गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

प्रेम के लिए प्रकृतस्थ होना जरूरी

बिना प्रकृति का सान्निध्य लिए प्रेम संभव नहीं है। यदि आपको प्रेम करना है तो प्रकृति के बीच जाकर और प्रकृति के रंग में ढ़लकर ही संभव है। यह कहने का यह मतलब यह भी नहीं है कि मैंने कोई शोध किया है अथवा दार्शनिक हो गया हूं। दरअसल, बैठे-बैठे यह विचार आया। एक खोज के क्रम में। ऐसा कई बार होता है कि आप करते हैं कुछ और हो जाता है कुछ। अमूमन, प्रेम में भी ऐसा ही होता है। कई मित्रों ने कहा कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उन्हें प्रेम कब और कैसे हो गया। हलांकि, यह अलग मुद्दा है।
बात ये है कि जब तक आप-हम प्रकृति का अवलंबन स्वीकार नहीं करते प्रेम नहीं हो सकता। ओशो कहते हैं, 'प्रेम यानी समर्पण। समग्र समर्पण।Ó व्यवहार मैं भी देखा जाए तो बिना समर्पण के प्रेम हेाता कहां है? हां, कुछ पल के लिए आकर्षण हो सकता है। लेकिन जब प्रेम होगा तो समर्पण होगा ही। प्रकृति हमसे प्रेम करती है इसलिए हमें तमाम प्रकार के संसाधन उपलब्ध कराती है। माँ प्रेम करती है और बिना किसी लोभ के हम पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है।
आज कुछ तसवीर तलाशने के क्रम में तथाकथित प्रेमी-युगल का तसवीर देखने का मौका मिला। एक देखा, दो देखा और सिलसिला बढ़ता गया। अधिकतर युगल गलबाँहे डाले पार्क में बैठे थे। पार्क यानी बगीचा, प्रकृति है वहां। शहर की आपाधापी से दूर युगल कुछ पल शांति की तलाश में शायद गया होगा। तो मन में सवाल उठा कि प्रेम की पींगे बढ़ाने के लिए पेड़ का ही ओट क्यों? घर या किसी और भवन का एकांत कोना भी तो हो सकता है? लेकिन नहीं, अधिसंख्य प्रेमी प्रेम और झाडिय़ों की ओट में ही दिखें। चलिए इसी बहाने उन्हें प्रकृति की याद तो आईं।
अब गौर कीजिए, भारतीय प्रेम परंपरा के सर्वोच्च शिखर पर बैठे राधा-कृष्ण की किसी तसवीर को। दोनों किसी कदंब पेड़ के नीचे मिलेंगे। किसी-किसी तसवीर में तो सरित प्रवाह भी मिल जाएगा और गाय के भी दर्शन होंगे। मानों, कृष्ण ने प्रकृति को जानने के लिए ही प्रेम का वह रूप दिखाया हो। आज जब ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हर कोई दुबला हुआ जा रहा है, वैसी स्थिति में प्रेम के नाम पर ही सही लोग प्रकृति को तलाशते तो हैं।

1 टिप्पणी:

Amitraghat ने कहा…

शानदार आलेख ..बिना समर्पण के सच्चा प्रेम हो ही नहीं सकता............"