सरकार का राजभाषा विभाग और उसके माध्यम से अधिकांश सरकारी विभागों-निकायों यहां तक कि बैंकों में भी सूचना पट्टï टंगे दिखाई पड़ते हैं कि यदि आप हिंदी में कार्य करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी। हिंदी में काम करने और करवाने के लिए प्रेरणा। शब्दों और शब्द पट्टिïयों के सहारे। जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर है। तमाम नौकरशाह सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही करते हैं। बैंकों में भी उसके कर्मचारी अंग्रेजी में भी कागजी कार्रवाई कराते हैं जिससे कंप्यूटर में डाटा संग्रहण के दौरान उन्हें अतिरिक्त मेहनत नहीं करना पड़े।
इसके उलट पहलू और भी हैं। एक तरफ जहां सरकार राजभाषा हिंदी के व्यापक प्रचार प्रसार पर जोर देने की बात कहती है वहीं वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में इस मद में आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपए की कटौती की गई है। हिंदी के साहित्यकारों का कहना है कि बजट में इस मद में घटाई गई राशि बताती है कि सरकार की राजभाषा को उचित दर्जा देने की मंशा ही नहीं है।
वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपए दिए गए थे। सो, ज्ञानपीठ के निदेशक और जानेमाने साहित्यकार रवीन्द्र कालिया का कहना है कि सही मायने में यह हिंदी के साथ अन्याय है। जहां एक तरफ इस मद में बजट बढ़ाए जाने की जरूरत थी वहीं सरकार राशि को घटा रही है। जाने माने कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी भी मानते हैं कि यह राजभाषा के नाम पर पाखंड है। दरअसल, सरकार राजभाषा के नाम पर जो भी करती है वह शुद्ध आलंकारिक है। हिंदी के विकास की उसकी मंशा ही नहीं है। देश की आजादी के 62 वर्ष से अधिक हो गए हैं लेकिन किसी भी सरकार ने हिंदी को राजभाषा के विकास की दिशा में ठोस काम नहीं किया। हिंदी को जो प्रचार प्रसार हुआ भी वह फिल्मों, टेलीविजन चैनल या अन्य साधनों के जरिए हुआ है।
उल्लेखनीय है कि सरकार राजभाषा के विकास के अंतर्गत केंद्रीय कर्मचारियों को हिंदी सिखाने, केंर्द्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के परिचालन और गैर-हिंदी राज्यों में क्षेत्रीय क्रियान्वयन कार्यालय का संचालन करती है। अप्रैल, मार्च 2010-11 के बजट प्रस्तावों में राजभाषा के लिए आवंटित 34.17 करोड़ रुपए में 5.50 करोड़ रुपए योजनागत व्यय और 28.67 करोड़ रुपए गैर-योजनागत व्यय के लिए रखे गए हैं। चालू वित्त वर्ष के राजभाषा बजट में योजनागत और गैर-योजनागत व्यय के लिए 5.50 करोड़ रुपए और 30.72 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। रवींद्र कालिया कहते हैं, अगर सचमुच में हम राजभाषा को उचित दर्जा देने चाहते हैं तो सरकार को अपना रवैया बदलना होगा। वहीं वाजपेयी ने कहा कि राजभाषा विभाग का गठन या उसका बजट महज रस्म अदायगी है और अगर रस्म अदायगी पर आवंटित राशि कम हो जाए तो यह चिंता का कारण नहीं होना चाहिए।
2 टिप्पणियां:
अब तक एक विधेयक पारित करके हिंदी को संविधान में राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जा सका तो और क्या खाक कर सकती है सरकार ।
अब तक हमारा सरकारी तंत्र हिंदी के लिए जो न कर पाया उससे ज्यादा गुगल ने ही कर दिया है । हिंदी मेल, हिंदी ब्लाग, अनुवाद टुल्स और शब्दकोश...यह सब कुछ उसके शानदार हैं
ईमानदारी के काम और दिखावे का अंतर तुलना होने पर ही पता चलता है ।
आपके विचार सही हैं
बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि एक जमाने में शायद 1912 में कांग्रेस के अधिवेशन में यह यह प्रस्ताव पास किया गया था कि कांग्रेस में अंग्रेजी जानने वालों को प्रथमिकता दी जाएगी।
अब जरा सोचिएं कि जब देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी के नेताओं का प्रेम अगरेजी से है, तो हिंदी का बेडा पार कैसे होगा?
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