शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

काले धन का खेल

कहा जा रहा है कि ग्राहक की गोपनीयता को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के कारण स्विस बैंक में भारतीयों का करीब 70 लाख करोड़ रुपए जमा है। आरोप लग रहा है कि यह सारा धन जनप्रतिनिधियों की दलाली और भ्रष्टïाचार से कमाया है। खातेदारों में सर्वाधिक नेता और नौकरशाह हैं। व्यापारी वर्ग इतना धन लंबे समय तक बैंकों में नहीं रख सकता। जाहिरतौर पर जो देश को चलाने का दंभ भरते हैं उनके पास ही है सर्वाधिक काला धन। बात हो रही है इस धन को स्वदेश लाने की। क्या यह संभव है? यदि संभव है तो संभावनाएं कैसी हैं?
ारत में 70 के दशक में ही सोने की तस्करी भी बढ़ी और दाउद इब्राहिम भी बढ़ा। फिर सोने का दाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाने के बाद भारत में हथियारों के तस्करी वाले गिरोह आतंकवाद के नाम पर बढऩे लगे। इनके पैसे की आवाजाही के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे अशांत देश काम आने लगे। इसके बाद हथियारों की तस्करी, ड्रग्स की तस्करी, आतंकवादियों को वित्तीय सहायता और हवाला का जोड़ और जोर बढ़ता गया। जब 90 के दशक में भारत में हवाला की चर्चा चलने लगी तो ये सामने आया कि हथियारों की तस्करी में विदेशों में बसे भारतीय उद्योगपति भी संलिप्त हैं। इसी दौरान ये बात भी सामने आई कि भारत की अर्थव्यवस्था में जितना वैध धन है उतना ही अवैध धन भी है।
कहने को भारत एक विकासशील देश है जो आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर चल पड़ा है। कई विकसित देश इसकी स्वीकारोक्ति करते हैं। मगर हाल के दिनों में जिस प्रकार से भारतीयों के स्विस बैंक में जमा धन राशि पर बावेला काटा जा रहा है और सरकार की ओर से भी बयान आ रहे हैं कि उन्हें देश में लाने की कवायद की जाएगी। वैसे में उम्मीद की जा रही है कि स्विस बैंको सहित अन्यान्य गुप्त बैंकों में जमा गुप्त धन, जिसे 'काला धनÓ की संज्ञा दी जा रही है, भारत आ जाए तो यहां सर्वांगीण विकास हो जाएगा। सच भी कुछ ऐसा ही आभास करा रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि विश्व में भारत ऐसा देश है, जिसके 70 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंक में जमा हैं। सच तो यह भी है कि स्विस बैंकों जैसे दुनिया में 77 'कर-स्वर्गÓ हैं , जहां दुनिया के अमीर अपना काला धन जमा करके ऐश कर सकते हैं । वहां का भी हिसाब मिलाएं , तो भारतीय अमीरों द्वारा भारत की लूट का और ज्यादा विकराल हो जाएगा । हाल ही में , जर्मनी की सरकार के हाथ में ऐसे ही एक कर-स्वर्ग लीचेन्स्टाईन के दो नंबरी खातों की जानकारी आई थी , जो उसने सम्बन्धित देशों की सरकारों को देने का प्रस्ताव किया था । कई सरकारों ने इसका उपयोग किया और काले धन वालों के विरुद्ध कार्यवाही भी शुरु की । लेकिन भारत सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ।
आखिर कैसे करती , क्योंकि यह जानकारी उजागर होने पर शायद बड़ी-बड़ी जगहों पर बैठे लोग बेनकाब हो जाते , तूफान आ जाता । वर्ष 1991 में हवाला काण्ड में भी तो सत्तादल से लेकर तमाम विपक्षी नेताओं के नाम थे । बोफोर्स , जर्मन पनडुब्बी जैसे तमाम सौदों में दलाली व कमीशन की राशि भी ऐसे ही बैंकों में जमा होती है। यह सारा धन जनप्रतिनिधियों की दलाली और भ्रष्टाचार से कमाया है। व्यापारी वर्ग इतना धन लंबे समय तक बैंकों में नहीं रख सकता। स्विस बैंक काला धन वालों के लिए आकर्षण का केंद्र इसलिए है कि यहां धन की गोपनीयता बनी रहती है। यहां मुद्रा के उतार-चढ़ाव से निवेशक को भारी लाभ मिलता है। जैसे 1991 में 15 रुपए का एक डॉलर मिल रहा था। आज एक डॉलर का मूल्य 50 रुपया है। इसीलिए इस समय अमरीका, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की सरकारें स्विट्जरलैंड की सरकार पर दबाव डाल रही हैं कि स्विस बैंक अपने यहां के गुप्त खातों को सार्वजनिक करे। भारत अब तक टालू रवैया अपनाता रहा है। देश के व्यापक कदम उठा कर स्विस बैंक से काला धन लाना चाहिए। इसके लिए कुछ छूट और सुविधा निवेशकों को देना पड़े, तो कोई हर्ज नहीं है।