उम्मीदों की आंधी का पांच महीने बाद भी जस का जस होना इस बात का प्रमाण है कि बाकी तमाम नेताओं और पार्टियों ने अपने आपको जन आक्रोश के भंवर में कितना बुरी तरह फंसाया हुआ है।
राजनीति में फिलहाल सार्थक विकल्प नहीं हंै। भाजपा अपनी सफलता के साथ लगातार कांग्रेस की तरह होती जा रही है। हरियाणा में थोक भाव से भाजपा ने कांग्रेस के नेताओं का आयात किया। मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात तो करते हैं पर क्या उन्हें पता है कि बीते कुछ समय से वे भाजपा का ही कांग्रेसीकरण करते जा रहे हैं। जाति-समुदाय का गणित जारी है। डेरा से किया गया भाजपा का "सच्चा सौदा" भी किसी वैकल्पिक राजनीति की नींव नहीं रखता। इसलिए, राजनीति का संकट आज पहले से कहीं ज्यादा गहरा है। राज्यों के विधानसभा चुनावों में जनता ने फिर बदलाव के लिए वोट दिया है। इस बदलाव की आकांक्षा के पीछे लोगों में कांग्रेस से निराशा की भूमिका अधिक रही या फिर मोदी का आकर्षण अधिक था इस पर बहस की जा सकती है। पर इस पर कोई बहस नहीं है कि लोग अब भ्रष्टाचार और संकीर्ण राजनीति से ऊब चुके हैं और उन्हें जिस तरफ भी कोई बेहतर विकल्प मिलता है वे उस तरफ चल देते हैं। इसलिए राजनेताओं के लिए ये चुनाव एक सबक हंै। क्या हैं इस चुनाव के निहितार्थ,
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भाजपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आना बताता है कि लोकसभा चुनाव के करीब पांच महीने बाद भी मतदाताओं के बीच नरेंद्र मोदी का प्रभाव कमोबेश बरकरार है। हालांकि अति आत्मविश्वास के साथ शिवसेना से पच्चीस साल पुराना गठबंधन तोड़ नरेंद्र मोदी की रैलियों के सहारे महाराष्ट्र में अपने बूते सरकार बनाने का भाजपा का सपना जिस तरह टूटा है, वह देखने लायक है। पर यह नतीजा उससे भी अधिक उन उद्धव ठाकरे के अहंकार और महत्वाकांक्षा के धूल-धूसरित होने का उदाहरण है, जिन्होंने भाजपा से अलग होने के बाद इस चुनाव को महाराष्ट्र की एकता और अस्मिता का भावुक मुद्दा बना डाला था। बल्कि इसके साथ मनसे के पराभव को भी जोड़ लें, तो यह ठाकरे बंधुओं के लिए चेतावनी है कि खुले चुनाव में क्षेत्रवाद की आक्रामक राजनीति उनका नुकसान ही करेगी। एनसीपी ने हालांकि भाजपा को बाहर से समर्थन देने का ऐलान कर स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस से अलग होने का फैसला उसने यों ही नहीं लिया था, पर चुनावी नतीजे बताते हैं कि उस गठजोड़ के खिलाफ महाराष्ट्र में वैसी सत्ता-विरोधी लहर भी नहीं थी, जैसी बताई जा रही थी। नरेंद्र मोदी के सघन प्रचार के बावजूद कांग्रेस और एनसीपी आखिर अस्सी से अधिक सीटें ले ही आई हैं। अलबत्ता हरियाणा में शानदार जीत जरूर भाजपा की विराट उपलब्धि है। जिस राज्य में भाजपा ने सहयोगियों के बगैर चुनाव नहीं लड़ा हो, और साथ लड़ते हुए भी जिसका प्रदर्शन बहुत उत्साहनजक नहीं रहा हो, वहां अकेले दम पर सभी सीटों पर चुनाव लड़कर सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें जीतकर आना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। बेशक हरियाणा में कांग्रेस की पराजय के पीछे उसकी खराब छवि और सत्ता-विरोधी लहर जिम्मेदार है, लेकिन मोदी और भाजपा के पक्ष में बने माहौल का प्रमाण यही है कि मुख्यमंत्री का चेहरा सामने न रखकर भी पार्टी ने यहां शानदार जीत हासिल कर ली है। इनेलो प्रमुख का जमानत पर बाहर आकर चुनावी रैली करना भी काम नहीं आया। हरियाणा का चुनावी नतीजा उन वंशवादी स्थानीय पार्टियों के लिए चेतावनी है, जो अपने भ्रष्टाचरण पर पर्दा डालने के लिए जातिवाद और क्षेत्रवाद का सहारा लेने सेे भी गुरेज नहीं करतीं। हरियाणा के मतदाताओं ने इस तरह की राजनीति को नकार कर बदलाव के पक्ष में वोट दिया है। लिहाजा उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए भाजपा को भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी प्रशासन पर जोर देना होगा।
