सुभाष चंद्र
लोकसभा चुनाव परिणा के बाद दिल्ली में सत्ता परिवर्तन तय था, लेकिन जिस प्रकार से बिहार की राजनीति ने करवट बदला, वह कई मायने में अलग है। प्रदेष में जो सियासी स्यापा रचा गया और नेपथ्य में जदयू के अध्यक्ष षरद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने दांव खेला, उसके अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं। तीन दिन की ड्रामेबाजी और उसके बाद जो पटाक्षेप जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमाकर हुई, उसके बाद कहा जा रहा है कि जीतन राम मांझी नीतीष कुमार के मनमोहन ही साबित होंगे। यूपीए सरकार में जिस प्रकार से सोनिया गांधी ने अपने रिमोट से मनमोहन सिंह को चलाया, उसी राह पर अब नीतीष कुमार निकल पड़े हैं। सत्ता में दखल रहेगा, लेकिन जिम्मेदारी नहीं। जाहिरतौर पर ऐसे में यदि विधानसभा चुनाव में नीतीष कुमार का खूंटा-पगहा लोकसभा चुनाव की तरह ही उखड़ेगा, तो कोई भी उनसे इस्तीफे की मांग भी नहीं कर सकता है। इसे कहते हैं कि सियासत में सयानापन।
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि आखिर कौन हैं जीतन राम मांझी ? जदयू में यह कोई हाईप्रोफाइल चेहरा तो नहीं रहा ? आपको ये बता दें कि जीतन राम मांझी को नीतीश कुमार का करीबी माना जाता है। मांझी महादलित हैं और काफी अर्से बाद कोई महादलित बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठेगा। जब नीतीश कुमार पहली बार राज्य में सरकार बना रहे थे, तब भी जीतन राम मांझी का नाम मंत्रियों की सूची में शामिल था, लेकिन उन पर एक शिक्षा घोटाले के आरोप लगे थे, जिस कारण उनका नाम कट गया और उन्हें रातोरात इस्तीफा देना पड़ा। बाद में वह घोटाले के आरोपों से बरी हो गए और राज्य में मंत्री बने।
हम आपको यह भी बता दें कि बिहार के नए मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी बाल मजदूरी से जीवन की शुरुआत की, फिर दफ्तारों में क्लर्की करते-करते विधायक और मंत्री बने। अब वही मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। महादलित मुसहर समुदाय से आने वाले जीतन राम मांझी का जन्म बिहार के गया जिले के महकार गांव में एक मजदूर परिवार में 6 अक्टूबर 1944 को हुआ। पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण खेतिहर मजदूर पिता ने उन्हें जमीन मालिक के यहां काम पर लगा दिया। वहां मालिक के बच्चों के शिक्षक के प्रोत्साहन एवं पिता के सहयोग से सामाजिक विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। उन्होंने सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई बिना स्कूल गए पूरी की। बाद में उन्होंने हाई स्कूल में दाखिला लिया और सन् 1962 में सेकेंड डिवीजन से मैट्रिक पास किया। 1966 में गया कॉलेज से इतिहास विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए आगे की पढ़ाई रोक कर उन्होंने एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी शुरू कर दी और 1980 तक वहां काम किया। उसी वर्ष नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वह राजनीति से जुड़ गए। बिहार में दलितों के लिए उन्होंने विशेष तौर पर काम किया। उनके प्रयास से दलितों के लिए बजट में खासा इजाफा हुआ। वर्ष 2005 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए बिहार सरकार का बजट 48 से 50 करोड़ रुपये का होता था, जो कि 2013 में 1200 करोड़ रुपये का हो गया। वर्ष 2005 में बिहार का जितना संपूर्ण बजट हुआ करता था, आज उतना सिर्फ दलित समुदाय के लिए होता है। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि महादलित समुदाय से आने वाले मांझी के मुख्यमंत्री बनने से इस समुदाय का फिर से उन्हें समर्थन मिलेगा।
