राष्ट्रीय राजनधानी दिल्ली में प्रगति मैदान के पीछे स्थित बस टर्मिनल से आगे छोटे-मोटे पेड़ों और झाडिय़ों के झुरमुट के पार एक पुरातन की भग्र होती प्राचीरें और जर्जर हो रही बुर्जिया सिर उठाये दिखाई पड़ती है। ये बुर्जियां उस अति प्राचीन किले की चारदीवारियों पर खड़ी हैं, जो एक अत्यंत प्राचीन नगरी का शाश्वत साक्षी रह चुका हैै। यह किला कभी ध्वस्त हुआ तो कभी बना, लेकिन इसका स्वरूप कभी नहीं बदला। इस किले को पुराना किला, पांडवों का किला, इंद्रप्रस्थ का किला और हुमायूं का दीन पनाह नामों से जाना जाता हैै। समय के तमाम थपेड़ों ने इसके स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन करनी चाही, लेकिन कोई विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता हैै।
उल्लेखनीय बात यह है कि इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की रूचि इस किले में काफी रही हैै। इस रूचि की वजह महाभारत की अधिकाधिक सच्चाई जानने के साथ-साथ हुमायंू, शेरशाह सूरी और अंतिम मुगल बादशाह बहाुदर शाह जफर के बारे में प्रमाणिक जानकारियां उपलब्ध करना भी था, लेकिन अपनी लाख कोशिशों के बावजूद वे इस किले का निर्माण समय नहीं बता पाये। फिर भी अनुमान है कि इस किले का निर्माण 5000 साल पूर्व हुआ था और इसे पांडवों ने बनवाया था। बात उस समय की है कि जब दुर्योधन की जिद के कारण हस्तिनापुर राज्य का विभाजन हुआ था। विभाजन के समय पुत्रमोह में अंधे धृतराïष्ट्र ने दुर्योधन को तो राज्य के उपजाऊ भाग दिए जबकि उसने पांडवों को सुविशाल, दुर्गम और अनुपजाऊ खांडव वन तथा इसके आसपास के क्षेत्र दिए। खांडव वन खंड में पांच प्रसिद्घ पत (गांव) के क्षेत्र दिए। ये गांव बदले हुए नामों के साथ आज भी मौजूद हैैं। ये गांव थे - इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) , पानीप्रस्थ (पानीपत), सोनप्रस्थ (सोनीपत), तिलप्रस्थ (तिलपत) और वकृप्रस्थ (बागपत)।
बंटवारे के बाद श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने खांडव बन को जमाकर इसे रहने और साथ-साथ कृषि योग्य बनाया। इसके साथ-साथ पांडवों ने यमुना नदी के किनारे एक भव्य एवं सुदृढ़ किले का निर्माण कराया। चूंकि यह किला इंद्रप्रस्थ गांव की सीमा में बनाया गया था, इसलिए पांडवों ने अपनी राजधानी का नाम भी इंद्रप्रस्थ रखा।
इतिहासकारों और किवंदतियों पर विश्वास किया जाए तो किले के निर्माण के दौरान पांडवों ने किले के पृष्ठï भाग में दो दरवाजे बनवाये थे। ये दोनों दरवाजे यमुना नदी के किनारे खुलते थे। इन्हीं द्वारों से पांडु पत्नियां स्नान करने यमुना जाती थी। इन रास्तों की सुरक्षा के लिए पांडवों ने लाल भैरव की स्थापना की। राजमाता कुंती प्रतिदिन भैरव जी को दूध चढ़ाया करती थी। कालांतर में जब महाभारत का युद्घ हुआ तो कुंती ने लाल भैरव से वर मांगा कि मेरे पुत्र युद्घ में विजयी हों और अंतत: पांडव विजयी हुए। अपनी विजय के उपलक्ष्य मेें युधिïिïष्ठïर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन कुछ आसुरी शक्तियों के उपद्रव के कारण यज्ञ मेें विघ्र पडऩे लगा। विघ्र निवारण के लिए पांडव श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने पांडवों को बताया कि यदि काशी से काल भैरव को इंद्रप्रस्थ लाया जाए तो यज्ञ निर्विघ्र संपन्न हो सकता है।
