शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

क्यों बताई आडवाणी की अहमियत?


यदि यह कहा जाए कि भारतीय जनता पार्टी और लालकृष्ण आडवाणी एक-दूसरे के अनुपूरक हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भले ही पार्टी के सबसे सदार चेहरा के रूप में सर्वविदित हों, लेकिन वह आडवाणी की मेहनत रही कि भाजपा ने केंद्र में सत्तारोहण किया। लोकतांत्रिक राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। न तो भाव और न ही सिद्धांत। इस लिहाजा से यह कहा जाए कि भाजपा ने कभी आडवाणी को हाशिए पर लाने की पुरजोर कोशिश की और फिर अचानक से संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सरेआम सबको भाजपा के ‘महारथी’ लालकृष्ण आडवाणी की अहमियत बताई, तो यह अनायास नहीं है। जो लोग भाजपा में आडवाणी को बीते जमाने की बात मान चुके हैं, उन्हें कहीं दोबारा ना सोचना पड़ा। 17 दिसंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ ऐसे ही संकेत दिए।
दरअसल, देश की  राजधानी नई दिल्ली में मौका था लालकृष्ण आडवाणी की तीन पुस्तकों के विमोचन का। भागवत बोलने के लिए खड़े हुए, तो आडवाणी की जिंदगी और सोच पर तो रोशनी डाली ही, आडवाणी को पार्टी में ही रहकर काम जारी रखने की नसीहत दे डाली।  उन्होंने आडवाणी को सलाह दी कि वे पार्टी से खुद को दूर न करें, वरना पार्टी बर्बाद हो सकती है। भागवत ने यह बात आडवाणी को एक कहानी के जरिए समझाई। वे नई दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी की किताब दृष्टिकोण के विमोचन के मौके पर समारोह को संबोधित कर रहे थे। मोहन भागवत ने इस अवसर पर एक कहानी सुनाई, जिसके मुताबिक एक गांव में एक महिला गलती से हवन कुंड में थूक देती है, लेकिन हवन कुंड की पवित्रता उसके थूक को सोने में तब्दील कर देती है। महिला का पति उस महिला को ये बात किसी को न बताने की नसीहत देता है, लेकिन महिला ये बात सहेलियों को बता देती है और पूरे गांव में यह बात फैल जाती है। धीरे-धीरे उस गांव में सारे लोग अमीर होते जाते हैं, लेकिन महिला और उसक पति गरीब ही रहते हैं। उन्हें ताने मिलते हैं, जिससे परेशान होकर दोनों गांव छोड़ देते हैं, लेकिन जैसे ही वे गांव से बाहर निकलते हैं, गांव में आग लग जाती है। तब महिला का पति उससे कहता है कि पूरे गांव के हर परिवार में पाप होता था (हवनकुंड में थूकने का) और सबको सोना मिलता था। लेकिन हमारी वजह से गांव बचा हुआ था, क्योंकि हम यह नहीं करते थे। हमारे बाहर निकलते ही गांव बर्बाद हो गया। भागवत ने इसके बाद आडवाणी की ओर मुखातिब होकर कहा कि आडवाणी जी राजनीति में हैं। कैसे रहना...वहां रहना और उन्हीं लोगों में रहना ताकि गांव को आग न लगे। भागवत ने अंत में यह भी कहा कि जो भी आपको जीवन में मिलेगा, उसका हमेशा खुशी भरा मतलब खोजना चाहिए।
सियासी हलकों में बीते कुछ समय से कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने पर लालकृष्ण आडवाणी नाराज हैं और वे कई बार इसे खुलकर जाहिर भी कर चुके हैं। कहा गया कि भाजपा में समय-समय पर युग परिवर्तन होते रहे हैं। एक था अटल युग, फिर आया आडवाणी युग और अब नमो (नरेंद्र मोदी) युग। अटल युग को अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्थक किया और देश के प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री बनने में किसकी क्या भूमिका रही यह एक अलग बहस का विषय है। एनडीए की सरकार 2004 में सत्ता से बाहर हुई और इसके साथ ही अटल युग खात्म हो गया। फिर आया आडवाणी युग। 