कुछ रिश्ते विरासत में मिलते हैं, जो जन्म से निर्रधारित होते हैं। कुछ रिश्ते बनाए जाते हैं, पर अटूट हो जाते हैं। भाई -बहन के रिश्ते जो कभी जन्म से बनते हैं, उन पर भी भारी पड़ जाते है धर्म के रिश्ते। अनमोल होते हैं ये भाई-बहन के रिश्ते। प्रसिद्ध विचारक एमी ली भी कहती हैं कि बहन एक ऐसी मि?त्र है, जि?ससे आप बच नहीं सकते। आप जो करते हैं, वो सब बहनों को पता रहता है।
जी हां, आज जब कंप्यूटर के की-बोर्ड पर टिपिर-टिपिर करना शुरू किया, तो अतीत के गलियारों में से आवाजें आने लगी बचपन की शरारतों की। हमारी स्मृति में धुंधली-सी, पर यादगार तस्वीरें आने लगी अपने बचपन की। भाई-बहन की उन शरारतों की, जिसे याद करते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और खुल जाती है दास्तां भाई-बहन के प्यार की। वाकई, भाई-बहन का नाता प्रेम व स्नेह का होता है। इस रिश्ते में हमारा बचपन कैद होता है, जिसे हमने बे?फिक्र होकर पूरे आनंद से जिया है।
हालांकि, आज हम रिश्तों के कई पायदानों पर चढ़ गए हैं, परंतु हम अपना सुनहरा बचपन नहीं भूले हैं। आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं। महानगरों का अपना मिजाज होता है। हरेक क्रिया-कलाप का अपना स्वभाव। हमारे कार्यों से हमारे संबंध तय होते हैं। घर से हजारों किलोमीटर दूर जब जीवनयापन के लिए हम निकल पड़ते हैं, तो कई संबंधों पर धुंधलका छाने लगता है। व्यक्तिगत जीवन से निकल कर जब हम व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करते हैं, तो पुराने मानदंड छीजने लगते हैं। नए बनते चले जाते हैं। संबंधों के साथ भी कमोबेश यही होता है। अधिकतर गांव में रह गए, कुछ शहरों में। बाकी को लेकर महानगर आ पहुंचा। यहां की आबोहवा इतना समय नहीं देती कि अतीत में गोते लगाया जाए। इसका मतलब यह नहीं कि संबंधों को बिसरा दिया जाए।
मेरा तो यही मानना है कि जीवन में, रिश्तों में आत्मीयता का होना लाजिमी है। यदि यह नहीं है, तो सब बेकार। ऐसा ही सबसे पवित्र रिश्ता है बहन से। यह ?रिश्ता आत्मीयता का रिश्ता होता है, जिसे दिल से जिया जाता है। बचपन तो भाई-बहन की नोक-झोंक व शरारतों में गुजर जाता है। भाई-बहन के रिश्ते की अहमियत तो हमें तब पता लगती है, जब हम युवा होते हैं। जब हमारे बच्चे होते हैं। उनकी शरारतें हमें फिर से अपने बचपन में ले जाती हैं। हर रक्षाबंधन पर बहन, भाई का बेसब्री से इंतजार करती है और भाई भी मीलों के फासले तय करके अपनी बहन को लेने जाता है। यही नहीं हर त्योहार पर बधाइयां देकर एक-दूजे के सुखी जीवन की कामना करते हैं। मां-बाप की डांट-फटकार से अपने प्यारे भाई को बचाना हो या चुपके-चुपके बहन को कहीं घुमाने ले जाना हो... यह सब भाई-बहन को बखूबी आता है।
आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं और ऐसा होना भी चाहिए।
दिल्ली जैसे शहरों में कई रिश्ते बनते तो हैं प्रोफेशनली, मगर बन जाते हैं आत्मीय। प्रेम से परिपूर्ण। बेलौस। नाम चाहे कुछ भी रख लीजिए। धर्म का। समाज का। अपना। जो आपका मन करे। ऐसा मेरे साथ भी है उसका। बहन-भाई का। न तो क्षेत्र आड़े आई। न प्रांत। न ही बोली और न जात। न खान-पान और न संस्कृति। सबकुछ पारदर्शी। मेरी भी ऐसी ही बहन है। (यहां उसका नाम देकर उसकी ‘महत्ता’ को कम नहीं करना चाहता)
मुझे आज भी याद है एक कविता, जो मैंने पहले पढ़ी थी।
