मंगलवार, 5 मई 2009

कथा / बस, और नहीं


समय के साथ समाज बदलता है, लेकिन पुरूष की मानिसकता में बदलाव नहीं आता है। पुरूष की आदम मानसिकता औरत को अपनी जागीर ही समझता रहा है। औरतों की सिसिकियों को कभी भी पुरूष समाज ने नहीं सुनी। तवायफों के मामले में तो हरगिज नहीं। दिल्ली का जीबी रोड हो या कोलकाता का सोनागाछी, बनारस की तंग गलियां हो अथवा मुजफ्फरपुर का चतुर्भुज स्थान, तवायफ की सिसकी एक-सी है। दास्तान एक है, फर्क नाम और स्थान का है लेकिन काम एक है।

शबनम, इसी बदनाम गली में पैदा हुई। पली-बढी, लेकिन अपनी माताओं के पेशो को नहीं अपनाया। फिर भी लोग उसे उसी च’में से ताकते थे, जिस तरह उसकी माताओं को। उसकी माँ की ही जिद थी कि उसकी बेटी इस बदनाम पेशो में नहीं आएगी। बहुत हो चुका। जो क”ट व प्रताड़ना उसने सही, उसकी बेटी नहीं सहेगी।

नतीजतन, उसकी बेटी बीए की पढ़ाई कर रही है। बेशक शबनम अपनी माँ नसीमा के साथ रह रही है, बदनाम गली में, मगर उसका दामन आज भी पाक साफ है। कई बार मौसी ने दबाव डाला। मगर नसीमा के आगे उसकी एक न चली। न’ाबनम, इसी बदनाम गली में पैदा हुई। पली-बढी, लेकिन अपनी माताओं के पे’ो को नहीं अपनाया। फिर भी लोग उसे उसी चशमें से ताकते थे, जिस तरह उसकी माताओं को। उसकी माँ की ही जिद थी कि उसकी बेटी इस बदनाम पेशो में नहीं आएगी। बहुत हो चुका। जो क”ट व प्रताड़ना उसने सही, उसकी बेटी नहीं सहेगी। सीमा ने साफतौर पे कह दिया कि जिन जलालतों से उसे दो-चार होना पड़ा है, उसकी बेटी उनको नहीं सहेगी।

नसीमा उस दिन को आजतक नहीं भूल पाई, जब स्कूल में शबनम की दाखिला के लिए वह खून के आंसू रोई थी। कोई भी स्कूल उसे दाखिला देने को राजी नहीं था। सब उसके बाप का नाम पूछते और फिर हराम की औलाद कहकर दुत्कार देते। नसीमा ने कितानों के सामने हाथ-पांव जोड़े, लाख मिन्नतें की लेकिन कोई फायदा नहीं। कई दिनों तक स्कूलों के चक्कर लगाने पड़े। एकबारगी तो उसने हार ही मान ली थी और उसको लगने लगा था कि उसकी बिटिया भी बदनाम गलियों में ही दफन हो जाएगी। जिन परछाइयों से वह उसको दूर रखना चाहती थी, वह दबोचे जा रही थी। नसीमा का किसी काम में जी नहीं लगता। उसका धंधा भी प्रभावित होने लगा। मौसी का डांट-फटकार अलग। ग्राहक रोजाना आते, मगर नसीमा की विशोश दिलचस्पी नहीं रहती, महज औपचारिकता भर। ग्राहकों का आना भी कम होने लगा। कोठे की कमाई प्रभावित होने लगी। मौसी ने तो एक बार शबनम को हटाने की बात करने लगी। नसीमा बुरी तरह हिल चुकी थी। किसी तरह ग्राहकों को पटाने लगी। चेहरे पर बाजारू मुस्कान लगाने लगी। मौसी ने साफ कहा था, ‘एक बच्ची के कारण यदि पांच-छह लोगांे का जीवन प्रभावित होता है तो बच्ची को ही अलग कर दिया जाए। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी... सारी फसाद की जड़ यह लड़की ही है।’