2009 का आम चुनाव आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा गया। भाजपा की तरफ से आडवाणी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनाए गए थे, लेकिन किस्मत ने आडवाणी का साथ नहीं दिया और भाजपा नीत एनडीए सत्ता के जादुई आंकड़े को नहीं छू सकी। फिर भी पार्टी में आडवाणी की अहमियत बनी रही और उनकी अंतिम इच्छा यही थी कि भाजपा 2014 का चुनाव भी उनकी लीडरशिप में लड़े। लेकिन यह हो न सका। इसमें भी दो राय नहीं कि जब-जब नरेंद्र मोदी के ऊपर संकट के बादल गहराए, आडवाणी ने उनकी नैय्या पार लगाई। लेकिन आज उसी नरेंद्र मोदी ने उनके प्रभुत्व को चुनौती दे दी और आडवाणी के पीएम इन वेटिंग की कुर्सी को हथिया लिया। उसके बाद तमाम मंचों से कहा जाने लगा कि भाजपा में आडवाणी युग खत्म हो गया और मोदी युग का शुभारंभ। यहां यह भी याद रखना होगा कि वर्ष 2005 में दिए अपने एक साक्षात्कार में संघ प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने वृद्ध हो चले अटल और आडवाणी से मुक्त भाजपा की बात की थी, जिसके लिए उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी थी।
गौर करने योग्य यह भी है कि भाजपा में संघ के आशीर्वाद से हुई मोदी की ‘ताजपोशी’ के बाद पार्टी के भविष्य को लेकर आडवाणी ने दिल्ली में संघ प्रमुख से भी मुलाकात की थी। उस समय मोहन भागवत से न उन्हें कोई आश्वासन मिला, न संघ की तरफ से भाजपा के मामलों को देख रहे प्रचारकों को बदलने की उनकी बात मानी गई। इसके निहितार्थ के रूप में कहा जाने लगा कि भाजपा और उसकी पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ की सियासत पर कई दशकों से हावी रही वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी अब अतीत के विवरण तक सिमट जाएगी। स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी तो पहले से ही रिटायर्ड हैं, अब आडवाणी भी उसी गति को प्राप्त हो जाएंगे, भले वह पूरी तरह स्वस्थ हों। इसमें दो राय नहीं कि मोदी को आधिकारिक चेहरा बनाते वक्त संघ के शीर्षस्थ नेतृत्व ने किसी भी किस्म की असहमति न झेलने की उनकी प्रवृत्ति- जिसके चलते गुजरात में संघ-भाजपा के तमाम वरिष्ठ लोग हाशिये पर चले गए, जैसे तमाम पहलुओं पर सोचा होगा। उन्हें इस बात का भी गुुमान रहा होगा कि मोदी के चलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पुराने साथी छिटक सकते हैं और नए साथियों के जुड़ने में दिक्कत आ सकती है।
सच तो यह भी है कि अगर कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने के लिए सोनिया गांधी का आशीर्वाद चाहिए, तो भाजपा में संघ परिवार का। संघ परिवार आडवाणी को त्याग चुका है। आडवाणी इस बात को भूल गए कि अटल बिहारी वाजपेयी में तमाम गुणों के साथ एक गुण और था। यह गुण उन्हें उतर भारत से लेकर मध्य भारत और पूर्व भारत तक मजबूत करता था। ये गुण उन्हें जन्मजात मिला था। वह ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। इस जाति की मजबूती आडवाणी जी अभी तक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। अगर इस जाति की अहमियत को वे अभी भी समझना चाहते है तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के ब्राहमण सम्मेलनों को गौर से देखे, लेकिन आडवाणी के साथ  ब्राहमण तो क्या होंगे उनके अपने ही नहीं है। आज अडानी से लेकर अंबानी तक नरेंद्र मोदी के साथ हो गए है। आडवाणी भाजपा संस्कृति में पले बढ़े जरूर है। लेकिन वे वो नेता है जो सत्ता प्राप्त करने के लिए हर तरह के खेल करते है। अगर उन्होंने सत्ता प्राप्त करने के लिए रथयात्रा का नेतृत्व किया तो भारत विभाजन के जिम्मेदार मोह्ममद अली जिन्ना को सेक्यूलर भी बता दिया। यानि की सत्ता प्राप्त करने के लिए आडवाणी ने हर खेल को खेला। इसके बावजूद उन्हें पीएम की कुर्सी नहीं मिली। 2009 में एक बार पार्टी ने उन्हें दाव पर लगाया लेकिन पार्टी पहले से भी ज्यादा नुकसान में रही। सीटें कम हो गई। यानि की जनता के बीच उनकी लोकप्रियता वो नहीं थी जो  अटल बिहारी वाजपेयी की थी
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसी मोहन भागवत को सार्वजनिक रूप से लालकृष्ण आडवाणी की अहमियत बताने की जरूरत आन पड़ी? सच तो यही है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी को तो भाजपा नेताओं ने मना जरूर लिया, लेकिन भाजपा से आडवाणी भी भाजपा से और राजनीति से दूरी की बात करने लगे। संघ आज भी भाजपा के लौह पुरुष की अहमियत को समझता है।

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