शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाषाई उहापोह

हमारे देश में विकास की भाषा क्या हो? इसको लेकर स्वतंत्रता काल से आज तक सर्वसम्मत फैसला नहीं लिया जा सका है। संविधान सभा के सदस्यों ने केवल इतना कह दिया कि हिन्दुस्तान में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है, सो यह राष्टï्रभाषा होने की अधिकारिणी है। मगर वास्तविकता क्या है? यही न कि हमारे राष्टï्र के पास कोई राष्टï्रभाषा नहीं है। अनेकता में एकता की बात करने वाला हिन्दुस्तान कई बार भाषा और प्रांत के नाम पर विद्रोह की ज्वाला में धधक उठा है। हजारों लोग उसकी तपिश को झेल चुके हैं। न्यायालय में काम काज की भाषा आज भी अंग्रेजी ही है। अंग्रेजी बोलने वाले स्वयं को सभ्य व सुशील मानते हैं।
ऐसे में हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आशा की एक किरण दिखाई। जब 10वीं बोर्ड की परीक्षा को ग्रेडिंग प्रणाली में परिवर्तित करने की बात शुरू हुई थी तो मंत्री महोदय ने कहा कि पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य किया जाएगा। हिंदी भाषियों के लिए यह स्वर्णिभ आभा थी।
काबिलेगौर है कि अभी हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है और 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा। मानो हिंदी केवल उत्सव की चीज रह गई है। हमारे रोजमर्रा जिंदगी की बात नहीं हो। विदेशों में जैसे मदर्स डे, फादर्स डे और वेलेंटाइन डे का आयोजन किया जाता है, उसी तरह हम हिंदी दिवस मना रहे हों। गौर करने लायक यह भी है कि विदेशी समाजिक ताने-बाने में संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं है, जबकि हमारे समाज में आज भी वह कायम है। जब बच्चे अपने माता-पिता से दूर रहेंगे और उनमें कोई सरोकार नहंीं होगा तो वर्ष में एक दिन उन्हें स्मरण करने का औचित्य समझा जा सकता है। हमारे यहां तो राधा-कृष्ण की पूजा घर-घर में होती है, नित्य-प्रतिदिन। तो भला हम प्रेम दिवस 'वेलेंटाइन डेÓ क्यों मनाए? हम तो हर दिवस को प्रेम से ही शुरूआत करते हैं।
खैर, बात हो रही थी हिन्दी को लेकर। सारे तथ्य और शोध इस ओर इशारा कर रहे हैं कि यदि भारत और भारतीय समाज का लोकतांत्रिक विकास होना है तो इसका रास्ता युनिवर्सल इंग्लिश मीडियम एजुकेशन से होकर गुजरता है। भारतीय भाषाओं का रोजगार से रिश्ता जिस कदर कमजोर होता जा रहा है, उसमें देश की बड़ी आबादी को भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देना और इंग्लिश माध्यम से शिक्षा के लाभ से उन्हें वंचित रखना लगभग आपराधिक कृत्य है। अगर विकास का लाभ हर किसी तक पहुंचाना सरकार का अजेंडा है तो उसे इस दिशा में गंभीरता से काम करने की जरूरत है।
सवाल सिर्फ जॉब मार्किट में इंग्लिश के बढ़ते महत्व का नहीं है। इंग्लिश एजुकेशन का असर इससे कहीं ज्यादा व्यापक है। यह हमारे समाज और सामाजिक संस्थाओं पर असर डालती है। समाज को जड़ कर देने वाली जाति संस्था को तोड़ने का दम इंग्लिश शिक्षा में ही नजर आ रहा है। यह बात हम सब अपने आसपास शायद महसूस भी करते हैं। लेकिन दो विदेशी शोधकर्ताओं ने 2003 में जब मुंबई में इस नजरिए से समाज को खंगाला तो चौंकाने वाले नतीजे आए। आज के संदर्भ में इसकी फिर से चर्चा जरूरी है। ऐसे शोध कायदे से किसी भारतीय विश्वविद्यालय या शोध संस्थान को कराने चाहिए। ब्राउन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री कैवन मुंशी और येल यूनिवर्सिटी के मार्क रोजेंविग ने पिछले दो दशक में मुंबई के दादर इलाके में 10 इंग्लिश मीडियम और 18 मराठी मीडियम सेकेंडरी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, स्कूल के रिजल्ट, पास होने के बाद उनके रोजगार के पैटर्न और उनकी स्कूलोत्तर सामाजिक जिंदगी का अध्ययन किया। यह शोध 'द अमेरिकन इकनॉमिक रिव्यू' में छपा। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की साइट पर यह पूरा शोध पढ़ा जा सकता है। भारतीय समाज में बदलाव के बारे में नजरिया बनाने में इस शोध से मदद मिलेगी।
कहा जा रहा है कि अंग्रेजी शिक्षा की अनदेखी और कई बार विरोध करके खासकर हिंदी प्रदेश, अपना भारी नुकसान कर चुके हैं। पूरी आईटी क्रांति इन प्रदेशों को छुए बिना गुजर गई। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कोई साइबर सिटी नहीं बन पाई। साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ये प्रदेश खासकर दक्षिण भारतीय राज्यों और महाराष्ट्र से पीछे रह गए। हालांकि हिंदी प्रदेश के तमाम नामचीन नेता अपनी संतानों को इंग्लिश में एजुकेशन दिला रहे हैं। यानी वे जानते हैं कि उनके बच्चों के लिए क्या बेहतर है। अंग्रेजी विरोध अब वोट जुटाने का औजार भी नहीं बन सकता। ऐसे में क्या वे इस बात का प्रयास करेंगे कि आम जनता को वे भारतीय भाषाओं की महानता की नारेबाजी में नहीं उलझाएं और देश के विकास के लिए अंग्रेजी शिक्षा के युनिवर्सलाइजेशन को अपना अजेंडा बनाएं। इन स्थिति में सरकार के साथ समाज को तय करना होगा कि वोह कौन सा रास्ता चुनेगी .

1 टिप्पणी:

अनुनाद सिंह ने कहा…

" सारे तथ्य और शोध इस ओर इशारा कर रहे हैं कि यदि भारत और भारतीय समाज का लोकतांत्रिक विकास होना है तो इसका रास्ता युनिवर्सल इंग्लिश मीडियम एजुकेशन से होकर गुजरता है। "


जरा मुझे भी एक-दो ऐसे क्रान्तिकारी 'शोधों' की जानकारी दीजिये।

कृपया यह भी बताइये-

१) जर्मनी, जापान, कोरिया, चीन, जापान, इन्डोनेशिया, फ्रान्स आदि अपनी-अपनी भाषा के सहारे अंग्रेजों के नाक में दम कैसे किये हुए हैं?

२)बंगाल, ओड़िशा, नागालैण्ड में संचार-क्रान्ति क्यों नहीं हुई? वहाँ तो हिन्दी नहीं है!

३) क्या कोई अपने बेटे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल मे पढ़ा रहा है इसका सीधा अर्थ यह भी है कि हिन्दी की भारत के लिये उपयोगिता का वह पक्ष लेने का नैतिक अधिकार खो दिया है?