शनिवार, 6 जून 2009

रक्षक ही भक्षक

भारतीय परिप्रेक्ष्य में फिलहाल बलात्कार सबसे तेजी से बढ़ता हुआ अपराध है। एक अनुमान के मुताबिक 1971 के बाद से बलात्कार की घटनाओं में 678 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। राष्टï्रीय रिकॉडर्स अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट दर्शाती है कि बलात्कार करने वालों में से 75 फीसदी लोग जान-पहचान वाले होते हैं जिसमें परिवार के सदस्य, अभिभावक, पड़ोसी और रिश्तेदार शामिल हैं। पीडि़ता जब इसकी शिकायत करने पुलिस वालों के पास जाती है तो वहां भी उसके साथ उत्पीडऩ का दुहराव होता है। ऐसे एक नहीं, अनेक मामले प्रकाश में आए हैं, तो सवाल उठता है कि आखिरकार पीडि़ता कहां गुहार लगाने जाए? जब रक्षक ही भक्षक हों तो फरियाद कौन सुनेगा।
अमूमन पीडि़त अपने शिकायत के निवारण के लिए अथवा अपेक्षित कार्रवाई के लिए पुलिस के पास जाते हैं, लेकिन जब पुलिस ही उसका कारण हो तो भला कहां जाए? हाल के वर्षों में जिस प्रकार से पुलिस महकमे के चरित्र पर अंगुली उठाए जा रहे हैं, वह निश्चय ही निंदनीय है। लेकिन सच यही है। टीवी चैनलों ने एक-एक कर कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के द्वारा गुलछरे उड़ानेवालों की करतूतों का भांडाफोड़ किया है। साथ ही कई प्रसंग में पीडि़ता जब पुलिस द्वारा रौंदी जाती है तो कहानी आत्महत्या तक पहुंच जाती है। बीते सालों में बिहार में पदस्थापित आईपीएस अधिकारी अभिताभ कुमार दास के खिलाफ एक पूर्व आईपीएस स्व। प्रभात कुमार सिन्हा की बेटी शबनम सिन्हा ने आरोप लगाया था कि दास ने उसका आठ वर्षों तक यौन शोषण किया और शादी का झांसा देते रहे। दास द्वारा छली गई शबनम के अलावा औरों से भी संबंध कायम होने की चर्चा पुलिस विभाग में छायी रही। शबनम ने तो यहां तक कहा था कि दास ने अकेले में उसकी मांग में सिन्दूर भरा था और वह भी अति सुरक्षित माने जाने वाले आईपीएस मेस के कमरा नंबर 11 में।
आईपीएस संवर्ग में केवल अभिताभ कुमार दास की ही एक रंगरलियों की कहानी नहीं है, बल्कि रांची में पदस्थापित आईजी नटराजन की रंगरलियों के दृश्य सभी ने खुलेआम देखे थे। अगस्त 2005 में झारखंड पुलिस के महानिरीक्षक पी।एस. नटराजन के खिलाफ यौन उत्पीडऩ का मामला चला था। पूरी दुनिया ने पहले टेलीविजन पर और बाद में अखबारों में उनके एक आदिवासी युवती सुषमा के संग अभिसार प्रसंग को आंख फाड़-फाड़ कर देखा था। पीडि़ता सुषमा एक अन्य पुलिस अधिकारी परवेज हयात के खिलाफ यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने आईजी नटराजन के पास गई तो उन्होंने भी उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला। बाद में जब सुषमा से पूछा गया कि डीआईजी परवेज हयात और आईजी नटराजन में सबसे बड़ा गुनाहगार कौन है तो वह बताती है,'सबसे बड़ा गुनाहगार परवेज हयात है। उनके पास मैं न्याय की गुहार लेकर गई थी जिनको सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए उन्होंने ही मेरा शोषण किया। मेरा शारीरिक शोषण किया और बेबसी का लाभ उठाया।Ó इस घटना के बाद पूरे पुलिस महकमे के चरित्र पर अंगुली उठने लगी थी, लेकिन नटराजन ने एक पत्रिका के साथ बातचीत में कहा था कि 'मौज बलात्कार नहीं है और मेरे खिलाफ यह पुलिसिया षडयंत्र है। कारण कुछ लोग नहीं चाहते कि मेरी पदोन्नति हो।Ó इस प्रसंग के बाद पूरे पुलिस महकमे के चेहरे पर बदनुमा दाग लगा और प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने मामला उजागर होते ही फौरन नटराजन को निलंबित कर दिया था। मामले की तहकीकात होनी शुरू हुई तो कई तार पुलिस के दूसरे जगहों से जुड़ती चली गई। तो प्रथम दृष्टïया जनता ने यही माना कि पुलिसया चरित्र पर सहसा भरोसा नहीं किया जाए, खासकर महिला को तो कतई नहीं करना चाहिए। हालांकि पीडि़ता सुषमा के चरित्र पर भी अंगुली उठी थी।
