शनिवार, 25 दिसंबर 2010

दूसरी आजादी के नाम पर दूसरी बरबादी आ रही है

:- कमेलश्वर


पुस्तकों की दुनिया की कुछ मजेदार खबरें इधर मिली हैं। दूसरी आजादी के दौरान देशभर की सभी भाषाओं में कुल 19659 किताबें छपी हंैै। यह संपूर्ण क्रांति न सही, संपूर्ण आजादी के दौरान हमने हासिल किया हैै। तब जबकि विचारों पर अंकुश था, सेंसर लागू था और घोषित आपातकाल चल रहा था, उस समय देशभर में, सभी भाषाओं में, 21,922 पुस्तकें छपी थी । यानि 2,263 किताबें ज्यादा छपी थीं। लगता है कि यह आजादी आते ही हमारी मानसिक भूख एकाएक बहुत कम हो गयी, या वैचारिक आजादी पाते ही देश ने लिखना और सोचना कम कर दिया है।

दूसरी आजादी के दौरान (सनï्ï 77-78 में) हिन्दी की 2,382 पुस्तकें छपी हैं और अंग्रेजी की 9,922। इस देश में जिसमें 14-15 करोड़ उर्दू भाषी हैं, उनके लिए कुल 154 किताबें छपी हैं। बिहार - जहां से लोकनायक की संपूर्ण क्रांति मार्च सन्ï 77 में चली थी, वह पता नहीं आरा, बलिया या जौनपुर में कहां अटक गई ? उस संपूर्ण क्रांतिकारी बिहार में सन्ï 77-78 में कुल 378 किताबें छपी हैैं जबकि उसके मुकाबले केरल जैसे छोटे प्रदेश ने 870 किताबें छापी हैं और पंजाब में 516 ।

वह प्रदेश जहां संपूर्ण क्रांति की शीत लहर इस समय लहरा रही है, यानि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और हिमाचल - इन सब प्रदेशों ने मिलकर कुल 4,270 किताबें छापी हैैं। पुस्तकों - यानि विचारों की दुनिया का यह हाल हमारी जनता सरकार के दौरान रहा है। इसी सरकार के दौरान अंग्रेजी में जो 9,922 पुस्तकें छपी हैं , वे ज्यादातर आपातकाल के बारे में लिखीा और लिखवायी गयी हैैं। आपातकाल के बारे में जितनी पुस्तकें अंग्रेजी में आई हैं, वे सब मुनाफे की दृष्टि से प्रकाशकों ने नहीं छापी हैें, बल्कि आपातकालीन विवरण छाप-छाप कर प्रकाशकों ने दूसरे मुनाफे पर नजर रखी है।

दूसरी आजादी के दौरान यह दूसरा मुनाफा बहुत अहम हो गया है। हमारे जितने साहित्यकार, कलाकार, विचारक , लेखक , कवि, पत्रकार इस दूसरी आजादी की तरफ भागे थे - उन्हें इस दूसरे मुनाफे का उतना पता नहीं था। हमारा पढ़ा-लिखा तबका तो दूसरी आजादी के लिए भागा ही था, पर उन्हीें के साथ कुुछ ऐसे लोग भी दौड़ रहे थे, जिनके लिए आजादी अहम नहीं थी- मुनाफा अहम था। अब खासतौर से हिन्दी में वे लोग भी पछता रहे हैं जो आजादी के लिए दूसरी बार दौड़े थे। आजादी के लिए दौडऩा गलत या बुरा नहीं है, पर हर बार आजादी गलत क्यों हो जाती है - सोचने का मसला यह हैै? यह दूसरी आजादी (हम जो आजादी से सहमत, पर दूसरी आजादी वाले कुुछ तत्वों से पूर्णत: असहमत) , इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ जयप्रकाश, कृपालानी, मोरारजी, बालासाहब देवरस, तारकुण्डे, पालकीवाला, चरणसिंह नाम के व्यक्तियों के लिएउ नहीं लाए थे -पूरे देश के लिए लाए थे।

देश का वह पूरा हिन्दी प्रदेश और पंजाब, जो दूसरी आजादी का गढ़ है- वह इस आजादी के बाद कुल 4,720 किताबें छापता है- 38 करोड़ लोगों के लिए। जबकि पश्चिम बंगाल जैसा सी.पी.एम. शासित राज्य अकेले 2,978 पुस्तकें छापता है। यह हाल है बुद्घिजीवी की दुनिया का।


