शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

धर्मांतरण द्वारा भारत की आत्मा से खिलबाड

- विनोद बंसल

भारतीय गणतंत्र की 61वीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पूर्व हमारी
सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र चार दिन पूर्व स्वयं द्वारा सुनाए गए एक
ऐतिहासिक निर्णय में बदलाव कर न सिर्फ़ अपने ही नियमों को नजरंदाज किया है
बल्कि धर्मांतरण के संबंध में एक नई बहस का बीजा-रोपण भी किया है। संभवत:
यह अभूतपूर्व ही है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे में अपने
ही निर्णय को स्वेच्छा से संशोधित किया हो और उसका कोई कारण नहीं बताया
गया हो।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने बाईस जनवरी 1999 को उडीसा के मनोहरपुर गांव
में आस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टैन्स व उसके दो बच्चों को जिन्दा जलाए
जाने के आरोप में रविन्द्र कुमार पाल (दारा सिंह) व महेन्द्र हम्ब्रम को
आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए 21 जनवरी 2011 को कहा था कि फांसी की
सजा दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में
तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी
भ‌र्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभतम मामले की श्रेणी में नहीं आता
है। अत: इसमें फांसी नहीं दी जा सकती। विद्वान न्यायाधीश जस्टिस पी
सतशिवम और जस्टिस बी एस चौहान की बेंच ने अपने फैसले में यह भी कहा कि
लोग ग्राहम स्टेंस को सबक सिखाना चाहते थे, क्योंकि वह उनके क्षेत्र में
मतांतरण के काम में जुटा हुआ था। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी
व्यक्ति की आस्था और उसके विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल,
उत्तेजना या लालच का प्रयोग करना या किसी को यह झूठा विश्वास दिलाना कि
उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी
व्यक्ति का मतांतरण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं
कहा जा सकता। इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट
होती है, जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। किसी की आस्था को चोट
पहुंचा कर जबरदस्ती धर्म बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से
बेहतर है, उचित नहीं है।
उपरोक्त पंक्तियों को बदलते हुए न्यायालय ने कहा कि इन पक्तियों को इस
प्रकार पढा जाए-“घटना को घटे बारह साल से अधिक समय बीत गया, हमारी राय और
तत्थों के आलोक में उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बढाने की कोई
आवश्यकता नहीं है।“ आगे के वाक्य को बदलते हुए माननीय न्यायालय ने कहा कि
“किसी भी व्यक्ति के धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप
करना न्यायोचित नहीं है।“
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चार दिन के भीतर ही अपने निर्णय में स्वत:
संशोधन करते हुए निर्णय की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को हटा लिए जाने से
कई प्रश्न उठ खडे हुए हैं। एक ओर जहां चर्च व तथा कथित सैक्यूलरवादियों
का प्रभाव भारत की सर्वोच्च संस्थाओं पर स्पष्ट दिख रहा है। वहीं, भारत
का गरीब बहुसंख्यक जन-जातीय समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। मामले
से संबन्धित पक्षकारों में से किसी भी पक्षकार के आग्रह के विना किये गए
संशोधन को विधिवेत्ता उच्चतम न्यायालय नियम 1966 के नियम 3 के आदेश
संख्या 13 का उल्लंघन मानते हैं। साथ ही वे कहते हैं कि इससे भारतीय दण्ड
संहिता की धारा 362 का भी उल्लंघन होता है।
इस निर्णय ने एक बार फ़िर चर्च की काली करतूतों की कलई खोल कर रख दी है।
विश्व में कौन नहीं जानता कि भारत की भोली-भाली जनता को जबरदस्ती अथवा
बरगला कर उसका धर्म परिवर्तन कराने का कार्य ईसाई मिशनरी एक लम्बे समय से
करते आ रहे हैं। अभी हाल के दिनों की सिर्फ़ दो घटनाओं पर ही गौर करें तो
भी हमें चर्च द्वारा प्रायोजित मतांतरण के पीछे छिपा वीभत्स सत्य का पता
चल जाएगा । सन् 2008 में कर्नाटक के कुछ गिरजाघरों में हुईं तोड़-फोड़ की
घटनाओं में “सेकूलर” दलों और मीडिया ने संघ परिवार और भाजपा की
नवनिर्वाचित प्रदेश सरकार को दोषी ठहराने का भरसक प्रयास किया था।
किन्तु, न्यायाधीश सोम शेखर की अध्यक्षता में गठित न्यायिक अधिकरण द्वारा
अभी हाल ही में सौंपी रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि ये घटनाएं इसलिए घटीं,
क्योंकि ईसाई मत के कुछ संप्रदायों ने हिंदू देवी-देवताओं के संदर्भ में
अपमानजनक साहित्य वितरण किया था। तथा इस भड़काऊ साहित्य का मकसद हिंदुओं
में अपने धर्म के प्रति विरक्ति पैदा करना था। मध्य प्रदेश में मिशनरी
गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए 14 अप्रैल, 1955 को तत्कालीन
कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता
में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुति में मतांतरण के
उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालना और उन पर पाबंदी लगाने
की बात प्रमुख थी। बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभव
हीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए न हो। बाद में देश के कई
अन्य भागों में गठित समितियों ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित
ठहराया। जस्टिस नियोगी आयोग की रिपोर्ट, डीपी वाधवा आयोग की रिपोर्ट तथा