मां की कोख से
पैदा हुई लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्?ते का भी नाम है
जो पुरुष को मां के बाद
पहली बार
नारी का सामीप्?य और स्?नेह देता है
बहन
कलाई पर राखी बांधने वाली
लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्ते का भी नाम है
जो पीले धागे को पावन बनाता है
एक नया अर्थ देता है
मां
पुरुष की जननी है
और पत्नी जीवन-संगिनी
पुरुष के नारी-संबंधों के
इन दो छोरों के बीच
पावन गंगा की तरह बहती
नदी का नाम है
बहन।
जी हां, कवि ने कम शब्दों में पूरे मर्म को उकेर कर रख दिया है। मेरी तो बस यही कामना है कि यह प्यार, यह स्नेह ताउम्र बना रहे। भाई-बहन एक-दूसरे का साथ जीवनभर निभाएं। रिश्ते की इस डोर को प्यार व समझदारी से थामें रखें। ताकि रिश्तों में मधुरता सदैव बरकरार रहे। आज भी याद है एक वाकया... क्या पैसे मिलना जरूरी है राखी पर? भाई बहन के सिर पर हाथ रख रख देता है, तो बहन को सब मिल जाता है। बहन जब भाई को एक टिका लगाती है माथे पर, भाई की किस्मत ऊंचे मुकाम को चूमे, बस यही दुआ करती है।
समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। जब हमारी जीवन पद्धति बदलेगी तो त्योहार के रंग-ढंग भी बदलेंगे। वैसे कई बार लगता है कि त्योहार का असली उत्साह बचपन में ही होता है। जब हम छोटे थे तो रक्षाबंधन मनाने का एक अलग ही जोश रहा करता था। बड़े होने के बाद वह बात नहीं रह जाती क्योंकि हम सब का जीवन बदल जाता है। दिनचर्या बदल जाती है। जिम्मेदरियों का बोझ किसी त्योहार के रस को कम कर देता है। लेकिन बात त्योहार मनाने की ही नहीं है। क्या रिश्तों में वही अहसास बचा हुआ है? आजकल अखबारों में जो खबरें पढ़ने को मिलती हैं या आसपास की बातों से जो पता चलता है, उससे यही लगता है कि बड़े होने के बाद भाई-बहनों के बीच आत्मीयता की मिठास कम हो जाती है। भाई बहनों के रिश्ते में भी स्वार्थ आ जाता है। कई बार सुनने को मिला कि भाई ने संपत्ति हासिल करने के लिए बहनों के खिलाफ तरह-तरह के षडयंत्र किए या उन पर अनुचित तरीके से दबाव डाला। हालांकि बहनें हमेशा भाई के प्रति स्नेह का वही भाव रखती हैं जो बचपन में उनमें रहता है। बहनें तो भाइयों की सलामती की, तरक्की की दुआ करती रहती है पर कई भाई ही अपना वचन भुला देते हैं।
बीता वर्ष उससे विक्षोभ का था। न तो कोई कुशलक्षेम और न ही कोई सूचना। सन्नाटा। बिलकुल सन्नाटा। वाकई, तेरह शुभ नहीं होता क्या! लेकिन जैसे ही 2014 की पहली किरण आई, ईश्वर की कृपा से सबकुछ सामान्य हो गया। विश्वास पहले से अधिक। भरोसा पहले से कई गुना अधिक। उसका मुझपर, मेरा उस पर। जिस जीवन गति को कहीं भूल गया था, फिर से उसी गति का संचार हो गया।
ओशो भी कहते हैं कि पत्नी का प्रेम, पति का प्रेम; भाई का, बहन का, पिता का, मां का, इस जगत के सारे प्रेम बस प्रेम की शिक्षणशाला हैं। यहां से प्रेम का सूत्र सीख लो। लेकिन यहां का प्रेम सफल होने वाला नहीं है, टूटेगा ही। टूटना ही चाहिए। वही सौभाग्य है! और जब इस जगत का प्रेम टूट जाएगा, और इस जगत का प्रेम तुमने मुक्त कर लिया, इस जगत के विषय से तुम बाहर हो गए, तो वही प्रेम परमात्मा की तरफ बहना शुरू होता है। वही प्रेम भक्ति बनता है। वही प्रेम प्रार्थना बनता है।
हमारी इच्छा होती है कि कभी टूटे न।
कभी तिलिस्म न टूटे मेरी उम्मीदों का...