डूबते को तिनके का सहारा। नसीमा के साथ ही कुछ ऐसा हुआ। ग्राहकों की रोजाना आवाजही में एक दिन ऐसा ग्राहक आया, जिसने उससे इ’क की बात कर डाली। नसीमा की अनुभवी आँखें यह तार चुकी थी कि वह बेवफाई का मारा हुआ कोई देवदास है। बातों-बातों में उसे यह भी पता चला कि वह एक स्कूल का मालिक है। बस क्या था... नसीमा ने अपने नैन-मटक्के शुरू किए। लहराती लट, नागिन सी लहराती काया के सामने पुरू”ा को निहाल होना ही था और किला फतह नसीमा ने कर ली। उसने यह वादा करा लिया कि शबनम का दाखिला उसी के स्कूल में होगा। बदले में नसीमा को अपना जिस्म देना था। इससे पहले भी तो नसीमा अपने जिस्म का सौदा करती आई है, क्या हुआ यदि उसने अपनी बेटी के लिए यही काम किया। पहले केवल वह पैसा के लिए करती थी, इस दफा तो पैसा के साथ उसकी बेटी की भलाई भी थी। उसका अपना स्वार्थ था, जो किसी सपने से कम नहीं था।

शबनम स्कूल जाने लगी। समय बीतता गया। शबनम ने मैट्रिक पास कर ली। काॅलेज में दाखिला का समय आया। इस बार दिक्कतें तो आई लेकिन स्कूल जैसी नहीं। काॅलेज में दाखिला होने लगा। नसीमा के अरमानों को जैसे पंख लग गए हों। अपनी बिटिया में वह अपने सपने भी संजाने लगी। अमूमन यही होता है जब कोई माँ किसी कारण अपने अरमानों को पूरा नहीं कर पाती, और जब उनकी बेटी सयानी होकर उन्हीं रास्तांे पर चलने लगती है तो हरेक माँ को स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है। नसीमा भी एक माँ थी...।

समय बदल जाए तो समाज बदलता है। मगर समाज के लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आता। खासकर, तब जब कोई दलित-दमित आगे बढ़ने की को’िश’श करने लगता है। यह एक ऐसा कटु सत्य है जिसे लोग जानते हुए भी जानना नहीं चाहते, आखिर उनका स्वरचित तिलिस्म टूट जाएगा। भला कोई क्योंकर चाहेगा कि उसका अपना तिलिस्म टूटे? कुछ ऐसा ही हाल था मुजफ्फरपुर के लोगों का...। तथाकथित कुलीन घरानों के लोग अपनी काम क्षुधा की तृप्ति के लिए भले ही चतुर्भुज स्थान की ओर आएं हों, उनके बेटे भी उनके रास्ते पर चले हों, लेकिन उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि उनकी बेटी एक तवायफ की बेटी के साथ एक ही बेंच पर बैठकर पढे़? उन्हें इससे अपनी बेटी की बदचलनी का डर होने लगा? समाज के ठेकेदारों ने काफी हाय-तौबा की। पहले तो शबनम को रास्ते में रोककर बेइज्जत किया और फिर काॅलेज के खिलाफ नारेबाजी की। कई दिनों तक यह खबर स्थानीय अखबारों की सुर्खियों में शुमार होता रहा। सप्ताह दिन बाद जैसे बात आई-गई हो गई। इस दरम्यान तवायफों की जिन्दगी सुधारने के नाम पर लाखों का वारा-न्यारा करने वाली एकाध स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आई। शबनम का बचाव किया गया। काॅलेज प्रशासन से बात की गई। संस्थाओं के साथ नसीमा ने खुद जाकर काॅलेज के प्रिंसिपल से बात की। नसीमा ने प्रिंसिपल के सामने हाथ जोड़कर कहा, ‘आपके सामने एक माँ हाथ फैलाए खड़ी है, जो चाहती है कि उसकी बेटी को वह मुकाम हासिल हो जिसका सपना उसने देखा है। यदि इसी तरह हम जैसी की बेटियों को समाज दुत्कारता रहा तो समाज का कैसे भला होगा? यदि समाज ऐसा ही निशठुर बना रहा तो तवायफों का उद्धार कैसे होगा?’ इतना कहते-कहते नसीमा की आँखू में आँसू आ गए। प्रिंसिपल ने एक माँ की ममता को देखा, जो अपनी बच्ची के लिए तड़प रही थी। उन्होंने तवायफों के बारे में काफी कुछ सुन रखा था लेकिन एक तवायफ भी इतनी ममतामयी हो सकती है पहली बार देखा। उन्होंने लोगों से यह कहते सुना था कि कोठेवाली बसे-बसाए घरों को उजाड़ती है, मगर अपनी संतान के लिए इस कदर बिलखती माँ को पहली बार देखा। प्रिंसिपल का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने शबनम को काॅलेज हाॅस्टल में ही रहने की इजाजत दे दी।अब क्या था, शबनम खूब मन लगाकर पढ़ने लगी। उसके व्यवहार ने सहपाठियों को अपनी ओर आकर्शित करना शुरू कर दिया। काॅलेज में उसकी सहेलियां बनती गई। परीक्षा में अव्वल आने से पूरे काॅलेज का ध्यान उसकी ओर गया। हरकोई उसकी काबिलियत की दाद देता। उनमें कई वैसे लोग भी शामिल थे जिन्होंने प्रारंभ में उसकी मुखालफत बस इसलिए कि थी कि वह कोठेवाली की बेटी है।