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री और चिंतक प्रोफेसर उत्सा पटनायक के अनुसार यदि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी आहार का मापदंड माना जाए तो ग्रामीण भारत का लगभग 80 फीसदी निवासी गरीब है। यदि प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2200 कैलोरी आहार मापदंड भी माना जाए तब भी 70 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। दूसरी ओर इसी भारत का 25 से 70 लाख करोड़ रूपए कालेधन के रूप में विदेशों में जमा होता है। देश में बसने वाले लगभग सवा लाख लोगों के पास 440 बिलियन डॉलर की जायदाद है। ऐसे में सवाल उठता है कि ये अकूत जायदाद और कालाधन कहां से लाया गया? जवाब एक ही है हमारी लचर शासन -व्यवस्था, जिसमें कुछेक अनैतिक कृत्यों को संस्कार के रूप में आत्मसात कर लिया गया है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर काला धन की शुरूआत कैसे और कब हुई? दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त से ही स्विट्जरलैंड बैंकों की दृष्टि से प्रसिद्ध हो चला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले मंदी आई थी। उस समय वहां के बैंकों को झटका न लगे इसके लिए कई तरफ से कोशिश हुई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संसार का शक्ति केंद्र यूरोप से हटकर अमेरिका हो गया। उसी दौरान शीत युद्ध की भी स्थितियां उभरी। ऐसे में जब उपनिवेशों का आजाद होना शुरू हुआ तो कई जगह तो लोकतंत्र के प्रयोग हुए लेकिन कई जगहों पर शासन भ्रष्ट लोगों के हाथों में चला गया। इसी दौरान दक्षिण अमेरिका, मध्य अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के कुछ देशों के सत्ताधीशों, नौकरशाहों और थैलीशाहों की तिकड़ी ने जनता का शोषण शुरू किया। शोषण के इस पैसे की पनाहगाह के तौर पर स्विट्जरलैंड उभरा। स्विटजरलैंड के देखा-देखी और कई छोटे देश इस राह पर चल पड़े और बैंकों की दुकानदारी शुरू कर दी। साठ के दशक के उत्तरार्ध में और सत्तर के दशक की शुरूआत में कुकुरमुत्तों की तरह ऐसे बैंक उग आए। इन्हें बड़े देशों का परोक्ष समर्थन तो मिला ही साथ ही इन्हें स्थानिक स्थिति का भी फायदा मिला। इन बैंकों में सरकारी और गैरसरकारी अवैध पैसा रखा जाने लगा। भारत में 1969 में कांग्रेस के टूटने के बाद धनबल का प्रयोग काफी तेजी से बढ़ा। भारत में आया राम गया राम के समय से ही नौकरशाह अपने को स्थाई सत्ता संचालक मानने लगे और राजनेताओं को अस्थाई सत्ता संचालक। इसके बाद यहां के नौकरशाहों को हैसियत से ज्यादा धन बनाते देखा गया। वे विदेशों में पदस्थापित होने में रूचि लेने लगे। उस समय ये चर्चा चलने लगी कि कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों के पैसे स्विट्जरलैंड में जमा हो रहे हैं। ये पैसे का बढ़ता जोर ही था कि थैलीशाहों ने अपना स्वार्थ साधाने के लिए नीतियों में फेरबदल करवाना भी शुरू कर दिया। थैलीशाह अपने धन में बढ़ोत्तरी के लिए किसी भी तरह के रास्ते को अपनाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गए थे। इस का परिणाम यह हुआ कि थैलीशाहों ने अपने धन में इजाफा के लिए नौकरशाहों को अपने साथ लेना शुरू किया। साथ ही इन लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए नौकरशाहों के पदस्थापन और प्रमोशन को भी प्रभावित करना शुरू किया। 70 के दशक के अंत में और 80 के दशक के शुरू में राजनेता, नौकरशाह और थैलीशाह की तिकड़ी और ज्यादा मजबूत होने लगी और यह चरम पर है।