इतना ही नहीं, कुछेक आईपीएस अधिकारी पहली पत्नी के होते हुए दूसरी महिला से शादी कर लेते हैं। हिंदू विवाह कानून के तहत पहली पत्नी को तलाक दिए बगैर दूसरी शादी करनी गैर कानूनी है और उसका उल्लंघन करने वालों को जेल जाना पड़ता है। सरकारी नौकरी से हटना पड़ता है, लेकिन बिहार के पटना निवासी और जम्मू -कश्मीर कैडर के आईपीएस अधिकारी सुनील कुमार ने अपनी पहली पत्नी निभा सिन्हा के रहते सुनीता से दूसरी शादी कर ली। अब इसे कानून का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? पुलिसिया मौज-मस्ती का आलम यह है कि मायानगरी मुंबई में पुलिस चौकी में ही पुलिस कर्मियों ने एक महिला को अपनी हवस का शिकार बना लिया और मामले की लीपापोती करने का भरसक प्रयास किया। जम्मू-कश्मीर के चर्चित अनारा कांड में पुलिस की किरकिरी किस कदर हुई थी, उससे हर कोई वाकिफ है। हरियाणा के रोहतक जिले की सरिता का मामला शांत भी नहीं हो पाया था कि करनाल से एक पुलिस इंसपेक्टर को महिला से बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इंसपेक्टर जय सिंह पर आरोप है कि उसने एक महिला के साथ अपने क्वार्टर पर बलात्कार किया। मानवाधिकार मुद्दे से जुड़े और वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिय़ा कहते हैं, '' आजादी के बाद की भारतीय पुलिस से बेहतर और सभ्य अंग्रेजों की पुलिस थी। वर्तमान पुलिस घोर स्त्री विरोधी है और महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार करने का कोई भी मौका नहीं छोडऩा चाहती। गोस्वामी तुलसीदास के कथन कि नारी ताडऩ की अधिकारी है, पर अक्षरश: पालन करती है और महिलाओं को प्रताडऩा का अधिकारी समझती है। भले ही कई कानून बनें हों, लेकिन जब तक समाज में जागरूकता नहीं आएगी, कानून मात्र से कुछ नहीं होगा। देखना पड़ता है कि कानून को कौन और किस रूप में लागू करता है।
और तो और, पुलिस के साथ अद्र्घसैनिक बलों में भी यौन उत्पीडऩ की घटनाएं होती रही है। हाल ही में सीमा सुरक्षा बल ने जम्मू-कश्मीर में बल के एक अनुदेशक द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाया गया था। बिहार मिलिट्री पुलिस के 136 रंगरूटों ने आरोप लगाया था। बीएसएफ के महानिदेशक एके मित्रा का कहना है कि इस मामले के कई अन्य पहलू भी हो सकते हैं। बीएसएफ मामले की जांच कर रही है। बीएसएफ का कहना है कि ऊधमपुर स्थित प्रशिक्षण कार्यक्रम की कड़ाई को देखकर रंगरूट भाग खड़े हुए थे। बल ने पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट भी लिखाई है। बीएमपी के रंगरूटों का आरोप है कि 20 जून 2008 को बीएसएफ के अनुदेशक ने एक रंगरूट को अपने कमरे में बुलाया और उसका यौन शोषण करने का प्रयास किया। रंगरूटों के हवाले से पुलिस का कहना है कि बाकी रंगरूटों ने अपने साथी को यौन शोषण का शिकार होने से बचाया।