दूसरी तरफ नसीमा भी खुश थी कि उसकी बेटी खूब पढाई कर रही है। उसके अरमानों को पूरी करेगी। पहले तो हरेक रविवार को शबनम मिलने आती थी कि लेकिन मौसी की हरकतों की वजह से नसीमा ने हरेक रविवार को आने से मना कर दिया। छिप-छिपाकर वह खुद बेटी से मिलने चली जाती थी। यह सिलसिला करीब दो साल तक चलता रहा। नसीमा का उम्र ढलान पर था। शरीर में पहले वाली रौनक नहीं रही। जाहिरतौर पर कोठे की कमाई कम होने लगी। उपर से पुलिसवालों ने तंग करना शुरू कर दिया। कोठे की कमाई में कमी आने के कारण पुलिस के हिस्से में भी कमी आ गई। सो पुलिसवालों को बर्दा’त नहीं हो रहा था। दूसरे कोठों पर छापे नहीं मारते, मगर नसीमा के कोठे पर छापे मारे जाने लगे। बेवजह रात में परेशान किया जाने लगा। अधेड़ पुलिसवालों का जब जी नहीं लगता, इधर आता और चला जाता...। क्या मजाल नसीमा या मौसी की? जो उन्हें रोक सकती। जाते वक्त पैसे भी निचोड़कर ले जाते। मौसी अपना आपा खोने लगी। कई बार तो उसने नसीमा की जमकर धुनाई की।

मौसी नसीमा पर हमेशा दबाव बनाती कि वह शबनम को इस धंधे में शामिल कर लें। जवान है, खूबसूरत है, धंधा खूब चलेगा। एकबार फिर कोठे की रौनक लौट आएगी। नए-नए ग्राहक आएंगे, खूब पैसे कमाएंगे। मौसी कहती, ‘तवायफ की बेटी तवायफ नहीं बनेगी तो और क्या बनेगी? जमाना उसे हरगिज किसी और रूप में स्वीकार नहीं करेगा... अब तो पहले वाला मुजरा भी नहीं होता... जब नबाव ही नहीं रहे तो मुजरा कौन सुनेगा? नए जमाने में तो पुरू”ा केवल शरीर को रौंदना जानता है...निहारने के लिए तो घर में पत्नी और पार्क में प्रेमिका है, रंडी तो बस... तुम कितना भी अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा लो, उससे कोई ब्याह करने वाला नहीं... जमाना बहुत जालिम है। कोठेवाली को कोई भी अपना घरवाली नहीं बनाता। यही सदियों की रीत है।’मौसी की बातों को सुनकर नसीमा बौखला जाती। कई दफा तो उसके जी में आता कि यहीं पर मौसी का गला घोंट दिया जाए। कितना देर ही लगेगा... एक बूढ़ी औरत को मारने में... बस कुछ पल... लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पाती। मौसी ने नसीमा की इतनी धुलाई की थी कि उसकी नजरों में आज भी मौसी उतनी ही शक्तिशाली है, जितनी कि जवानी के दिनों में थी। मन मसोसकर रह जाती थी। ज्यादा होता तो अंधेरे कमरे में जाकर दो-चार आँसू टपका आती। पर कभी शबनम से इन बातों का जिक्र नहीं करती।