कोई हमसे पूछे, भाई-बहन का प्यार। मैं उससे जी जान से प्यार करता हूं। वह भी मुझे उतना ही चाहती है। छोटी-छोटी बातों को भी हम आपस में शेयर करते हैं। उससे जो आत्मसंतुष्टि होती है, वह अवर्णनीय है। न तो समय की पाबंदी और न ही साधन का टोटा। मोबाइल ने फासले मिटा दिए हैं। एक-दूसरे को हम अच्छी तरह समझते हैं। हमारी अंडरस्टेंडिंग बहुत अच्छी है। प्रेम में आपकी उपस्थिति जरूरी है, वही सुख-दुख में साथ देता है। न कि लेन-देन। हमने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। कई बातें हम बिना कहे समझ जाते हैं। मैं सुखी तो वह सुखी। वह दुखी तो मैं दुखी। क्या इसी को टेलीपैथी कहते हैं। झूठ नहीं। मुझे स्वयं बहुत आश्चर्य होता है कि हमारी सोच इतनी कैसे मिलती है? भाई-बहन का जो प्रेम का बंधन है, वह बड़ा ही अटूट बंधन होता है। लोग कहते हैं कि प्रेम में स्वार्थ छुपा होता है, पर हमारा प्रेम तो पवित्र और निस्वार्थ है। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हमारा रिश्ता ऐसा ही बना रहे। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही है, प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। हम मोबाइल और कंप्यूटर के जरिए मिलते हैं। हम दोनों को एक-दूसरे से कोई शिकायत नहीं। रक्षाबंधन के दिन सिर्फ राखी बांधना, उस दिन याद करना प्रेम नहीं। सच्चा स्नेह आंतरिक होता है। ये किसी चीज का मोहताज नहीं। बस, उसके लिए केवल इतना ही कहना चाहूंगा, ‘ हर एक बहन जरूरी है...’
जी हां, आज जब कंप्यूटर के की-बोर्ड पर टिपिर-टिपिर करना शुरू किया, तो अतीत के गलियारों में से आवाजें आने लगी बचपन की शरारतों की। हमारी स्मृति में धुंधली-सी, पर यादगार तस्वीरें आने लगी अपने बचपन की। भाई-बहन की उन शरारतों की, जिसे याद करते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और खुल जाती है दास्तां भाई-बहन के प्यार की। वाकई, भाई-बहन का नाता प्रेम व स्नेह का होता है। इस रिश्ते में हमारा बचपन कैद होता है, जिसे हमने बे?फिक्र होकर पूरे आनंद से जिया है।
हालांकि, आज हम रिश्तों के कई पायदानों पर चढ़ गए हैं, परंतु हम अपना सुनहरा बचपन नहीं भूले हैं। आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं। महानगरों का अपना मिजाज होता है। हरेक क्रिया-कलाप का अपना स्वभाव। हमारे कार्यों से हमारे संबंध तय होते हैं। घर से हजारों किलोमीटर दूर जब जीवनयापन के लिए हम निकल पड़ते हैं, तो कई संबंधों पर धुंधलका छाने लगता है। व्यक्तिगत जीवन से निकल कर जब हम व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करते हैं, तो पुराने मानदंड छीजने लगते हैं। नए बनते चले जाते हैं। संबंधों के साथ भी कमोबेश यही होता है। अधिकतर गांव में रह गए, कुछ शहरों में। बाकी को लेकर महानगर आ पहुंचा। यहां की आबोहवा इतना समय नहीं देती कि अतीत में गोते लगाया जाए। इसका मतलब यह नहीं कि संबंधों को बिसरा दिया जाए।