दरअसल जनता में नरेंद्र मोदी ने उम्मीदों की सुनामी, आंधी पैदा की हुई है। महाराष्ट्र और हरियाणा में भी लोगों ने नरेंद्र मोदी को देख कर वोट डाला है। लोग उम्मीद में अंधे हैं, भावनाओं में बहे हुए हैं इसलिए उन्होंने अपने इलाके में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के खड़े किए गए खंभे को भी वोट डाला है। यह बात महाराष्ट्र के संदर्भ में बहुत सटीक है। इसलिए कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्ट्र जैसे इलाकों में भाजपा का कोई मतलब नहीं रहा है। प्रदेश की 288 सीटों में से भाजपा ने डेढ़ सौ सीटों पर कभी चुनाव ही नहीं लड़ा। उसके पास सभी सीटों के लिए अपने उम्मीदवार तक नहीं थे। कोई पचास उम्मीदवार दूसरी पार्टियों से तोड़ कर अमित शाह ने मैदान में उतरवाए। कई जगह भाजपा का संगठन, आरएसएस की मशीनरी कागजी रही है। इस सबके बावजूद यदि भाजपा महाराष्ट्र में जीत का रिकार्ड बनाती है तो वह उतनी ही चमत्कारित बात होगी जितनी उत्तरप्रदेश में 73 सांसदों का जीतना था।
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि मनमोहन सिंह ने चुप रह कर कांग्रेस का भट्ठा बैठाया। उनकी वजह से यह मैसेज गया कि सरकार कुछ नहीं कर रही है। इसी तरह पृथ्वीराज चव्हाण ने मुंबई में भी बैठ कर मैसेज दिया कि सरकार काम नहीं कर रही है। बाद में जब चव्हाण ने मुंह खोला, अपनी चुप्पी तोड़ी तो ऐसी बात कही, जिससे कांग्रेस का भट्ठा बैठा। उन्होंने कहा कि कार्रवाई करते तो कांग्रेस खत्म होती। विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि आदर्श घोटाले में कांग्रेस के कई नेताओं के नाम थे। इस तरह उन्होंने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी। अपनी छवि पर भी दाग लगाया और पूरी कांग्रेस व एनसीपी को बदनाम किया। महाराष्ट्र कांग्रेस और एनसीपी के नेता मान रहे हैं कि मतदान से ऐन पहले दिया गया चव्हाण का बयान कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। अब वे खुद अपने चुनाव क्षेत्र में हारते दिख रहे हैं। कांग्रेस के ही नेता मान रहे हैं कि वे तीसरे नंबर पर हैं। वहां मुकाबला निर्दलीय विलासराव उंधालकर बनाम भाजपा का है। जिस तरह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमटी है, वैसे ही पृथ्वीराज चव्हाण के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस दहाई में पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही है। कांग्रेस में जितने वाले संभावित नेताओं को उंगलियों पर गिना जा रहा है।
हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की जीत बड़ी है, जीत का ढोल भी बड़ा है। इस ढोल की पोल यह कहकर खोली जा सकती है कि महाराष्ट्र में बहुकोणीय मुकाबले के कारण भाजपा की जीत बड़ी लग रही है वरना वोट के बंटवारे के हिसाब से देखें तो जीत बड़ी नहीं है। यह भी कह सकते हैं कि दोनों राज्यों में लोकसभा चुनाव के परिणामों ने खुद को दोहराया भर है। लेकिन यह छोटी बात नहीं है। अपना मानना है कि जैसे देश में मनमोहन सरकार के खिलाफ नफरत, गुस्से में लोग पके हुए थे वैसे ही महाराष्ट्र में एनसीपी-कांग्रेस के लगातार निकम्मे-भ्रष्ट राज से भी जनता गुस्से में सालों से अंदर-अंदर खदबदा रही थी। यह गुस्सा नरेंद्र मोदी के चलते उम्मीदों की आंधी में बदला। मतलब गुस्सा था इसलिए मोदी से उम्मीद जगी। जनता गुस्से से पहले अंधी हुई और फिर नरेंद्र मोदी को ले कर जज्बे में बही।