दरअसल, बिहार में सियासी दांव-पेंच को एक लाइन में कहें, तो यह नैतिकता के आवरण में अहंकार की लड़ाई रही। आखिर, अचानक उन्हें नैतिकता की याद कैसे आ गई ? कई मौके सात-आठ साल में आया, लेकिन एक बार भी नैतिकता की बात नहीं आई। लोकसभा चुनाव परिणाम आया और सटक सीता राम... याद कीजिए, पटना में बम धमाका, राजगीर और बौद्ध गया में धमाका। छपरा में मिड डे मिल हादसा। बिहार के सैनिकों का पाकिस्तानियों द्वारा जघन्य हत्या और पटना में सम्मान देने के लिए नीतीष का क्या उनके कुनबे का एक भी मंत्री का न जाना। एक गया, तो कैसे बोल बोल गया था ? उनकी नैतिकता तब कहां गई, जब सरेआम ब्रहमेष्वर मुखिया की हत्या कर दी गई ? क्या तब नीतीष में नैतिकता नहीं थी ? दरअसल, अब प्रोटोकोल के तहत नीतीष कुमार के भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने झुकना पड़ता, तो वे वहां क्या करते ? कैसे अपने कथित वोट बैंक और टोपी की सुरक्षा करते ? सही मायने में यह नीतीष की नैतिकता नहीं, बल्कि अहंकार है कि उन्होंने इस्तीफा के माध्यम से सियासी स्यापा किया है।
16 मई को लोकसभा चुनाव का परिणाम आता है। 17 मई को नीतीश कुमार इस्तीफा देते हैं, विधानसभा भंग करने की मांग नहीं करते हैं। 18 मई को करीब ढाई घंटे तक चली जदयू बैठक का नतीजा यही निकला कि अगले दिन दोबारा जदयू विधायक बैठेंगे। आखिर क्यों ? जब इस्तीफा दे दिया, तो मंथन क्यों ? नैतिकता के आवरण में खुद को महान साबित करने की कोषिष है या कुछ और ? अब जरा, जदयू के अंदर की स्थितियों की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि अध्यक्ष भले ही शरद यादव हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनकी एक नहीं चली थी। खुद मधेपुरा से हार भी चुके हैं और पार्टी पर कोई खास पकड़ भी नहीं है। ऐसे में इनकी कितनी सुनी जाएगी, कहा नहीं जा सकता। ये नैतिकता की दुहाई थी या सियासी शतरंज पर खुद को मजबूत करने की चाल। 2005 से नीतीश लगातार बिहार के मुख्यमंत्री थे। लोकसभा चुनाव में पार्टी बीस से सीधे दो सीट पर पहुंच गई, तो नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने से पहले ही नीतीश ने इस्तीफा दे दिया। जिस सेक्युलरिज्म की चादर ओढकर नीतीश इस चुनाव की नैया पार करना चाह रहे थे, वही दांव उन पर उल्टा पड़ गया। कहां तो नीतीश भाजपा का साथ छोड़ने के बाद पीएम पद के दावेदार तक बने हुए थे। लेकिन नतीजों ने नीतीश की राजनीति का रुख ही मोड़ दिया और वह पार्टी के भीतर अपना रास्ता दोबारा तलाश रहे हैं। उल्ललेखनीय है कि 20 साल पहले 1994 में जनता दल छोड़कर नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन किया था। 1996 में नीतीश ने भाजपा से समझौता किया और तब से पिछले साल तक बिहार में दोनों का गठबंधन था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पर जैसे ही भाजपा ने पिछले साल नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार का जिम्मा सौंपा नीतीश ने 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। नीतीश तब से लेकर चुनाव नतीजों तक सेक्युलरिज्म की दुहाई देते ,रहे लेकिन आखिरकार उनको मुंह की खानी पड़ी। गौर करने योग्य तो यह भी है कि जिस गुजरात दंगे को लेकर नीतीश ने नरेंद्र मोदी से दूरी बनाई उन दंगों के वक्त नीतीश केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। तब गुजरात जाकर नीतीश ने एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी की तारीफ तक की थी, जिसका वीडियो दोनों के अलग होने पर पिछले साल भाजपा ने जारी किया था। लेकिन जब नीतीश 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने धर्मनिरपेक्ष का कार्ड खेला और 2010 के बिहार चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रचार तक नहीं करने दिया। इससे पहले 2008 में कोसी नदी में आए बाढ़ के बाद नीतीश कुमार ने बाढ़ राहत के लिए गुजरात सरकार का भेजा पैसा लौटा दिया था। 2009 में लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए की महारैली में नीतीश और मोदी गले मिले थे, लेकिन उसके बाद यही तस्वीर 2010 चुनाव से ठीक पहले जब पटना में अखबारों में छपे थे, तो नीतीश ने मोदी के साथ होने वाले भोज को रद्द कर दिया था और जब रिश्ते तल्ख हुए तो हमले पर हमले होते चले गए।
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