मेरा तो यही मानना है कि जीवन में, रिश्तों में आत्मीयता का होना लाजिमी है। यदि यह नहीं है, तो सब बेकार। ऐसा ही सबसे पवित्र रिश्ता है बहन से। यह ?रिश्ता आत्मीयता का रिश्ता होता है, जिसे दिल से जिया जाता है। बचपन तो भाई-बहन की नोक-झोंक व शरारतों में गुजर जाता है। भाई-बहन के रिश्ते की अहमियत तो हमें तब पता लगती है, जब हम युवा होते हैं। जब हमारे बच्चे होते हैं। उनकी शरारतें हमें फिर से अपने बचपन में ले जाती हैं। हर रक्षाबंधन पर बहन, भाई का बेसब्री से इंतजार करती है और भाई भी मीलों के फासले तय करके अपनी बहन को लेने जाता है। यही नहीं हर त्योहार पर बधाइयां देकर एक-दूजे के सुखी जीवन की कामना करते हैं। मां-बाप की डांट-फटकार से अपने प्यारे भाई को बचाना हो या चुपके-चुपके बहन को कहीं घुमाने ले जाना हो... यह सब भाई-बहन को बखूबी आता है।
आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं और ऐसा होना भी चाहिए।
दिल्ली जैसे शहरों में कई रिश्ते बनते तो हैं प्रोफेशनली, मगर बन जाते हैं आत्मीय। प्रेम से परिपूर्ण। बेलौस। नाम चाहे कुछ भी रख लीजिए। धर्म का। समाज का। अपना। जो आपका मन करे। ऐसा मेरे साथ भी है उसका। बहन-भाई का। न तो क्षेत्र आड़े आई। न प्रांत। न ही बोली और न जात। न खान-पान और न संस्कृति। सबकुछ पारदर्शी। मेरी भी ऐसी ही बहन है। (यहां उसका नाम देकर उसकी ‘महत्ता’ को कम नहीं करना चाहता)
मुझे आज भी याद है एक कविता, जो मैंने पहले पढ़ी थी।
मां की कोख से
पैदा हुई लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्?ते का भी नाम है
जो पुरुष को मां के बाद
पहली बार
नारी का सामीप्?य और स्?नेह देता है
बहन
कलाई पर राखी बांधने वाली
लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्ते का भी नाम है
जो पीले धागे को पावन बनाता है
एक नया अर्थ देता है
मां
पुरुष की जननी है
और पत्नी जीवन-संगिनी
पुरुष के नारी-संबंधों के
इन दो छोरों के बीच
पावन गंगा की तरह बहती
नदी का नाम है
बहन।
जी हां, कवि ने कम शब्दों में पूरे मर्म को उकेर कर रख दिया है। मेरी तो बस यही कामना है कि यह प्यार, यह स्नेह ताउम्र बना रहे। भाई-बहन एक-दूसरे का साथ जीवनभर निभाएं। रिश्ते की इस डोर को प्यार व समझदारी से थामें रखें। ताकि रिश्तों में मधुरता सदैव बरकरार रहे। आज भी याद है एक वाकया... क्या पैसे मिलना जरूरी है राखी पर? भाई बहन के सिर पर हाथ रख रख देता है, तो बहन को सब मिल जाता है। बहन जब भाई को एक टिका लगाती है माथे पर, भाई की किस्मत ऊंचे मुकाम को चूमे, बस यही दुआ करती है।
समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। जब हमारी जीवन पद्धति बदलेगी तो त्योहार के रंग-ढंग भी बदलेंगे। वैसे कई बार लगता है कि त्योहार का असली उत्साह बचपन में ही होता है। जब हम छोटे थे तो रक्षाबंधन मनाने का एक अलग ही जोश रहा करता था। बड़े होने के बाद वह बात नहीं रह जाती क्योंकि हम सब का जीवन बदल जाता है। दिनचर्या बदल जाती है। जिम्मेदरियों का बोझ किसी त्योहार के रस को कम कर देता है। लेकिन बात त्योहार मनाने की ही नहीं है। क्या रिश्तों में वही अहसास बचा हुआ है? आजकल अखबारों में जो खबरें पढ़ने को मिलती हैं या आसपास की बातों से जो पता चलता है, उससे यही लगता है कि बड़े होने