सोचती किसी तरह समय कट ही जाएगा। जीवन का आखिरी पहर ही तो है। वैसे भी तवायफों की जिंदगी चालीस वसंत के बाद कोई मायने नहीं रखती। नसीमा तो इस उम्मीद पर जी रही थी कि वह शबनम के अरमानों को पूरा होते देखना चाहती थी। किसी तरह वह अपनी पढ़ाई पूरी कर लें और उसका घर बस जाए। नसीमा माँ भले बनी लेकिन एक पत्नी का सुख उसे कभी नहीं मिला। उसके लिए वह जीवन भर तरसती रही। जीवन में कई पुरू”ा आए लेकिन अपना कहने वाला कोई नहीं। एक आया भी तो धोखेबाज निकला। वायदे तो लंबे-चैड़े किया करता था लेकिन किसी काम का नहीं। बस, माँ बनाकर चला गया। पता नहीं कहाँ? जाने के बाद एक चिट्ठी तक नहीं दी... नसीमा ने भी जाने के बाद कोई खोज नहीं की... क्यों करती। उसे तो बस अपनी बिटिया की फिक्र रहने लगी।

शबनम को काॅलेज के एक लड़के से कब प्यार हो गया, पता नहीं चला... प्यार की पींगे बढ़ाते-बढ़ाते प्रेमी ने ब्याह का न्यौता दे डाला। शबनम को सहजा विशवास नहीं हुआ कि कोई उससे भी शादी करेगा। जिस प्रकार से वह कोठे की किस्से-कहानी सुनती और बचपन में माहौल देखा था उसे विशवास नहीं था कि कोई भी उसके सपने का राजकुमार होगा जो उसे डोली में बिठाकर ले जाएगा। उसने नसीमा से बात की। नसीमा के आंखों में आंसू छलक आए... उसने कहा, ‘बेटी, दुनिया बड़ी जालिम है। कोई तुमसे प्रेम करता है और तुम्हें ताउम्र अपना बनाना चाहता है तो उसे किसी प्रकार के अंधेरे में नहीं रखना चाहिए। मैंने जीवन भर अंधेरे में बिताया है। मैं नहीं चाहती कि तुम भी... उस लड़के को सारी बातें बता दो... अपने बारे में और मेरे बारे में भी... यह पल दो पल का साथ नहीं बल्कि जीवन भर का साथ होने वाला है। हमने तो पल में ही जिंदगी को ढोया है, तुम्हें तो जीवन भर का सोचना है। बाकी तुम पढ़ी लिखी हो, हमसे बेहतर सोच-समझ रखती हो। ’

‘मैंने उसको सारी बातें साफ-साफ बता दिया। उसके बाद भी वह मुझे चाहता है। उसका कहना है कि तुम्हारी मां कोठे पर रहती है तुम तो नहीं। और औरों की तरह तुम्हारी मां ने तुम्हें उस नरक में नहीं धकेला बल्कि तुम्हें उससे दूर ही रखा। इसी से तुम्हारी माँ की सोच का पता चलता है। लेकिन...’

‘लेकिन क्या?’

‘वह हमारी जाति का नहीं है... वह एक दलित हिंदू है। क्या तुम इजाजत दोगी?’