एक तरफ राष्टï्रीय पुस्तक ग्रंथागार कलकत्ता यह सूचना देता है और हम सोचते रह जाते हैं कि आखिर दूसरी आजादी में इस देश के साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल को कौन-सा लकवा मार गया हैै?
इस लकवे की सूचना बम्बई पुलिस की एक रिपोर्र्ट ने दी है। बम्बई पुलिस की सूचना के मुताबिक इस समय देश में विदेशी अश£ील साहित्य की बाढ आयी हुई हैै। सन्ï 77-78 में अनुमानत: अंग्रेजी का विदेशी अश£ील साहित्य जो इस देश के तटों पर उतरा है - उसकी संख्या करीब 2 लाख पुस्तकें हैं।
अब सोचिए कि पूरा देश मिलकर 77-78 में कुल 19,659 किताबेें छापता है और उसी देश में विदेशी अश£ील साहित्य की 2 लाख किताबें बिकने के लिए आती हैं। इन किताबों में पत्रिकाएं भी हैें - प्ले ब्वाय, प्लेयर, स्कू, न्यूड आदि। पत्रिकाओं की कीमत प्रति कॉपी 90 रूपये से लेकर 150 रूपये तक है। सैक्स एलबम - जो करीब 50,000 की संख्या में, इस एक वर्ष में विदेशों से, आये हैं उनकी बिक्री की कीमत 50 रूपये प्रति कॉपी है।
इतना ही नहीं - यह कागजी सोना एक बार बिककर खत्म नहीं हो जाता, यह बार-बार बिकता है। इसका बाजार समाप्त नहीं होता । ये किताबें-पत्रिकाएं और एलबम टैक्सियों की तरह किराये पर भी चलते हैं।
भारतीय बुद्घिजीवी इन टैैक्सियों को नहीं देख पाते । उन्हें इस बात का भी अंदाज नहीं है कि पुस्तकों को खरीदने की आर्थिक क्षमता क्या खरीद रही है?
दूसरी आजादी के अलमरबरदार बुद्घिजीवियों को बखूबी पता है कि अब उनकी आपातकालीन किताबें भी नहंी बिकती । मनोहर मलगांवकर जैसे गंभीर अंग्रेजी लेखक की पुस्तक - शालीमार - जो कवर पर पिस्तौल लेकर आई थी, वह भी नहीं बिकती यहां, इस देश में वह सब बंद बाजारों में बिक रहा है, जो खुले बाजार में बिकनेवाले भारतीय साहित्य के बाजार का पैसा जोंक की तरह चूस जाता हैै।
आजादी बड़ी चीज है। लेकिन बरबादी भी मामूली चीज नहीं है। आजादी में कौन-सी बरबादी हमारे हाथ लग रही है - अगर इदसे हमने न देखा तो आजादी तो कभी भी काफूर की तरह उड़ जाएगी, सिर्फ बरबादी हमारे हाथ रह जायेगी। आजादी के नाम पर जो तमाशा इस वक्त देश में चल रहा हैै, उसे अब बन्द होना चाहिए, कोई एक इंदिरा गांधी चिकमगलूर से जीत जाती है तो इस देश के घटिया बुद्घिजीवी और दूसरे दर्जे के न्यायधीश और नेता चीखने लगते हैें - आजादी खतरें में है। और जब इंदिरा गांधी नाम की एक लोकसभा सदस्य लोकसभा से बर्खास्त कर दी जाती है तो ये घटिया बुद्घिजीवी, दूसरे दर्जे के न्यायधीश और नेता तालियां बजाने लगते हैैं - आजादी बच गई।
आजादी के इस घटिया तमाशे को अब बन्द होना चाहिए। सुरेश कुमार, संजय गांधी और कांति देसाई जैसे लोगों को जनता के न्याय के लिए खुला छोड़ देना चाहिए ताकि इस देश की जनता तो सलूक उनके साथ करना चाहती है - कर सके।
हर गलत चीज तो जब तक राजनीति का संरक्षण प्राप्त होता रहेगा, तब तक सही काम के लिए वक्त ही नहीं मिलेगा। संजय, सुरेश और कांति देश की समस्याएं हैं - वे देश के भविष्य नहीं हैं।
देश का भविष्य अब टूटी - फूटी पार्टियां तय नहीं करेंगी - राजनीतिक पार्टियों ने तो देश को तोड़ ही दिया है, कादिर मियंा का बयान आप पढ़ ही चुके हैं, अब उसे जोडऩेवाली शक्ति और कोई है तो इस देश का साहित्य और संस्कृति है। इसलिए जरूरी है कि साहित्या और संस्कृति के क्षेत्र में जो बन्द बाजार गर्म है, दूसरा मुनाफा कमाने का जो दौर चल रहा है और दूसरी आजादी के नाम पर जो दूसरी बरबादी आ रही है- इसे रोका जाये।
देश के नेता तो कौमी झण्डे के कफन लपेटकर तोपों की सलामी लेते हुए किसी घाट या वन की समाधि में आराम से सो जायेंगे - पर यह दौर इतिहास में - संस्कृति , कला और साहित्य की समाधि के रूप में याद किया जाये, इससे पहले कम से कम उन लोगों को तो जागना चाहिए जो इस देश को समाधि के रास्ते पर नहीं जाने देना चाहते ।

(यह लेख, करंट, साप्ताहिक, बम्बई, 13.01.1979 से सादर साभार)

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