दही-चूड़े ने धोखा दिया,
लाज बचाई खिचड़ी ने।
अखबारों ने खेल बिगाड़ा,
साख बचाई खिचड़ी ने।
दूध-मक्खन ने मुंह फुलाया,
खिचड़ी की अब खैर नहीं।
साग-भाजी ने खूब रुलाया,
मिर्ची से अब बैर नहीं।
लाल टमाटर, गरम बटाटा,
फूलगोभी की हालत पतली।
दाल-चावल में पड़ गया पानी,
खाली रह गई मेरी तसली।
दो नावों पर पैर धरा था,
घप से गिर गए पानी में।
पूरे चौबीस घंटे लग गए,
इस कहानी को बनाने में।
बनते-बनते गिड़ रही थी,
लाज बचाई खिचड़ी ने,
लपक कर बीच में आ गई,
साख बचाई खिचड़ी ने।
खिचड़ी रानी बड़ी सयानी,
बीरबल से पक जाती है।
धुरंधरों को छक्के छुड़ाती,
महीनों-साल पकाती है।
राजनीति में मेल कराती,
कूटनीति सिखलाती है।
सही से पक जाए तो मजा है,
वरना घुटने के आंसू रुलाती है।
समता-ममता टूट जाती है,
दादी-अम्मा रूठ जाती हैं।
जब लगती है जोर की प्यास,
हाथ में रह जाती है आस।
अंगुली भीचकर मुट्ठी बिना,
अकड़कर रह जाता है हाथ।
सूर्ख, लाल, अकड़ी हुई-सी,
मिर्च निभाती है तब साथ।
बनते-बिगड़ते इन रिश्तों की,
लाज बचाई खिचड़ी ने।
बीच भंवर में डूबती नैया की,
पतवार बचाई खिचड़ी ने।
इस खिचड़ी में बड़ा मजा है,
खाकर कोई पछताता है।
जो न खाए, हाथ मलता है,
बिन खाए पछताता है।
पाकर खोने वालों की,
लाज बचाई यही खिचड़ी ने।
सोकर जागने वालों की,
साख बचाई यही खिचड़ी ने।
-
विश्वत सेन
रविवार, 15 जनवरी 2012
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