‘तू भी कितनी नादान हो... अरे पगली, तुम्हारी खुशी के लिए तो मैं अपनी जान तक दे सकती हूँ। तो तुम्हारी शादी क्या चीज है। जब वह तैयार है तो मैं क्यों नहीं...’ कुछ रूककर, ‘मेरे जीवनकाल में इस कोठे पर बहुतेरे आए और गए। विभिन्न रंग-रूप के। न जाने उनमें कौन हिंदू था और कौन मुसलमान... अथवा किस जाति का। हमारी जिंदगी में जाति और धर्म बेमानी बातें लगती है। उनका हमारे लिए कोई मोल नहीं। इस बदनाम गली में तो मैंने सिर्फ दो ही जाति देखंे हैं- एक औरत का और दूसरा मर्द का। तीसरा तो कोई होता ही नहीं है।’‘तो... मैं तुम्हारी रजामंदी समझूं!’

‘तुम दोनों की ही खुशी में मेरी खुशी है। मुझ जैसी अभागिन माँ के लिए इससे बढ़कर और खुशी क्या होगी कि उसकी बेटी दुल्हन बनने जा रही है।’

शबनम शादी की तैयारी करने लगी। यार-दोस्तों ने सारा जिम्मा अपने कंधे पर लिया। उनके लिए भी यह किसी मुम्बइया सिनेमाई कहानी से कम नहीं था कि एक कोठेवाली की बेटी की शादी होने जा रही है। काॅलेज के प्रिंसपल को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने भी प्रसन्नता जाहिर की... आखिर एक नई शुरूआत होने जा रही थी। समाज में समाज के वंचित को स्थान मिलने जा रहा था। नसीमा भी खुश थी। शादी की रस्म एक मंदिर में संपन्न होना था, मगर नसीमा ने साफ मना कर दिया कि वह इस समारोह में शामिल नहीं होगी। जिस सपना के लिए वह जी रही थी, वही क्षण जब आने वाला था तो उसका यह निर्णय... संभवतः उसके मन में कहीं डर समाया था कि हो सकता है उसके वहां रहने से विवाह में कुछ अड़चन आ जाएं... नसीमा जैसी माँ के लिए यह डर अस्वभाविक भी नहीं था।

खुशी-खुशी शादी हुई। मंदिर में भगवान को प्रणाम करने के बाद शबाना अपनी माँ से आशीर्वाद लेने पहुंची। आखिर उसी ने तो उसकी जिन्दगी को संवारा था। भला उससे आशीश लिए नई जीवन की शुरूआत कैसे हो पाती? दुल्हन के वेश में ही वह कोठे पर चली आई। लेकिन यह क्या ?

नसीमा एक अँधेरे कमरे में अकेली चारपाई पर पड़ी है। एक बाती तक नहीं...क्या उसे खुशी नहीं है कि उसकी शबनम दुल्हन बन गई। शबनम को अंदेशा हुआ... जो मां उसकी आहट पहचान लेती थी वह आज सामने होने पर भी निशचेशट पड़ी है... उसने आवाज लगाई... नसीमा ने करवट बदली... धीरे से उठकर बैठी। ‘कहो, कैसी हो... सबकुछ ठीक रहा न? ’

शादी हो गई। तुमसे आशीर्वाद लेेने आए हैं और तुम इस कदर...’

‘हमारा क्या है? जीवन के बाकी दिन गिन रही हूं? जो सपना देखा था वह भी पूरा हो गया। जीवन में कोई लालसा नहीं बची। उपरवाले से दुआ करती हूं कि अब मुझे उठा ले... बहुत हुआ उसका रहमो-करम... देख ली उसकी दुनिया...वाह रे उपर वाले... क्या-क्या न तूने दिखाया इस दुनिया में... अब तो रहम कर...’‘तुम ऐसा क्यों बोल रही हो?’

तभी पीछे से मौसी आती है। नसीमा उठकर बैठना चाहती है, लेकिन सही से बैठ नहीं पाती । उसे डर सताने लगता है कि कहीं मौसी दोबारा वही राग अलापना शुरू न कर दें... मगर मौसी वैसा कुछ नहीं करती। शबनम को आशीर्वाद देती है, ‘सदा सुहागन बनी रहो। इस गली में लोगों के सुहाग उजड़ते देखे हैं, पहली बार इस कोठे पर किसी सुहागिन को अपने सुहाग के साथ देखा है। उपरवाला तुम दोनों की जोड़ी को सलामत रखें... मगर...’