कंधमाल में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एससी महापात्रा
आयोग की रिपोर्ट के साथ और कितने ही प्रमाण चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं
कि इस आर्यवर्त को अनार्य बनाने में चर्च किस प्रकार संलग्न है।
इस प्रकार, विविध न्यायालयों व समय समय पर गठित अनेक जांच आयोगों व
न्यायाधिकरणों ने स्पष्ट कहा है कि अनाप- सनाप आ रहे विदेशी धन के
बल-बूते पर चर्च दलितों-वचितों व आदिवासियों के बीच छल-फरेब से ईसाइयत के
प्रचार-प्रसार में संलग्न है। उनकी इस अनुचित कार्यशैली पर जब-जब भी
प्रश्न खडे किए जाते हैं, चर्च और उसके समर्थक सेकुलरबादी उपासना की
स्वतंत्रता का शोर मचाने लगते हैं। आखिर उपासना के अधिकार के नाम पर लालच
और धोखे से किसी को धर्म परिवर्तन की छूट कैसे दी जा सकती है। यदि देह
व्यापार अनैतिक है तो आत्मा का व्यापार तो और भी घृणित तथा सर्वथा
निंदनीय है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाधी तथा डॉ. भीमराव
अंबेडकर सहित अनेक महापुरुषों ने धर्मांतरण को समाज के लिए एक अभिशाप
माना है। गांधीजी ने तो बाल्यावस्था में ही स्कूलों के बाहर मिशनरियों को
हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते सुना था। उन्होंने चर्च के मतप्रचार
पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा था- ''यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्य और
गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म
परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहूंगा। प्रत्येक
राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है।
निश्चय ही भारत का धर्म यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है। हमें धर्म
परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।'' एक अन्य प्रश्न के उत्तर में गांधी
जी ने कहा था कि ''अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो
मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं। मिशनरियों के प्रवेश से उन
हिंदू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठ है, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खानपान
तक में अंतर आ गया है।'' इस संदर्भ में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, ''यह एक
भयानक सत्य है कि ईसाई बनने से अराष्ट्रीय होते हैं। साथ ही यह भी तथ्य
है कि ईसाइयत, मतांतरण के बाद भी जातिवाद नहीं मिटा सकती।'' स्वामी
विवेकानद ने मतांतरण पर चेताते हुए कहा था ''जब हिंदू समाज का एक सदस्य
मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का
एक शत्रु बढ़ जाता है।' यह भी सत्य है कि जहां-जहां इनकी संख्या बढी,
उपद्रव प्रारंभ हो गये। पूर्वोत्तर के राज्य इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
वर्ष 2008 में उडीसा के कंधमाल में हुई स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या,
तथा आज मणिपुर, नागालैंड, असम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना
संख्याबल बढ़ाने के नाम पर जो खूनी खेल खेला जा रहा है वह सब इस बात का
प्रत्यक्ष गवाह है कि भारत की आत्मा को बदलने का कार्य कितनी तेजी के साथ
हो रहा है।
यदि हम आंकडों पर गौर करें तो पायेंगे कि उडीसा के सुन्दरगढ, क्योंझार व
मयूरभंज जिलों की ईसाई आबादी वर्ष 1961 की जनगणना के आकडों के अनुसार
क्रमश: 106300, 820 व 870 थी जो वर्ष 2001 में बढ कर 308476, 6144 व 9120
हो गई। यदि इसी क्षेत्र की जनसंख्या ब्रद्धि दर की बात करें तो पाएंगे कि
वर्ष 1961 की तुलना में जहां ईसाई जनसंख्या तीन से दस गुनी तक बढी है
वहीं हिन्दु बाहुल्य इन तीन जिलों में हिन्दुओं की जनसंख्या गत चालीस
वर्षों में मात्र कहीं दुगुनी तो कहीं तिगुनी ही हुई है। क्या ये आंकडे
किसी भी जागरूक नागरिक की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? आज चर्च
का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस कारण देश के कई
राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है।
मतांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जाति से ईसाई बने
बन्धुओं का जीवन चर्च के अंदर ही नर्क बन गया है। चर्च लगातार यह दावा भी
करता आ रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है, लेकिन उसे
इसका भी उत्तर ढूंढ़ना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बावजूद भारतीयों के
एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा
कार्य का दाबा करने वाले ग्राहम स्टेंस को एक भीड़ जिंदा जला देती है और
उसके पंथ-प्रचारकों के साथ भी अक्सर टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो
रहा है? इसका उत्तर तो चर्च को ही ढूंढ़ना होगा। क्या छलकपट और फरेब के
बल पर मत परिर्वतन की अनुमति देकर कोई समाज अपने आप को नैतिक और सभ्य
कहला सकता है?
किन्तु अब एक अहम प्रश्न यह है कि आखिर कब तक हम, हमारी सरकारें और
मजबूत लोकतंत्र के अन्य प्रहरी धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की ओर बढते इस
षढयंत्र पूर्वक चालाए जा रहे अभियान को यूं ही चलने देंगे और अपनी आत्मा
के साथ खिलवाड को सहन करते रहेंगे। वर्तमान परिपेक्ष में किसी राजनेता से
तो इस सम्बन्ध में आशा करना बेमानी सी बात लगती है। हां, न्याय की देवी
के आंखों की पट्टी यदि खुल जाए तो शायद मेरे भोले भाले वनवासी, गिरिवासी
व गरीव भरतवंशी का भाग्योदय संभव है।

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