के इतिहास में ''कौन बनेगा करोड़पति ÓÓ पहला सफलतम रिएल्टी शो था। इसके बाद तो रिएल्टी शो की बाढ़ सी आ गई। आज हालात ये हैं कि हरेक चैनल पर कोई न कोई रिएल्टी शो कार्यक्रम चल रहा है। जहां कई सफल होते हैं तो कुछेक को गहरा आघात भी लगता है।
पश्चिम बंगाल के एक स्थानीय चैनल पर दिखाए जाने वाले रिएल्टी शो 'धूम मचा दे धूमÓ में अपनी डांस की प्रस्तुति के बाद सोलह वर्षीय शिंजनी को जब निर्णायकों ने फैसला सुनाते वक्त उसकी फटकार लगाई तो वह डिप्रेशन के कारण बेहोश हो गई। साथ ही आवाज भी खो बैठी, बाद में उसे बंगलुरू के निहंस अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसका ईलाज कर रहे डाक्टरों का कहना है कि वह ठीक हो जाएगी, लेकिन कब तक इसके बारे में नहीं कहा जा सकता है। ऐसा ही एक वाकया हरियाणा की दस वर्षीया सोनिया के साथ हुआ, जब वह 'छोटे उस्तादÓ के टॉप फाइव से बाहर हुई तो उसकी मां की दिल की बीमारी और गंभीर हो गई। दूसरी तरफ, मध्यप्रदेश के इंदौर के अनजार की कहानी थोड़ा अलग होते हुए भी इसी से जुड़ी है। अनजार इंदौर में आयोजित 'खतरों के खिलाड़ीÓ में हिस्सा लेने पहुंचा, जहां उसे ट्रायल देना था। प्रतियोगिता की शर्त के अनुसार प्रतिभागियों को बर्फीले पानी से भरे एक टब म ें कुछ देर तक रहना था। जोश में आकर अनजार टब में उतर गया लेकिन टीक से तैरनला न आने और सांस रोकने की प्रैक्टिस नहीं होने की वजह से वह बेहोश हो गया और पानी में गिर गया। नतीजन, उसके दोनों फेफड़ों में पानी भर गया और वह आज जिंदगी-मौत के बीच झूल रहा है।
बेशक, रिएल्टी शो ने देश में स्टार पैदा किया है। छुपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाने का काम किया है। देश के तमाम हिस्सों में रह रहे लोगों को दुनिया के सामने अपना टेलेंट रखने का एक बेहतरीन मौका दिया है। लेकिन, जिन्हें जिंदगी और मौत के बीच जाना पड़ रहा है, उसके बारे में भी सोचना चाहिए। रिएल्टी शो की लोकप्रियता किस कदर लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है, उसका अंदाजा 'चक दे बच्चेÓकार्यक्रम से लगाया जा सकात है। कार्यक्रम के निर्देशक गजेंद्र सिंह ने जब इस कार्यक्रम को शुरू करने की घोषणा की तो उनके पास देश भर से करीब डेढ़ लाख ऑडियो टेप पहुंचे। दिलचस्प बात यह है कि टेप भेजने वाले बच्चों की उम्र मात्र आठ से बारह साल के बीच थी। इसी प्रकार 'वूगी-वूगीÓ शो के लिए हरेक महीने चार हजार टेप कार्यक्रम निर्देशक को प्राप्त होते हैं। प्रसिद्घ मनोचिकित्सक डा। समीर पारेख कहते हैं, ''इन कार्यक्रमों के दौरान मिलने वाली प्रसिद्घि इतनी अधिक है कि इसके आकर्षण से बच्चों और उनके अभिभावकों को अलग रखना पाना असंभव है। हालांकि, हमारे बच्चे इन बड़े कार्यक्रमों के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं।ÓÓ
गौरतलब है कि गत सालों में नोनिहालों को रिकार्ड बनने की चाह ने फंदे में झूलने पर मजबूर किया था। एक प्रतिभागी जैसे ही कोई नया रिकार्ड बनाता दूसरा उससे अलग राह चुन लेता। नतीजा, समाज का एक प्रबुद्घ वर्ग हाय-तौबा मचाने लगा था। मामला साल 2006 के अंत का था। लगातार गायन जो कि 121 घंटे पर जाकर रूका था, के नाम पर ऐसा सिलसिला निकल गया था जिसको लेकर चिकित्सक भी परेशान हो गये थे। रिकार्ड गायन के इस सिलसिले की शुरूआत इंदौर की आकांक्षा जाचक ने की थी लगातार 61 घंटे गाकर। सोलह वर्षीय आकांक्षा ने इंदौर के गांधी हॉल में गाना शुरू किया था और मीडिया के पास खबर पहुंची थी। उसके बाद तो यह सिलसिला जैसा बन गया। दूसरे ही दिन '16 की दौड़ में 61 के लिएÓ जैसे शीर्षकों वाली खबरें अखबारों में प्रमुखता के साथ प्रकाशित होनी शुरू हुई। अचानक आकांक्षा मीडिया की सुर्खियां बनी। उसके कुछ ही दिन खंडवा शहर की सानिया सैयद ने आकांक्षा से 3 घंटे अधिक यानी 64 घंटे और इसी दरम्यान इंदौर के ही दीप गुप्ता ने कोएम्बटूर में 101 घंटे लगातार गायन का असंभव-सा लक्ष्य पूरा किया था। इससे भी दो कदम आगे बढ़ते हुए झाबुआ के मुकेश चंद्रावत ने पूरे 121 घंटे लगातार गाया। जाहिरतौर पर इस प्रकार से गायन से बच्चों के शरीर पर दुष्प्रभाव भी पड़ेगा। डा। राममनोहर लोहिया के प्रमुख हृदय रोग विशेषज्ञ डा. पुष्पा यादव का कहना है,'' गाने से सबसे ज्यादा शरीर को जिस अंग पर असर पड़ता है, वह है गला, मस्तिष्क और हृदय। कई घंटे तक लगातार गाने से दिल की धड़कने बढ़ जाती है। एकाध बार तो ठीक है, लेकिन यदि लगातार लंबे समय तक कई-कई घंटे गायन किया जाए तो दिल पर विपरीत असर पड़ता है।ÓÓ
इस प्रकार घटना ने फौरी तौर पर ही सही, लेकिन यह साबित की कि वगैर मेहनत-मशक्कत के दौलत और शोहरत पाने की ये हवस बच्चों को समय से पहले वयस्क और कुंठित बनाती जा रही है। कुछ समय पहले जब आठ साल का बुधिया लंबी दूरी के लिए दौड़ा था तब भी कुछ ऐसे ही सवाल उठे थे कि यह बच्चों का नहीं बल्कि उनके अभिभावकों की क्रूर महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम है।

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