इसके अलावा, संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों पर भी यौन उत्पीडऩ का मामला दर्ज होता रहा है। इसी वर्ष मार्च में उड़ीसा विधानसभा के अध्यक्ष महेश्वर मोहंती के खिलाफ सहायक महिला मार्शल द्वारा यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया गया और उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। पीडि़ता गायत्री पांडा ने कहा था कि अध्यक्ष अपने चालक और अन्य कर्मचारियों के मार्फ त उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए कह रहे थे और मोहंती उसे देखकर अश्लील इशारे किए करते थे।
न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के साथ कार्य स्थल पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा यौन उत्पीडऩ से संबद्घ मामलों से निपटने के लिए कानून के अभाव पर चिंता व्यक्त की। अदालत की ओर से कहा गया कि कामकाजी महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा यौन उत्पीडऩ से संबद्घ मामलों से निपटने के लिए कानून का अभाव गंभीर चिंता का विषय है। बीते दिनों न्यायधीश कैलाश गंभीर ने केंद्र सरकार की एक महिला कर्मचारी के खिलाफ निलंबन आदेश पर रोक लगा दी। उन्होंने कहा था कि कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीडऩ से महिलाओं का जीवन अवसाद और दुख से भर जाता है, उनके जीवन में परेशानी आ जाती है।
सच तो यह भी है कि कागजी तौर पर देश में महिला हितों के संरक्षण के लिए कई कानून तो हैं लेकिन अभी भी उन कानूनों को सामाजिक स्वीकृति मिलनी बाकी है। अब तक अनैतिकता व्यवहार निवारण अधिनियम 1956, आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 1986, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961/1984, सती निवारण अधिनियम 1987, विशेष विवाह अधिनियम 1954, स्त्री और बालक संस्था (अनुज्ञापन) अधिनियम 1956, मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 और फिर हालिया घरेलू हिंसा अधिनियम आदि महिला अधिकारों के संरक्षण के लिए पहले भी कानूनी प्रयास किए गए हैं और संभव है भविष्य में भी हों। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन कानूनों से महिला हितों के संरक्षण में मदद जरूर मिली है, किंतु महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर पूर्ण रूप से अंकुश नहीं लगाया जा सका है।
दरअसल, इन कानूनों से महिलाअेां को अपेक्षित लाभ न पहुंचने के पीछे सबसे बड़ा कारण इनकी सामाजिक स्वीकृति का अभाव ही रहा है। न्यायालय और कानून किसी अपराध के लिए भले ही कोई सजा निर्धारित करे, उसकी पूर्ण सफलता कानून का सम्मान एवं उसकी सर्वमान्यता पर निर्भर है। महिला हितों के संरक्षण के नाम पर अब तक जितने कानून बने हैं, उनके उल्लंघन के मामले भी सामने आए हैं। सेंटर फॉर सोशल रिसर्च दिल्ली द्वारा प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि देशभर में 1998 में महिलाओं के साथ बलात्कार के 15 हजार 151, 1999 में 15 हजार 468, 2000 में 16 हजार 496 एंव वर्ष 2001 में 16 हजार 75 मामले दर्ज किए गए थे। वहीं यौनाचार के 1998 में 8 हजार 54, 1999 में 8 हजार 858, 2000 में 11 हजार 24 एवं 2001 में 9 हजार 746 मामले दर्ज किए गए। एक अनुमान के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा एवं उत्पीडऩ के मामले में तीन गुना इजाफा हुआ है। ऐसे में महिला हितों के कानूनों संरक्षण के प्रयासों के साथ उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कवच भी देना होगा।

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