शिवपुराण के अनुसार काल भैरव भगवान शिव के सर्वप्रिय एवं प्रमुख गण थे। उनकी काशी पहुंचने की कथा कुछ इस प्रकार से है :
कहा जाता है कि एक बार भूलवश ब्रह्मïा जी अपनी पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए। अपनी रक्षा के लिए सरस्वती भगवान शंकर जी के पास पहुंंची। ब्रह्मïा जी भी उनके पीछे-पीछे थे। तब भगवान शंकर ने काल भैरव को ब्रह्मïा जी को रोकने का आदेश दिया। ब्रह्मïा जी को रोकने के लिए काल भैरव को उनसे युद्घ करना पड़ा। इस युद्घ में काल भैरव ने अपने नाखून से ब्रह्मïा जी का एक शीश काट दिया। हालांकि काल भैरव ने यह कार्य अपने स्वामी भगवान शिव केे आदेश पर किया था। फिर भी उन्हें ब्रह्मï हत्या का पाप लगा और इस पाप का प्रायश्चित भी आवश्यक था। अत: भगवान शिव ने उन्हें अपनी पापमोचन नगरी काशी में भेज दिया। इस तरह काल भैरव काशी पहुंचे और वहीं रहकर नगरी का सुरक्षा भी करते रहे और अपने पाप का प्रायश्चित भी।
बहरहाल हम बात कर रहे थे- श्रीकृष्ण के आदेश पर काल भैरव को बुलाने की। सो श्रीकृष्ण के आदेश पर महाबली भीम काल भैरव को लेने के लिए काशी पहुंचे और जैसे-तैसे उन्हें अपने साथ इंद्रप्रस्थ चलने के लिए राजी कर लिया। लेकिन इसके साथ काल भैरव ने भीम के साथ एक शर्त भी रख दी। शर्त यह थी कि भीम काल भैरव जी को गोद में उठाकर अविराम इंद्रप्रस्थ तक चलेंगे और यदि मार्ग में भीम कहीं पर थक कर बैठ गये तो भैरव जी वहीं स्थापित हो जायेंगे। भीम ने उनकी यह शर्त मान ली। काल भैरव को साथ लेकर भीम काशी से चल दिए। शर्त के अनुसार वे कई दिन तक लगातार बिना रूके चलते रहे और अंतत: इंद्रप्रस्थ नगरी के पिछले प्रवेश द्वार पर पहुंच गये। द्वार पर पहुंचकर अचानक भीम ने सोचा कि क्यों न थोड़ा-सा विश्राम कर लिया जाये। उन्होंने काल भैरव को दरवाजे के साथ ैबैठाया और स्वयं वहीं पसर गये। कुछ विश्राम करने के बाद जब वे आगे चलने के लिए तैयार हुए तो भैरव जी ने आगे जाने से इंकार किया। वे भीम से बोले कि शत्र्त के मुताबिक तुम्हें मुझे लेकर अविराम चलना था जबकि तुमने यहां रूककर विश्राम किया। इसलिए अब मैं आगे नहीं जा सकता। भीम ने काफी मिन्नतें की, लेकिन भैरव जी नहीं मानें लेकिन भीम को आश्वासन दिया कि जब यज्ञ शुरू होगा तो मैं यहीं से किलकारी मारूंगा। मेरी किलकारी से सारी आसुरी शक्तियंा भाग जायेंगी। ऐसा ही हुआ भी। पांडवों ने यज्ञ शुरू किया तो काल भैरव ने हुंकारनुमा किलकारी मारी, जिससे सारी आसुरी शक्तियां भाग गई। पांडवों का यज्ञ संपन्न हुआ। यज्ञ समाप्त होते ही कालभैरव मूत्र्ति के रूप में प्रकट हो गये तभी से उनका एक नाम किलकारी भैरव भी पड़ गया।