इस जज्बे, आंधी में नरेंद्र मोदी, अमित शाह की हिंदुत्व अंतरधारा याकि अंडरकरंट अंतरनिहित है। आंधी हिंदू वोटों के धुव्रीकरण की भी है। यह छत्रपति शिवाजी के सपनों को दिल्ली में साकार कराने की अमित शाह की ललकार के चलते है। ध्यान रहे अमित शाह ने हर सभा में शिवसेना को इसी बात पर काटा कि वे शिवाजी (उद्धव ठाकरे) को महाराष्ट्र में बांधते हैं और हम उन्हें दिल्ली, पूरे भारत का मानते हैं। मतलब राजनैतिक पंडित यह जो कह रहे हैं कि मोदी से उम्मीद विकास के वायदे पर बनी। हिंदू अंडरकरंट नहीं है और इन चुनावों में आदित्यनाथ ने प्रचार नहीं किया, लव जेहाद को मुद्दा नहीं बनाया गया। यानी उपचुनावों की हार से सबक सीखते हुए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने अपने को बदला है और अपनी रणनीति भी बदली है।
एक ऎसे वक्त में जब राज्य ही राजनीति का केंद्र है, लोकसभा चुनावों की बढ़त को विधानसभा चुनावों में बनाए रखना अपने आप में महत्वपूर्ण है। गठबंधन टूटने के बावजूद बढ़त बरकरार रही, यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है। लेकिन असल सवाल यह नहीं कि भाजपा की जीत कितनी बड़ी या कांग्रेस की हार कितनी गहरी है। असल सवाल यह है कि हरियाणा और महाराष्ट्र के जनादेश से क्या बदला? जाहिर है चंडीगढ़ और मुंबई में ही नहीं, दिल्ली में भी सत्ता का समीकरण बदलेगा। सिर्फ तात्कालिक रूप से ही नहीं बल्कि दीर्घकाल में भी। राज्यों का चुनावी मानचित्र पुनर्परिभाषित होगा। लेकिन, क्या राज और नीति का रिश्ता बदलेगा? राजनीति का व्याकरण बदलेगा? इस बदलाव से जो नया घट रहा है, वह क्या विकल्प की दिशा में ले जाएगा?
तात्कालिक तौर पर शक्ति-संतुलन में बदलाव सुनिश्चित है। इस बीच सत्ताधारी गठबंधन उपचुनावों की हार के झटकों से उबरते हुए मजबूत हुआ है। गठबंधन के भीतर भाजपा ने वर्चस्व कायम किया। गठबंधन में शामिल कोई भी दल चुनाव, संसद या फिर सरकार में भाजपा की मुखालफत करने का साहस नहीं कर सकता। शिवसेना का कद घटा है। हजकां खत्म हुई है।
हरियाणा में विधानसभा चुनाव में आए नतीजों को देखते हुए मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पार्टी की हार स्वीकार कर ली है। हरियाणा के कांग्रेस की करारी हार के बाद भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल कप्तान सिंह सौलंकी को सौंपा। इससे पूर्व हुड्डा ने रोहतक में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि देश में प्रजातंत्र है और वह जनादेश का सम्मान करते हैं. उन्होंने कहा कि राज्य की जनता ने उन्हें दस वर्ष सेवा करने का मौका दिया उसके लिए वह आभार व्यक्त करते हैं। उनकी सरकार ने राज्य में अभूतपूर्व विकास कार्य किए हैं और जो कार्य चल रहे हैं उन्हें उम्मीद है कि उन्हें राज्य में बनने वाली भारतीय जनता पार्टी की अगली सरकार जारी रखेगी। उन्होंने भाजपा को उसकी जीत पर शुभकामनाएं भी दीं और चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। उधर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजधानी के पंत मार्ग स्थित बंगले में स्नाता पसरा हुआ है। हालांकि आमतौर पर यहां पर भी चहल-पहल रहती है। दरअसल यह बंगला उनके सांसद पुत्र को आवंटित है। हरियाणा के 90 सीटों में से अभी तक मिले 81 नतीजों में भाजपा को 47, इनेलो को 19, कांग्रेस को 15 सीटें, हजकां को दो और अन्य को 7 सीटें मिली हैं।
