घुल गया है चित्र तेरा,
बह गये हैं रंग मेरे ।
साँझ थी कैसा सृजन था,
सिंधु से मिलता गगन था।
वस्त्र से लिपटी वधू का,
तिमिर में सोया सदन था।
व्योम से तारे पिरो तू,
डाल दे बहिरंग मेरे।
घुल गया है चित्र तेरा,
बह गये हैं रंग मेरे ।।
सुधर उपवन की सुमन थी,
चपल चंचल, कनक मन थी।
रात थी पूनम गगन था,
अधर तेरे गीत मेरा।।
नीर का है तीर गहरा,
कल्पना का कड़ा पहरा।
सजनी तू मैं मीत तेरा,
चित्र यह मनोनीत तेरा।।
साँझ के छिपते सवेरे,
दे गए धुंधले अंधेरे।
धुल गया चित्र तेरा,
बह गए हैं रंग मेरे।।
सुरेश चंद्र शुक्ला
नार्वे
सोमवार, 13 जुलाई 2009
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3 टिप्पणियां:
वाह ! वाह ! वाह ! अद्वितीय !!! अतिसुन्दर !!! मुग्ध कर लिया आपकी इस सुन्दर कविता ने......
अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति -- वाह
Bhai, maja aa gaya. Narve me rahkar bhee aap hindi ki jo seva kar rahe hain wah vilkshan hai. seedhe man ki gahraee tak utar gai hai aapki rachna.
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