पांडवों के स्वर्गारोहण के बाद इंद्रप्रस्थ सूना हो गया। अभिमन्यु पुत्र परीक्षित ने अपनी राजधानी पर परीक्षित गढ़ में बनाई थी, इसलिए इंद्रप्रस्थ उपेक्षित हो गया। सदियों बाद इस किले पर राजा सुदर्शन का अधिकार हुआ। राजा सुदर्शन के पास अथाह धन-संपदा थी। इसलिए उसके पड़ोसी राजा विजय ने उस पर आक्रमण करके उसे मार डाला और स्वयं किले का मालिक बन ैबैठा। राजा विजय के बाद इतिहास इंद्रप्रस्थ के बारे में मौन है। शायह यह नगरी उपेक्षित हो गई थी।
अनुमान है कि छठी शताब्दी में यहां का राजा दिलू हुआ था। उसके नाम पर ही इंद्रप्रस्थ का नाम दिल्ली पड़ा। राजा दिलू के बाद भी सदियों तक पांडवों का किला उपेक्षित पड़ा रहा। हालांकि इस बीच मुसलमानों का दिल्ली आगमन हो चुका था। लेकिन उनमें से किसी ने भी इस किले की ओर ध्यान नहीं दिया। सोलहवीं सदी मेें शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर अपना कब्जा जमाया। इतना ही नहीं, उसने पांडवों के किले को ही अपनी रानधानी बनाया। शेरशाह ने किले में व्यापक रद्दोबदल कराई। उसने पांडवों के यज्ञ मंडप के स्थान पर मस्जिद बनबाई, देवी के मंदिर को तोड़कर शेरमण्डल बनवाया और यमुना की तरफ खुलने वाले दोनों दरवाजे बंद करवा दिये। लेकिन उसने काल भैरव और लाल भैरव की मूत्र्तियों के साथ किसी प्रकार की छेड़-छेड़ नहीं की। शेरशाह के बाद हुमायूं दिल्ली पर काबिज हुआ। उसने भी अपनी राजधानी इसी किले मेें रखी और अपनी रूचि और सहूलियत के हिसाब से किले में परिवर्तन कराए। हुमायंू ने किले का नाम बदलकर दीनपनाह नगर कर दिया, लेकिन इसने भी भैरव के मूत्र्तियों को कुछ नहीं कहा। उस समय तक काल भैरव और लाल भैरव के पुजारी मंदिर में ही रहते थे।
वर्ष 1857 के प्रथम स्वंतत्रता संग्राम में पराजय के बाद अंतिम मुगल बादशाह बहाुदरशाह जफर ने इसी किले मेें शरण ली थी। उस समय तक काफी लोग इस किले मेंं रहते थे लेकिन बाद में वर्ष 1917 में अंग्रेजों ने किले को पूर्णत: खाली करा दिया। उन दिनों भैरव बाबा के पुजारी थे छीतर नाथ। छीतर नाथ के दो पुत्र थे - नत्थी नाथ और खचेडू नाथ। छीतरनाथ और उनके दोनों पुत्रों के भगीरथी प्रयास से भैरव बाबा का वर्तमान मंदिर अस्तित्व में आया। आज यह मंदिर काफ ी बड़ा हैै। मंदिर के भीतर काल भैरव (किलकारी भैरव) और लाल भैरव (दूधिया भैरव) की मूत्र्तियों के अलावा अन्य देवी-देवताओं की मूत्र्तियां भी हैैं। हर रविवार को इस मंदिर मेंं दूर-दूर से दर्शनार्थी आते हैैं। दिसंबर माह के अंतिम रविवार को यहां वार्षिक मेला लगता है।
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
achhi jankari di hai aapne. sambhav hai delhi mein rahne wale kai log v is jankari se do-char nahi honge. aisa hi likhte rahe bandhu aur gati barkarar rakhen...
एक टिप्पणी भेजें