शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

काश! अटल सक्रिय होते...


भाजपा के ‘भाष्म पितामह’ अटल बिहारी वाजपेयी। सांसें उनकी चल रही हैं, इसलिए जिंदा हैं। शरीर साथ नहीं निभा रहा है, इसलिए सक्रिय राजनीति से वर्षों पहले दूर हो गए। अब केवल ‘प्रतिमान’ बन कर रह गए हैं। भारतीय राजनीति के लिए और भाजपा के लिए। दोनों ही जगहों पर उनकी कमी काफी खलती है। संसद से लेकर सड़क तक। ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ में अब कुछ •ाी अलग नहीं होता। न तो अनुशासन है, न ही पहले जैसी नैतिकता। अटल ने प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने का कुछ ही पल में निर्णय लिया था। वह संसद का समय और सरकार का वक्त जाया नहीं करना चाहता थे। आज त्रासदी यह है कि उनके ही खून-पसीने से जो ‘कमल’ सत्ता के शिखर पर पहुंचकर •ाी ‘अहंकारी’ नहीं हुआ था, वह उनके वनवास मात्र से ‘कुम्हला’ रहा है। एक-एक करके उसकी ‘पंखुरियां’ टूट रही हैं। विडंबना तो यह है कि टूटी हुई पंखुरियों की सुध लेने की फुर्सत किसी को नहीं है... इस सच को कौन झुठला सकता है कि के.एन. गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती, संजय जोशी, वी.एस. येदुरप्पा सरीखे लोग भाजपा की पंखुरियां ही थे। ये चंद नाम ऐसे हैं, जिनका अपना जनाधार था। ये •ाीड़ को ‘वोट’ में बदलने की कला •ाली-भाति जानते हैं। ताजा घटनाक्रम में येदुरप्पा ने भाजपा छोड़ दिया, आखिर चार दशकों के करीब भाजपा की सेवा करने के बाद केंद्रीय नेतृत्व के प्रति उनका असंतोष क्यों उभारा? इस पर दिल्ली ने गं•ाीरता से कोई विचार नहीं किया, क्यों? भाजपा पर ‘थोपे’ गए नितिन गडकरी को केवल नागपुर से होने के कारण और ब्राह्मण होने के कारण संघ ने अहम कुर्सी दी। आखिर वह •ा्रष्टाचार की जद में कैसे आ गए? क्या ‘शुचिता’ की दुहाई देने वाली संघ गडकरी को साफ क्यों नहीं करती? ऐसे एक नहीं कई सवाल हैं, जिसका जवाब किसी •ाी भाजपाई को नहीं मिल पा रहा है। उल्लेखनीय यह •ाी है कि जिस अटल बिहारी वाजेपयी ने •ोपाल अधिवेशन के दौरान खुद को ‘पीएम’ घोषित किए जाने पर कड़ा ऐतराज जताया था और इसे ‘सांसदों’ का विशेष अधिकार बताया था, उसी भाजपा में अटल के नहीं होने से हर कोई ‘पीएम’ बनना चाहता है। देश में केवल एक पीएम की कुर्सी है, लेकिन भाजपा में आधा दर्जन के करीब नेता ‘पीएम’ की रेस में हैं। आखिर यह अटल की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं है? और तो और, गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा एक तरफ और नरेंद्र मोदी दूसरी तरफ। कई लोग मोदी को ‘लार्जर देन पार्टी’कह रहे हैं, क्या अटल की भाजपा में ‘संस्था’ से ‘व्यक्ति’ बड़ा हो सकता था? जब तक भाजपा के चुनावी पोस्टरों और झंडों पर प्रमुखता से अटल छाए रहते थे, संघ चाहकर •ाी बहुत कुछ नहीं कर सकती थी। जैसे ही भाजपाइयों ने अटल को अहमियत देने में कोताही की, संघ ने भाजपा को अपने कब्जे में कर लिया। वरना, नितिन गडकरी सरीखे लोग पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं हो सकते! ऐसा एक नहीं, कई लोग मानते हैं। जिस भाजपा में के.एन. गोविंदाचार्य और संजय जोशी जैसे संगठन महासचिव होते थे, जिनका हर कोई ‘धाक’ मानता था, उसी पार्टी के वर्तमान संगठन महासचिव रामलाल केवल नेताओं से बात-चीत ही करने में व्यस्त होते हैं। कोई ‘धाक’जैसी बात सामने नहीं आती। हैरत की बात तो यह है कि असमंजस और अमनस्कतका की स्थिति केवल भाजपा में ही नहीं, बल्कि उसकी मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में •ाी है। पहली बार संघ अपनों को लेकर ही उलझा है। सरसंघचालक मोहन भागवत समेत दस टॉप स्वयंसेवकों की राय न तो भाजपा अध्यक्ष को लेकर एक है और न ही 2014 के लिए अगुवाई करने वाले चेहरे को लेकर। गडकरी को दूसरा मौका न दिया जाए, जिसके लिए कई वरिष्ठ भाजपाइयों ने मोर्चा खोल दिया है, तो संघ के लिए परेशानी का सबव यह है कि वह दूसरा गडकरी कहां से लाएं? संघ यदि ब्राह्मण चेहरा को ही आगे करती है, तो गडकरी के बदले अरुण जेटली या मुरली मनोहर जोशी को अध्यक्ष बना दिया जाए, तो फिर पार्टी के •ाीतर सहमति कैसे बनाई जाए? क्या बुजुर्ग लाल कृष्ण आडवाणी को एक बार फिर कमान दे दी जाए? पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैंकेया नायडू में ‘सामंजस्य’ का गुण काफी है। •ाले ही इनके कोटे में सफलता अधिक नहीं है, तो सामंजस्य बैठाने •ार के लिए इन्हें कमान दी जाए! यदि भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को सामने रखकर चुनावी मैदान में कूदना चाहती है, तो क्या अ•ाी से ही उनके मनमाफिक दिल्ली में चौसर बिछा दी जाए? ऐसे ही कई संभावनाओं को पार्टी के अंदर और बाहर तलाशा जा रहा है। दिल्ली से लेकर नागपुर और नागपुर से लेकर गांधीनगर तक सोच-विचार कर रहा है। अफसोस, किसी •ाी रणनीतिकार ने नई दिल्ली में 6ए, कृष्ण मेनन मार्ग की ओर रुख नहीं किया, जहां भाजपा के •ाीष्म पितामह ‘शैय्या’ पर उस अर्जुन को तलाश रहे हैं, जो पार्टी को ‘चक्रव्यूह’ से निकालने में सक्षम हों...

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