फिलहाल भारत को इस बात का दुख है कि स्विस बैंकों के संगठन यूबीएस ने उसे अपने खातेधारियों का नाम देने से इन्कार कर दिया है और अमेरिका ने जब ऐसी ही जानकारी चाही तो उसे देने राजी हो गए। यहां बात अमेरिका व भारत की नहींहै, जानकारी लेने के तरीके की है। स्विट्जरलैंड की राजनीतिक व्यवस्था में यह नियम है कि उसके बैंक अपने ग्राहकों की जानकारी गुप्त रखेंगे। यह व्यवस्था विगत 3 सौ वर्षों से चली आ रही है। जेनेवा के बैंकर्स फ्रांस की सरकार के बैंकर हुआ करते थे। लुई 16वें ने तो एक बैंकर को बाकायदा महानिदेशक बनाया हुआ था। प्रथम विश्वयुध्द के बाद यूरोप के कई देशो की मुद्रा का भारी अवमूल्यन हुआ, लेकिन स्विस बैंक में स्थिरता बनी रही। नतीजतन कई देशों ने स्विस बैंकों में धन जमा करना लाभकारी समझा। देश की गिरती वित्तीय व्यवस्था को देखते हुए फ्रांस ने पेरिस स्थित एक स्विस बैंक के दफ्तर में छापा मार खातेधारियों का नाम मालूम किया। तब 1934 में स्विट्जरलैंड ने एक कानून बनाया कि खातेधारियों का नाम उजागर करना आपराधिक कृत्य होगा। जर्मनी ने जब स्विस बैंकों में धन जमा करने वालों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया तो स्विट्जरलैंड ने गोपनीयता बनाए रखना और जरूरी समझा। बाद में ऐसा भी वक्त आया कि नाजियों द्वारा लूटी गई संपत्ति और यहूदियों का बचाया धन दोनों स्विस बैंकों में जमा थे। दुनिया भर के भ्रष्ट शासकों ने अपना धन स्विस बैंकों के हवाले किया। 1984 में स्विट्जरलैंड की जनता ने गोपनीयता बरतने को 73 प्रतिशत वोट देकर स्वीकृत किया। स्विट्जरलैंड की अर्थव्यवस्था बेहद स्थिर है। यहां के नियम ऐसे हैं कि राशि के डूबने का कोई खतरा नहींहै। गोपनीयता का कानून इतना कड़ा है कि यदि कोई बैंक ग्राहक की इजाजत के बगैर जानकारी देता है तो स्विस पब्लिक एटार्नी द्वारा तुरंत कार्रवाई शुरू हो जाती है। इसमें केवल आपराधिक गतिविधियों जैसे मादक पदार्थों का कारोबार या संगठित अपराध आदि की पड़ताल के लिए अपवाद स्वरूप जानकारी दी जा सकती है।
बहरहाल, हर मामले में अमेरिकापरस्ती करती दिखने वाली भारत की सरकार अमेरिका के किसी भी सकारात्मक कदम से कुछ भी सबक नहीं लेती दिखती है। यहां यह बताना आवश्यक है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा का प्रशासन अपने देश के लोगों के गुप्त बैंक खातों से अपने देश की संपत्ति वापस लाने में लगा हुआ है। स्विट्जरलैंड का सबसे बड़ा बैंक है यूबीएस। यूबीएस दुनिया का सबसे बड़ा निजी बैंक भी है। अमेरिकी प्रशासन ने दबाव बनाते हुए इस बैंक और स्विस प्रशासन पर यह आरोप लगाया कि अमेरिकी लोगों को टैक्स चोरी में यह बैंक मदद कर रहा है और आसानी से उनके गुप्त खाते खोल रहा है। यह अमेरिकी दबाव रंग लाया और यूबीएस ने खातों में जमा रकम की जानकारी देने की बात स्वीकार ली। यूबीएस का कहना है कि उसके यहां उन्नीस हजार अमेरिकी खाते हैं। इसमें से बैंक वैसे 250 खातों के बारे में जानकारी देने को राजी हो गया है जिनमें सबसे ज्यादा पैसे जमा हैं। इन गुमनाम खातों के बारे में अमेरिका ने अब दबाव बढ़ाते हुए यह कहा है कि यूबीएस में 52,000 अमेरिकी लोगों के खाते हैं। अमेरिका का अगला कदम इन खातों में जमा पैसे को वापस लाना है। ऐसा करके एक तरह से अमेरिका ने अपने यहां के भ्रष्टाचार पर ही चोट किया है। दूसरी बात यह भी है कि यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था बहुत कुछ अमेरिका पर निर्भर है। इसलिए भी यूबीएस ने उसे इन्कार नहींकिया। भारत ने इस तरह से अपनी बात शायद नहींरखी। फिर स्विट्जरलैंड की कोई राजनीतिक मजबूरी भी भारत के साथ बंधी नहींहै। इसलिए भारत को ही कूटनीति और इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए जानकारी हासिल करने की कोशिश करनी होगी। देश से हजारों लोग हर साल स्विट्जरलैंड जाते हैं। इनमेंसे कई बार-बार वहां जाते हैं। उनके आवागमन का मकसद जानना कोई कठिन कार्य नहींहै। लेकिन बात वही है कि इस इच्छाशक्ति के बदले होने वाले क्षणिक नुकसान और अंतर्संबंधों के बिखराव को क्या सरकार व अन्य राजनीतिक दल सहने तैयार हैं। राजनीति, अफसरशाही और अपराध के आपसी गठजोड़ के टूटने पर ही भ्रष्टाचार रुकेगा और काले धन का कारोबार भी।

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