के बाद भाई-बहनों के बीच आत्मीयता की मिठास कम हो जाती है। भाई बहनों के रिश्ते में भी स्वार्थ आ जाता है। कई बार सुनने को मिला कि भाई ने संपत्ति हासिल करने के लिए बहनों के खिलाफ तरह-तरह के षडयंत्र किए या उन पर अनुचित तरीके से दबाव डाला। हालांकि बहनें हमेशा भाई के प्रति स्नेह का वही भाव रखती हैं जो बचपन में उनमें रहता है। बहनें तो भाइयों की सलामती की, तरक्की की दुआ करती रहती है पर कई भाई ही अपना वचन भुला देते हैं।
बीता वर्ष उससे विक्षोभ का था। न तो कोई कुशलक्षेम और न ही कोई सूचना। सन्नाटा। बिलकुल सन्नाटा। वाकई, तेरह शुभ नहीं होता क्या! लेकिन जैसे ही 2014 की पहली किरण आई, ईश्वर की कृपा से सबकुछ सामान्य हो गया। विश्वास पहले से अधिक। भरोसा पहले से कई गुना अधिक। उसका मुझपर, मेरा उस पर। जिस जीवन गति को कहीं भूल गया था, फिर से उसी गति का संचार हो गया।
ओशो भी कहते हैं कि पत्नी का प्रेम, पति का प्रेम; भाई का, बहन का, पिता का, मां का, इस जगत के सारे प्रेम बस प्रेम की शिक्षणशाला हैं। यहां से प्रेम का सूत्र सीख लो। लेकिन यहां का प्रेम सफल होने वाला नहीं है, टूटेगा ही। टूटना ही चाहिए। वही सौभाग्य है! और जब इस जगत का प्रेम टूट जाएगा, और इस जगत का प्रेम तुमने मुक्त कर लिया, इस जगत के विषय से तुम बाहर हो गए, तो वही प्रेम परमात्मा की तरफ बहना शुरू होता है। वही प्रेम भक्ति बनता है। वही प्रेम प्रार्थना बनता है।
हमारी इच्छा होती है कि कभी टूटे न।
कभी तिलिस्म न टूटे मेरी उम्मीदों का...
कोई हमसे पूछे, भाई-बहन का प्यार। मैं उससे जी जान से प्यार करता हूं। वह भी मुझे उतना ही चाहती है। छोटी-छोटी बातों को भी हम आपस में शेयर करते हैं। उससे जो आत्मसंतुष्टि होती है, वह अवर्णनीय है। न तो समय की पाबंदी और न ही साधन का टोटा। मोबाइल ने फासले मिटा दिए हैं। एक-दूसरे को हम अच्छी तरह समझते हैं। हमारी अंडरस्टेंडिंग बहुत अच्छी है। प्रेम में आपकी उपस्थिति जरूरी है, वही सुख-दुख में साथ देता है। न कि लेन-देन। हमने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। कई बातें हम बिना कहे समझ जाते हैं। मैं सुखी तो वह सुखी। वह दुखी तो मैं दुखी। क्या इसी को टेलीपैथी कहते हैं। झूठ नहीं। मुझे स्वयं बहुत आश्चर्य होता है कि हमारी सोच इतनी कैसे मिलती है? भाई-बहन का जो प्रेम का बंधन है, वह बड़ा ही अटूट बंधन होता है। लोग कहते हैं कि प्रेम में स्वार्थ छुपा होता है, पर हमारा प्रेम तो पवित्र और निस्वार्थ है। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हमारा रिश्ता ऐसा ही बना रहे। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही है, प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। हम मोबाइल और कंप्यूटर के जरिए मिलते हैं। हम दोनों को एक-दूसरे से कोई शिकायत नहीं। रक्षाबंधन के दिन सिर्फ राखी बांधना, उस दिन याद करना प्रेम नहीं। सच्चा स्नेह आंतरिक होता है। ये किसी चीज का मोहताज नहीं। बस, उसके लिए केवल इतना ही कहना चाहूंगा, ‘ हर एक बहन जरूरी है...’
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