‘मगर क्या...’

‘तुम लोग बुरा न मानों तो एक बात कहें...’

इतने में नसीमा मौसी से चुप होने को कहती है। मौसी चुप हो जाती है और उसकी आंख डबडबा जाती है।

शबनम को लगता है जैसे उससे कुछ छुपाया जा रहा है... नसीमा की यह दशा और मौसी की आँखों में पानी उसने पहली बार देखा।

‘आपलोग मुझसे कुछ छुपा रहे हैं... माँ तुमको मेरी कसम... साफ-साफ कहो न...क्या बात है?’

‘कुछ भी तो नहीं...’

मौसी से रहा नहीं गया। वह बीच में ही बोल उठी, ‘बहुत हुआ नसीमा... मैंने तुम पर लाख ज्यादतियां कि... लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि तुम मर जाओ... क्यों बेटी की खुशिायों के लिए अपनी जिंदगी तबाह करने पर तुली हो। देखो, अब तो इसकी शादी भी हो गई।’

‘क्या हुआ है मेरी माँ को?’

‘अपनी माँ से ही पूछो तो बेहतर होगा...’

नसीमा चुप रही। बस आंखों से आंसू बहाए जा रही थी।

‘आप ही बताइए न...’

‘अरे, तुम्हारे जीवन की खुशी के लिए इसने अपना जीवन नरक बना लिया। एक तो पहले से ही नरक में थी। दो साल से इसे टीवी हो चुका है। ईलाज नहीं करा रही। कहती है ईलाज में पैसा लगेगा तो बेटी की पढ़ाई कहां से होगी?... तुम्हीं कहो, मैं क्या करूं? मैंने कई बार बोला, सरकारी अस्पताल चलो, वहां ईलाज हो जाएगा। लेकिन ये है कि मानती ही नहीं... कहती है कि मेरा क्या है... मर जाउंगी तो ही अच्छा रहेगा। बेटी की शादी हो जाएगी, उसका घर बस जाएगा तो जीवन सफल हो जाएगी। इसी खातिर पिछले दो साल से इसका हाल बुरा होता चला गया है। इस बीच में तुम्हें भी आने से रोक दिया। ’

शबनम की आँखे भर आई। आखिर उसकी माँ ने उसके लिए कितना कुछ नहीं किया। अपनी जीवन को दांव पर लगाकर उसकी हर खुशिायों को पूरा किया। लाख जलालत सही, दुनिया की बदनामियां सही, लेकिन उसकी दामन को पाक साफ बनाए रखी। आज शबनम के आँखों के सामने वे सारे चित्र एक-एक करके आने लगे जो उसने नसीमा के साथ बिताए थे। तभी उसे आभास हुआ कि किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया हो, वह कोई और नहीं... उसका पति था। दोनों में जैसे आमसहमति बनी। आँखों ही आँखों में बात की गई और निर्णय लिया गया।

‘माँ... उठो। चलो। आज से तुम हमारे साथ रहोगी। तुमने अपना कर्तव्य निभाया... अब मुझे भी कुछ करने का मौका दो। एक संतान से उसका अधिकार मत छीनो। बहुत दुःख सहा। अब, और नहीं सहने की जरूरत है। हम हैं न... मौसी मैं अपनी माँ को ले जा रही हूँ! आपको कोई आपत्ति तो नहीं?’

‘नहीं, मुझे भला क्या आपत्ति होगी... तुम अपनी माँ को ले जा रही हो... मेरी नसीमा तो सदा मेरे पास रहेगी। इसी कमरे में... मेरे यादों में।’

1 टिप्पणी:

vasant kumar ने कहा…

bahut mamirk,pargatishil soch aur bahut kuch dikhai parhata hai,