भाजपा ने एनडीए की बैसाखियों को छोड़कर राष्ट्रीय फैलाव की तैयारी शुरू की। एनडीए के अंदर भाजपा सब कुछ होती जा रही है। हरियाणा में भाजपा की जीत एक स्थायी सरकार की ओर ले जा रही है जिससे लोगों में उम्मीदें जगना लाजमी है लेकिन जब हम भाजपा के घोषणापत्र पर नजर डालते हैं तो उनकी नीयत और गंभीरता पर शंका होती है। लोकसभा चुनावों में भाजपा कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने की बात करती है तो हरियाणा विधान सभा चुनावों में ठीक इसके उलट वादा कर देती है। उधर कांग्रेस में बेताल फिर से अपनी डाल पर जा बैठा है, उपचुनावों से जो भी थोड़ी बहुत राहत मिली थी वह क्षणभंगुर साबित हुई।
तात्कालिक बदलावों के चक्कर में यह ना भूल जायें कि इन चुनाव परिणामों के कुछ दूरगामी असर भी होने वाले हैं। इन दोनों राज्यों में राजनीतिक मुकाबले का स्वरूप बहुत गहराई तक बदल सकता है। हरियाणा में मामला त्रिकोणीय दिखा। इनेलो और कांग्रेस की स्थिति सामने है। इनेलो परिवार जेल में है और इस लिहाज से वह प्रदेश में भाजपा की दयादृष्टि पर आश्रित नजर आ रहा है। कांग्रेस अपना सामाजिक आधार खो रही है और उसे अपने को विपक्ष के रूप में बचाये रखना मुश्किल हो गया है। महाराष्ट्र में मामला बहुकोणीय रहा। भाजपा ने दांव चतुराई से खेला और वहां शिवसेना की चुनौती कम हो गई। लेकिन राकांपा सफल रही, उसने कांग्रेस को उसकी हैसियत बताने की सोची थी और बता दिया। वह क्षेत्रीय पार्टी के रूप में रहेगी। कांग्रेस अब महाराष्ट्र में सिमट गई है।
कांग्रेस पार्टी ने दोनों राज्यों में हार मान ली है। लेकिन हैरानी की बात है कि कांग्रेस के नेता अपने हिसाब में भी दोनों राज्यों में बहुत खराब प्रदर्शन की बात कर रहे हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस नेताओं का अंदाजा है कि खुद पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण अपनी कराड दक्षिण की सीट से चुनाव हार सकते हैं। पार्टी ने उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा था और अगर वे खुद हार रहे हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी की क्या दशा होगी! कांग्रेस के प्रदेश नेताओं का कहना है कि गिने-चुने नेता ही जीतेंगे। तभी पार्टी के नेता हुसैन दलवई ने मतदान खत्म होने के तुरंत बाद मान लिया कि कांग्रेस हार रही है। पार्टी के नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस की अब तक की सबसे बुरी हार होगी। और इसके लिए चव्हाण को जिम्मेदार ठहरा कर कांग्रेस आलाकमान से उनकी शिकायत भी शुरू हो गई है।
यहीं हाल हरियाणा में है। कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कैप्टेन अजय यादव ने हार मान ली है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी। लेकिन साथ ही उन्होंने मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ निजी खुन्नस भी जाहिर कर दी। उन्होंने कहा कि क्षेत्रवाद का मुद्दा भी हावी रहा, इसलिए ज्यादातर क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट नहीं मिले। उन्होंने पहले भी आरोप लगाया था कि हुड्डा ने सिर्फ रोहतक और आसपास के इलाकों में विकास किया है। नतीजे आने से पहले ही हरियाणा में हुड्डा विरोधी नेता एकजुट हो गए हैं और उनकी शिकायत लेकर कांग्रेस आलाकमान के पास पहुंच गए हैं।
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